सोमवार, 21 जून 2021

समकालीन दोहा वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं हरेराम समीप जी के समकालीन दोहे : प्रस्तुति दोहा वागर्थ

दूसरा पड़ाव 
_________
                      आठवीं कड़ी 
            दोहाकार      :     हरेराम समीप
         __________________________

दूसरे पड़ाव की आठवीं कड़ी में समकालीन दोहा वागर्थ आज प्रस्तुत करता है अनुभव की आँच में पगे समकालीन दोहा के आधुनिक कबीर हरे राम समीप जी के दोहे 
              हरेराम समीप जी को मुझे समकालीन दोहा का आधुनिक कबीर कहने में कोई गुरेज नहीं हम सबने उनके काम को देखा है दोहा को जन बोधी बनाने में जिन दोहाकारों का नाम सम्मान से लिया जाता है उनमें प्रथम पँक्ति में लिया जाने वाला एक नाम समीप जी का भी है।
                                                         समीप जी ने सिर्फ बेहतरीन दोहे ही नहीं रचे बल्कि अपने समानधर्मा दोहाकारों को भी जिन्होंने जनसरोकारों से जुड़े दोहे रचे उन्हें भी ढूँढ निकाला और अपने सम्पादन में सम्पादित शोध सन्दर्भ ग्रन्थ 'समकालीन दोहा कोष' में बड़े फलक पर लाकर उन्हें खड़ा कर दिया।
                             ऐसा करने में उन्हें पूरे बारहवर्ष का समय लगा यही कारण है कि चाहे स्वयं उनके दोहे हों या उनके सम्पादन में चयनित दोहाकारों के दोहे हों  प्रकारान्तर से कहें तो यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि समकालीन दोहों पर किया गया उनका काम परवर्ती पीड़ी के लिए एक मील का पत्थर है।
चाहे स्वयं का लेखन हो या सम्पादन हर क्षेत्र में हरेराम समीप जी काम बोलता है।
    आइए पढ़ते हैं अनुभव की आँच में पगे इन जनबोधी समकालीन दोहों को

प्रस्तुति
दोहा वागर्थ
_________
1
क्यों रे दुखिया क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज
मुखिया के घर आ गया,पहने नयी कमीज
2
हर औरत की ज़िंदगी, एक बड़ा कोलाज
इसमें सब मिल जाएँगे, मैं, तुम, देश, समाज
3
नारी तेरे त्याग को, कब जानेगा विश्व
थोड़ा पाने के लिए, तू खो दे सर्वस्व
4
न्यौछावर करती रही, जिस पर तन-मन प्राण
वो समझा तुझको सदा, घर का इक सामान
5
औरत कब से क़ैद तू, तकलीफ़ों के बीच
भरे लबालब दुक्ख को, बाहर ज़रा उलीच
6
करती दुख, अपमान से, जीवन का आग़ाज़
औरत के सपने यहाँ, टूटें बे-आवाज़
7
जुल्म सहें फिर भी रहें, हम जालिम के संग
यही हमारा सत्य है, यही हमारा ढंग
8
औरत, पेड़, गरीब क्यों, हैं बेचारे दीन
दुनिया में अब भी इन्हें, जो चाहे ले छीन
9
अपनी सारी क्रूरता, अभिनय बीच लपेट
वो बरसों से कर रहा, औरत का आखेट
10
बना रही अपनी जगह, संघर्षों के पार
उसके चारों ओर है, पत्थर की दीवार
11
बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज
बाद रफू के हो गई, वो दो-रंगी चीज
12
कहते हो अर्धांगनी, लेकिन हो अनजान
एक अंग के दुक्ख का, रखे न दूजा ध्यान
13
तुम तो कह कर सो गये, धुत्त नशे में बात
लगी अदालत आँख में, मेरे पूरी रात
14
मैं उससे कब तक मिलूँ , अपनेपन के साथ
अपनेपन की खाल में, जो करता हो घात
15
गर्भाशय से आ रही, उसकी करुण पुकार
‘माँ मुझसे मत छीन तू, जीने का अधिकार 
16
लौट रही कालेज से, भरे सुनहरे ख्वाब
वक्त खड़ा था राह में, लिए हुए तेजाब
17
वो थी बातूनी कभी, जैसे टॉकिंग डॉल
ओढ़ाया किसने उसे, खामोशी का शाल
18
होगी ‘तीन तलाक’ की, अब पूरी तस्दीक
तुम क्या समझे ! थूक दी, ‘तम्बाकू की पीक’
19
औरत पर पाबंदियाँ, लगा न यूँ प्रतिबंध
कब तक बाँधोगे मियां, शुद्ध इत्र की गंध
20
और न प्रतिबंधित करो, इक लड़की के ख़्वाब
हो जाती है बाँध से, एक नदी तालाब
21
जिनमें बन्दी औरतें, सहतीं अत्याचार
पिंजरे रीति-रिवाज के, कर दो सब मिस्मार
22
नई नस्ल पैदा करो, हो नवयुग निर्माण
नारी तेरा जो करे, ईश्वर-सा सम्मान
23
देहरी भीतर से सदा, तू देखे संसार
एक बार तो कर ज़रा, इस देहरी को पार
24
यदि अब भी बलहीन पर, रुका न अत्याचार
इक दिन उसकी आह से, बिखरेंगे अंगार
25
एक नए संघर्ष की, कर तैयार ज़मीन
जो तेरा है तू उसे, पूरे हक़ से छीन
26
बर्बरता करती रही, पूरी रात प्रयोग
चीख-चीख चिड़िया थकी, उठे न सोये लोग
27
बेहद अनुनय, विनय से, लड़की माँगे काम
मालिक उसमें खोजता, अपनी सुंदर शाम
28
अब भी अपने गाँव में, बेटी यही रिवाज़
पहले कतरें पंख फिर, कहें, भरो परवाज़
29
जुल्म सहे पीड़ा सहे, औरत बेआवाज़
फिर घर के घर में रखे,जालिम के सब राज़
30
प्रश्नों से बचती रही, ले सुविधा की आड़
अब प्रश्नों की टेकरी, लो बन गई पहाड़
31
नारी जीवन-संगिनी, इस जग का विश्वास
जाने कब हो पायेगा,हमको ये अहसास
32
दो बेटों ने बाँट ली,माँ ममता की खान
दो मुल्कों में ज्यों बँटी,नदिया एक समान
33
यूं तो वह सब कुछ दिया जो था उसे पसंद
लेकिन पिंजरे में रखा उसको करके बन्द
34
जिसे सुनाती फिर रही, अपने दर्द, कराह
नहीं रही उसको कभी, तेरी कुछ परवाह
35
मुझे क्या हुआ ठीक हूं’, वो कहती भी जाय
रुकी हुई हिलकी मगर, दिल में नहीं समाय
36
क्यों है बेटी बोझ­सी, बेटा पाए लाड़
अब तो मन के खोलिए, ताले जड़े किबाड़
37
वह सचमुच थी निर्भया, मानी कभी न हार
उजियारा संचित किया, उसने काजल पार
38
लड़ी निरन्तर त्रास से, और हो गयी ढेर
आखिर मछली रेत पर, जीती कितनी देर
39
मिली न पूरे गाँव में, जिसे लाज की भीख़
गूंज रही बृम्हाण्ड में,उस लड़की की चीख
40
इस भारी बरसात में, हैं तूफान अनेक
उस पर यारो हाथ में, माचिस तीली एक
41
कई अहिल्यायें यहाँ, सहें जुल्म की धूप
मिल जाते हैं इन्द्र के, गली-गली प्रतिरूप
42
अश्क गिरे, होते रहे, माटी में तहलील
धीरे धीरे यूँ मरी, आशाओं की झील

हरेराम समीप
__________
__________

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें