नवगीत :1
जुलाहे- सा मन
किसी नदी का बहना
मुझमें बचा रहा
जाने मन की अमराई में
कैसी हवा चली
मैं उछाह की उंँगली पकड़े
भटका गली गली
किसी धूप के टुकड़े में
दिल लगा रहा
रंग उभरकर आए अक्सर
बीती बातों के
बुनता रहा जुलाहे-सा मन
धागे यादों के
मेला निर्जन में
वसन्त का लगा रहा
हुई उमंगें भेड़ बकरियांँ
जब भी शाम ढली
स्मृतियों की अनगिन छवियांँ
आंँखों में उतरीं
सूरज हुआ गड़रिया
बंसी बजा रहा ।
नवगीत : 2
एक मोर का पंख
एक मोर का पंख रखा है
बरसों पढ़ी किताब में
मार कोहनी संकेतों की
अक्षर हैं बौराये
सहमे हुए अर्थ के पंछी
मगर कहांँ उड़ पाये
सदियों चलकर
सच की दुनिया
टिकी हुई है ख़्वाब में
जाने सच है या केवल
यह मौसम की है लेखी
मीठे संबंधों में अक्सर
तनातनी है देखी
रिश्ते कायम
वैसे ही हैं
कांँटे और गुलाब में
आंँखों में दिन भर की बातें
लिए टहलती शामें
बाहर चुप्पी लेकिन भीतर
चाहों के हंगामे
छवियांँ जगतीं रहीं
रात भर
यादों के मेहराब में
नवगीत:3
सारांश
दुख का सारांश
एक आंँसू है
पैशाचिक इच्छाएंँ
जगती हैं
आंँगन में विपदाएंँ
पलती हैं
मन का लाभांश
एक आंँसू है
जल का छलावा तो
गहरा है
शोषण का जाल
जहांँ पसरा है
छल का अक्षांश
एक आंँसू है
पीतल के रूप में
दमकता है
सोने के भाव मगर
बिकता है
सुख का अधिकांश
एक आंँसू है
नवगीत :4
ध्यान रहे
जो आंँखों के पानी में है ध्यान रहे
वो मेरी निगरानी में है ध्यान रहे
अंधकार में
डूबी डूबी रातों की
देखा देखी
नहीं चलेगी बातों की
इक मुश्किल
आसानी में है ध्यान रहे
बाजारों में
आज गिरावट भारी है
जीवन मूल्यों का
मिटना भी जारी है
हर रिश्ता
हैरानी में है ध्यान रहे
आई घर में
छंद मुक्त हो भौतिकता
कविताओं की
नष्ट हो गई मौलिकता
जो तुलसी की
बानी में है ध्यान रहे।
नवगीत:5
समय विश्वास का
डूब ही जाता
समय विश्वास का
हाथ में तिनका था
पूर्वाभास का
बेपरों की उड़ रही जो
किंवदंती है
कर्ण की सारी कथा में
व्यथा कुन्ती है
एक जीवन माह ज्यों
मलमास का
दोपहर तक ज़िन्दगी की शाम
अलसाई मिली
केक छल का काटने को
सोच की चमकी छुरी
झिलमिलाया जब सितारा आस का
कौन किसके पाश में है
शान्ति हो कि युद्ध
तोप से दहली दिशाएंँ
थरथराए बुद्ध
नाज था हमको
इसी वातास का
नवगीत:6
बात गुजरी सदी की
अब सुनाएँ
बात क्या
गुजरी सदी की
आ रही काली कमाई
सिद्धियों को रास
फालतू - सी चीज भी अब
हो गई है खास
अर्थ के बाजार में
बोली खुदी की
मोड़ से आगे दिखाई
दे न कोई राह
सिर खुजाती आंँधियों के
होंठ पर अफवाह
हर कदम पर अल्पना है
त्रासदी की
बढ़ रही नासूर होकर
हादसों की याद
खुशबुओं के चित्र के
हैं रंग सब बर्बाद
बिक रही है हर निशानी
अब नदी की
नवगीत : 7
पीलिया
शहर को कुछ हो गया है
पीलिया-सा
आंँख में भी रंग है
उसका सजीला
यह नहीं कि
झूठ का है रंग पीला
रह रहा है सबमें वो ही
भेदिया-सा
आदतों से इक मशीनी
है क़वायद
आदमी से चेतना की
गंध गायब
चेहरे में है कोई
बहुरूपिया-सा
खोखले संवाद में हैं
शब्द केवल
हम खुशी के आंँसुओं में
पी रहे छल
खींचती है एक चुप्पी
हाशिया-सा।
नवगीत:8
भाई हो कहाँ
खत न कोई बात
भाई हो कहांँ
बहुत ऊंँची है हवेली
बहुत ऊंँचे लोग
है अकेलेपन का लेकिन
हर किसी को रोग
हर तरफ हैं
मौत के हालात
भाई हो कहांँ
दिन, शहर की हलचलों में
हो गया नीलाम
हादसों में डूबती है
ज़िन्दगी की शाम
सिर्फ आंँसू ही मिले
सौगात
भाई हो कहांँ
भाषणों में सभ्यता की
बस दुहाई है
एक बित्ता धूप की
खातिर लड़ाई है
कर रहे अपने ही
भीतरघात
भाई हो कहांँ ।
नवगीत : 9
तुम्हारे नाम
लौट आई जो लिखी
चिट्ठी तुम्हारे नाम
लहरियों ने याद की
पकड़ी कलाई थी
खिंच गई तस्वीर
आंँखों में विदाई की
आंँख का तारा हुई है
वो सुनयना शाम
बोलने से यह लजीला
मौन घबराए
एक खालीपन कहांँ तक
घाव भर जाए
बंद हैं क्या इस सदी में
मौसमों के काम
वो न होकर भी अभी
इस वास्ते में है
कोई टूटा पुल अभी तक
रास्ते में है
देह सोती है मिला कब
साँस को आराम
नवगीत: 10
सात समंदर
लगा छलांगें
पार हो गए सात समंदर
शिक्षा के बेढंगेपन ने
ऐसा पीसा
गले में टाई होठों पर
हनुमान चलीसा
किसी युक्ति से
जो जीता है वही सिकंदर
अपराधी पहुंचे संसद में
अच्छे खासे
आजादी का तांडव देखा
लाल किले से
गए काम से
गांधीजी के तीनों बंदर
धन बल से अब कद जीवन का
लगा है नपने
दूर-दूर तक जीभ निकाले
फिरते सपने
यही प्रगति है बाहर हंँसते
रोते भीतर
नवगीत : 11
किसने बाँधा
कहो प्रीत की
पुरवाई को
किसने बांँधा
कान्हा- सी
धरती लगती है
मन की धूसर
हवन धूम - सी
नीले नभ में
उड़ती राधा
सीता बिन
सपनों में है
वनवासी जीवन
बिना शिवा के
शिव का भी है
दर्शन आधा
सुरभित यौवन का
मद पीकर
पग डगमग है
लेकिन जग को
इसने ही
सुर लय साधा
नवगीत:12
प्रेम
प्रेम एक जाग्रत संवेद है
पाने को मिट जाना
कांँटों में खिल जाना
जीवन का रूपक है
मृत्यु के आगे तक है
सृष्टि और स्रष्टा का
दृश्य और द्रष्टा का
अनुभव अभेद है...
आलोकित आँसू में
गंध पुष्प होने को
रग रग स्पंदन की
एक अमिय धार है
सौरभ निकुंज में
एक प्रभा पुंज सम
तम का विच्छेद है...
सुधियों का इंद्रधनुष
आँखों में बुनता कुछ
यश गाता आहों का
एक मंत्रकार है
जीवन के पार भी
जीवन का स्वप्न एक
सुंदर अभेद है....
नवगीत:13
एक मुट्ठी शब्द
गिर पड़ा इक बार तो फिर
मैं कहांँ सँभला
ज़ख्म के नहले पे हरदम
चोट का दहला
ज़िन्दगी है किस अगोचर
त्रास को उन्मुख
भाग्य में बस आत्महंता
सिद्धियों का सुख
देख आया हर नुमाइश
मन नहीं बहला
पुस्तकों की भीड़ है
पाठक तिरोहित हैं
एक निर्णायक समय में
हम विवादित हैं
बढ़ा सुरसा के बदन - सा
रोज यह मसला
एक अविकल गूंँज मलती
हाथ क्यों निरुपाय
मौन के नेपथ्य में क्यों
व्यक्त सब अभिप्राय
कौन अंतिम कौन पथ पर
हैे कदम पहला
हौसले - भर ही नहीं ये
उनके मसले हैं
एक मुट्ठी शब्द लेकर
लोग निकले हैं
जो अंँधेरों को करेंगे
एक दिन उजला
नवगीत : 14
खुशियों की लिपि
अपने मन का सन्नाटा भी
शोर मचाता है
दरकी हुईं ज़मीनें सच की
झूठे महल खड़े
सिंधु सभ्यता- सी खुशियों की
लिपि को कौन पढ़े
आंँखों का भग्नावशेष से
गहरा नाता है
हाथों में जिसके हरदम
इक छल की चरखी है
समय, सरल मुस्कानों का भी
कुटिल पारखी है
एक उस्तरा- सा होकर
हरदम चल जाता है
उत्तर से निकली प्रश्नों में
जैसे सिकुड़ गई
लहरों पर पहरा क्या बैठा
नदियाँ निचुड़ गईं
इस पीली बीमारी से
सागर का नाता है
सुविधाओं के सोन हिरन
चाहों की पंचवटी
आमंत्रण का स्वर भरमातीं
चिंताएंँ प्रकटीं
चुटकी लेती सदी, देख कर
गुस्सा आता है
नवगीत:15
दिन ढला विवादों में रात संशयी
कह पुरानी बातों से बात कुछ नयी
इस मुर्दा घाटी में जीने की आस
होंठ चाटकर अपनी बुझा रहे प्यास
आंँखों ही आंँखों में सब- कुछ सहें
इस अंँधेर नगरी का सच क्या कहें
अजगर हैं अपनों के भेष में कई
दूर- दूर तक न कोई मीत न मेले
खाते हैं मौसम की मार अकेले
विपदा की लहरों में है घिरी सदी
अंधी सुरंगों से बह रही नदी
सिर के भी ऊपर अब हो व्यथा गई
जब यहांँ उजालों का खो गया पता
हम लड़े अंँधेरों से गीत गुनगुना
राहों ने रोका था हम रुके नहीं
मुश्किल था वक्त मगर हम झुके नहीं
कोशिशों ने दिखलायी राह इक नयी
विनय मिश्र
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