वागर्थ प्रस्तुत करता है कवयित्री
रूपम झा के पाँच नवगीत
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समूह वागर्थ नए रचनाकारों को आरम्भ से ही उन्हें प्रोत्साहन स्वरूप बड़ा मंच उपलब्ध कराता हैं आज हम जिस रचनाकार को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं वह नवोदित नहीं है उनकी रचनाएँ इन दिनों पत्रपत्रिकाओं में देखने और पढ़ने में आ रही हैं हाँ इतना जरूर है वह आज के विज्ञापन वाले युग में अपना काम बिना शोर गुल किए निरन्तर करती आ रही हैं कभी वागर्थ में प्रकाशनार्थ हमनें उनसे गीत आमन्त्रित किए थे उन्होंने गीत भेजे और भेजने के बाद प्रकाशनार्थ किसी प्रकार का कोई तगादा आज तक नहीं किया।
रूपम जी मैथिली अनुवाद के साथ ही अन्य विधाओं में भी सक्रिय हैं और निरन्तर काम कर रहीं हैं। इन दिनों वे पठन-पाठन में अतिव्यस्त हैं। उनके प्रस्तुत नवगीतों में बहुत सम्भावनाएं हैं। यहाँ उनके द्वारा प्रेषित नवगीतों में से हम उनके कुछ चयनित नवगीत वागर्थ के पाठकों के समक्ष समूह में प्रतिक्रियार्थ जोड़ रहे हैं।
रूपम झा जी का पहला नवगीत 'घसगढ़नी' कितना मोहक और चित्रात्मक बन पड़ा है एतदर्थ उन्हें बहुत बहुत बधाइयाँ!
आइए पढ़ते हैं रूपम झा के पाँच विविधरंगी नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल
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1
देखते हैं हम तुझे
हर बार घसगढ़नी
है तेरे हसिये में कितनी धार घसगढ़नी
सर पे है बोझा कमर में एक हसिया डालकर
पाँव को रखती ढलानों पर बहुत संभाल कर
हाँकती जाती बकरियाँ
चार घसगढ़नी
घर-गृहस्थी काम-धंधा कर्ज-पैचों की
दाल-रोटी दवा-पानी बाल-बच्चों की
ढो रही कितने दिनों से
भार घसगढ़नी
है मरद घर पर निठल्ला पीटता तुमको
जो भी लाती तू कमा कर छीनता है वो
सह रही कितने दुखों का
भार घसगढ़नी
इस जहाँ से आज लड़ना सीखना होगा
आग की मानिंद तुमको दीखना होगा
जिन्दगी होगी नहीं
दुश्वार घसगढ़नी
2
बैनर पर बाजारी सपने
घर में सूखी आँत
बेच रहा है वक्त काल बन
अब रोटी की गंध
राख न हो जाये यह जीवन
चारो ओर प्रबंध
चाह रहे हैं बोया जाए
फिर खेतो में दाँत
नई किरण लेकर आएगी
झुग्गी में सरकार
बोल रही जन-जन के हिस्से
अब होगा रोजगार
चमक दमक से हो ना जाएँ
फिर से हाथ अनाथ
3
नारी त्याग अश्रु आँखों से
रख आँखों में नूतन सपना
सदियों से पीड़ा की मारी
बनी रही अब तक बेचारी
तुझपर तेरा जीवन भारी
आज बदल दो तुम पथ अपना
दुनिया कितनी नयी हो गई
सुर्ख और सुरमई हो गई
उठो बढ़ो गाओ मुस्काओ
छोड़ो दुख का मंतर जपना
लड़ना होगा, लड़कर हक लो
पूरा-पूरा अंतिम तक लो
बनो प्रेरणा जग की खातिर
छोड़ो रोना और कलपना
फूल तुम्हीं हो तुम हो माला
मत डालो होठों पर ताला
नियम बदल दो जंगल वाला
सीखो तुम लोहे-सा तपना
4
ताक रही हैं हमें निरंतर
खंजर-सी लगती हैं आँखें
गली-गली की हवा जहर है
हर नुक्कड़ से लगता डर है
अब इतने भयभीत शहर में
कैसे हम सच्चाई आँकें
जो चिड़िया कल थी उड़ान में
चहक रही थी आसमान में
आज वही लाचार पड़ी है
कटी मिली हैं उसकी पाँखें
ऐ चिड़िया कुछ करना होगा
स्वयं कुल्हाड़ी बनना होगा
जिस दरख़्त से भय लगता हो
काटो मिलकर उसकी शाखें।
5
जब से तुम आये जीवन में
मेरी साँस बनी शहनाई
सपनों के बंजर भूमि पर
फिर से घास पनप आए हैं
आशाएं मन के आँगन में
अभिमानी बन इठलाए हैं
यादों की फुनगी पर फिर से
धूप प्यार की ली अंगड़ाई
पत्थर भी अब इन आँखों को
दर्पण के जैसे दिखते हैं
संदेशा मन का हम दोनों
बिन बोले लिखते-पढ़ते हैं
श्याम तुम्हीं ने इस जीवन को
सुख की वरमाला पहनाई
6
आज खु़द में हूँ कहाँ मैं
ले गया है मन कोई
जिन्दगी अब हो गयी है
लोक गीतों सी सरस
फूल के मानिंद होंगे
अब हमारे दिन-बरस
थक चुके मेरे नयन से
ले गया सावन कोई
नूर भी अब नूर कहकर
नित बुलाती है हमें
थपकियाँ देकर हवाएँ
अब झुलाती हैं हमें
आज दुख का खोल तन से
ले गया अचकन कोई
रूपम झा
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जन्म स्थान : शाशन, समस्तीपुर, बिहार।
शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी+मैथिली)
नेट क्वालीफाई मैथिली भाषा
पी.एच.डी.में अध्ययनरत, पटना विश्वविद्यालय।
साहित्य अकादमी के द्वारा अनुवाद कार्य :
मलयाली उपन्यास सूफी परंज कथा, लेखक के.पी.रामनुण्णि।
मैथिली अनुवाद
मैथिली दोहा संकलन 'चान ओलती ठाढ़ अछि'
विधाएँ : कहानी, लघुकथा, गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुकरी
विशेष : हिन्दी और मैथिली भाषा में निरंतर लेखन
पता : ग्राम+पो- वीरपुर, वाया-मंझौल, बेगूसराय
कमाल है। खेद है कि इतनी शानदार कवि से मैं अब तक परिचित नहीं था। अब रूपम झा की कविताएँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ूँगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंजीवन की विसंगतियों और नारी मन की भावनाएं टटोलता रचनाकर्म जब पटल पर उपस्थित हुआ है तो एक बात तो निश्चित है कि नारी की शक्ति सामर्थ्य और धैर्य,समर्पण की भावना का दिग्दर्शन अवश्य होगा ही। और फिर जब लेखिका गीत विधा में अपनी सहज कहन को अभिव्यंजित करती है तो जन-मन क्योंनही आकर्षित होगा। अपने पहले ही गीत में रुपम जी स्पष्ट कर देती हैं कि उनके लेखन की धार तेज है--देखते हैं हम तुझे हरबार घसगढ़नी,है तेरे हंसिये में कितनी धार घसगढ़नी। इसी गीत की अगली पंक्ति में गीतकारा जीवन के उतार चढ़ाव में अपने कदमों के सधे होने और संभल संभलकर अपनी काव्य यात्रा पर चलने की आश्वस्ति भी देती है,जो उनके संज्ञान,और युगबोध की पहचान का प्रमाण है। गीत में घसगढ़नी का सजीवता से चित्रांकन करने का अनूठा संदर्शन रुपम जी को विशिष्ट बना देता है। जीवन्त प्रतीकों के माध्यम से हर मन की व्यथाकथा को शब्द देता छंद सरसता से नवोन्मेष करता है। थोथा चना बाजे घना की लोकोक्ति को अगले बंध में विस्तारित कर सरकार की लोकलुभावन घोषणाओं की पोल खोल देती पंक्तियां दृष्टव्य हैं-नयी किरण........हुई भूख कब शांत। नारी अबला नहीं दुर्गा है, शक्ति है, उसके अंदर के सामर्थ्य,गौरव और स्वाभिमान को जगाने वाला गीत उनकी लेखनी को सार्थक दिशा देने में सफल रहा है। गीतांश देखिए-नारी त्याग अश्रु आंखों से,....बनी रही अब तक बेचारी....आज बदल दो तुम पथ अपना। सीखो तुम लोहे सा तपना।
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिवेश में बेटियों की दशा और देहलोलुप दानवों की कुत्सित मानसिकता का परिचायक ये पंक्तियां लिखकर रचनाकार ने अपने कवि धर्म का कुशलता से निर्वाह किया है- जो चिड़िया थी कल उड़ान में,चहक रही थी आसमान में, आज वही लाचार पड़ी है,कटी मिलीं हैं उसकी पांखें।
लेकिन बिटिया तुमको डरना नहीं है डटकर लड़ना है,ये दिशा निर्देश देते हुए कह देती है-- जिस दरख़्त से भय लगता हो,कांटों मिलकर उसकी शाखें। यही कवि का सृजनधर्म है कि समाज को दिशा निर्देश जारी करे। और अंत में रूपम झा जी ने अपने नारी स्वभाव के अनुसार मन के मूल स्वरूप श्रृंगार के परिपाक के लिए रसराज का आलंबन ले ही लिया--जब से तुम आये जीवन में, मेरी सांस बनी शहनाई। ....श्रीराम तुम्हीं ने इस जीवन को सुख की वरमाला पहनाई।
रुपम जी के गीतों में जहां श्रृंगार का रसमय आकर्षण है तो नारी मन की पीर का निदर्शन। छुई-मुई की नारी छवि से मुक्त होने की बात है तो जीवन से खेलने वाले शाह को शह और मात है। भाषा कथ्य के अनुरूप है और शिल्प के सौंदर्य बोध का ज्ञान भी है। यद्यपि कहीं कहीं छंद टूटता है लेकिन प्रस्तुत गीत पाठक के मन पर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहे हैं। रुपम जी की लेखनी सतत् सृजन रत रहे उत्तरोत्तर विकास करे यही शुभकामना है। मनोज मधुर जी को सादर साधुवाद सार्थक और सामयिक गीत गंगा में अवगाहन करवाने के लिए।
डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी