गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

सीमा अग्रवाल जी के नवगीत


#मत_सुलग_नम_लकड़ियों_सी_आग_बनकर_डोल_कमली_आग_बन_कर_डोल
~।।वागर्थ।। ~
 प्रस्तुत करता है सीमा अग्रवाल जी के नवगीत 
            सीमा अग्रवाल जी के नवगीत कहन में विशिष्ट हैं ,यह विशिष्टता गीतो में संवाद शैली अपनाने की या कहें कि स्वयमेव गीत की रचनाप्रक्रिया संवादमय हो जाने की वजह से है ।
आपके नवगीतों में दृश्य किसी चलचित्र की भाँति उपस्थित होते हैं जिनसे पाठक साँस बाँधकर आबद्ध हो जाता है । आपके विविधवर्णी गीतों में संयत स्वर में व्यंग्य , फटकार , प्रश्न एवम् चेतना जाग्रत करने का आह्वान है तो कहीं विषय की आवश्यकतानुसार बेहद जहीन तरीके से चिकोटी भी ली गई है  साथ ही सचेत भी किया गया है । स्त्री विमर्श व अन्य विषयों पर रचे गए आपके गीत आपको एक विशिष्ट आयाम पर ले जाते हैं । आपके गीतों का एक विशिष्ट किरदार 'कमली '  जिस पर केन्द्रित आपके गीतों के तमाम पाठक मुरीद हैं ।कहा जाता है कि लेखन की चर्चा हो लेखक की नहीं किन्तु व्यक्तित्व जब विशिष्ट हो तो बिन कहे रहा भी नहीं जाता ।
     कोकिलकंठी सीमा जी के गीत जितने धारदार हैं उतनी ही वे शालीन व मधुर । 
          वागर्थ आपके स्वस्थ्य सानंद व उन्नत साहित्यिक जीवन की शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
        

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(१)

आग बन कर डोल
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मत सुलग नम  लकड़ियों सी ,
आग  बन कर डोल , कमली !
आग बन कर डोल ।

फुसफुसाते शब्द  कब तक 
सह सकेगी ।
हाँ-नहीं के बीच कब तक 
बह सकेगी ।
अपहरित कर स्वयं की ध्वनियाँ
स्वयं ही ,
चैन से क्या एक पल भी 
रह सकेगी ।

तोड़ घेरा चुप्पियों का ,
बोल खुल कर बोल , कमली !
बोल खुल कर बोल ।

सोच ही डर, सोच ही मुँहजोर
होगी ।
आँख  खोलेगी तभी बस 
भोर होगी ।
प्रार्थनाओं को बदल  हुंकार में,
 फिर 
हाथ में तेरे समय की 
डोर  होगी ।

स्याह पड़ती चेतना में 
रंग उजले घोल , कमली !
रंग उजले घोल ।

(२)
सुनो सांता
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सुनो सांता, 
इस क्रिसमस पर 
जो हम बोलें 
देखो, बस तुम वो ही लाना ।

सुनो सांता
टाफी बिस्कुट भले न हों पर 
आशा हो कल की रोटी की ।
तनिक-मनिक सी हँसी साथ में 
और दवाई भी छोटी की ।

लगे ज़रा भी 
यदि तुमको यह गठरी भारी ,
सोच-समझ कर 
खुद तुम ही फेहरिस्त घटाना ।

सुनो सांता !
गुम दीवारों के इस घर में 
ठण्ड बहुत दंगा करती है ।
बिना रजाई कम्बल स्वेटर 
बरछी के जैसी चुभती हैं ।

अगर बहुत महँगा हो यह सब 
छोडो, लेकिन,
बेढब सर्द हवाओं को 
आ धमका जाना ।

सुनो सांता
चलो ठीक है खेल-खिलौने 
लाओगे ही, ले आना पर, 
छोटा सा बस्ता भी लाना 
जिसमे रख लेना कुछ अक्षर ।

जिंगल-विंगल सीख-साख कर 
गाकर -वाकर ।
है हमको भी
तुमको अपने साथ नचाना ।

(३)

शोर
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हम महज़ इक शोर 
होते जा रहे हैं ।

शोर जिसमें 
शब्द होते ही नहीं हैं ।
शोर जिसकी 
सब दिशाएँ दिग्भ्रमित हैं ।
शोर जिसमें
अनियमितता के नियम हैं ।
शोर जिसके 
विखंडन ही संगठित हैं ।

जो हमारा कुछ नहीं है
आँख मींचे ,
हम उसी की ओर 
होते जा रहे हैं ।

शोर दलदल
है कि जिसमें अर्थ सारे ,
संकुचित हो 
मौन साधे डूबते हैं ।
शोर में उद्देश्य 
सत्ता को स्वयं की 
अनमने 
मन से निरंतर ढूंढ़ते हैं ।

है नहीं दिनमान 
जिसमें हम उसी दिन
की अजूबी भोर 
होते जा रहे हैं ।

शोर कुछ 
देता नहीं लेता नहीं है ।
भाव कोई 
शोर में होता नहीं है ।
निस्पृही 
नादों- निनादों से विनिर्मित ,
ये किसी 
सम्वेग को ढोता नहीं है ।

शक्ति की अभिकल्पना 
धारे हुए हम 
दिन ब दिन कमज़ोर 
होते जा रहे हैं ।

(४)
हम चिंताओं में उतरेंगे
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तुम पन्नों पर सजे रहो
हम अधरों अधरों बिखरेंगे ।

तुम बन-ठन कर घर में बैठो ,
हम सडकों से बात करें ।
तुम मुट्ठी में कसे रहो 
हम पोर-पोर खैरात करें ।
इतराओ गुलदानों में तुम 
हम मिट्टी में निखरेंगे ।
 
कलफ लगे कपडे़
सी अकड़ी
गर्दन के तुम  हो स्वामी 
दाएँ-बाएँ आगे-पीछे
हर  दिक् के 
हम सहगामी ।
 
हठयोगी से
सधे रहो तुम 
हम हर दिल से गुजरेंगे ।

तुम अनुशासित 
झीलों जैसे
हल्का-हल्का मुस्काते ।
हम अल्हड़ नदियों 
सा हँसते
हर पत्थर से बतियाते ।

तुम चिंतन के 
शिखर चढ़ो 
हम चिंताओं में उतरेंगे

(५)
 चुप रहे तुम
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चुप रहे तुम 
वक़्त था जब बोलने का 
अब तुम्हारी 
चीख का हम क्या करेंगे ?

कल तुम्हारे स्वार्थ सारे 
सध रहे थे चुप्पियों से ।
थे ज़रूरी प्रश्न जितने 
लग रहे थे चुटकियों से ।
आज जब तुम स्वयं ही 
बन प्रश्न नत मस्तक खड़े हो 
उत्तरों की देह दागी 
जा चुकी है बरछियों से ।
 
चाहते हो लौट आएँ 
फिर वही दिन पर बताओ
आज के संदर्भ में अब 
उस गयी तारीख़ का हम क्या करेंगे ?

झूठ मंचों पर सजे थे 
सत्य केवल थे उपेक्षित ।
दोष मढ़ कर हर सही पर 
ग़लत सारे थे समर्थित ।
तब अपेक्षित था नहीं
निर्लिप्त रहना, पर रहे तुम 
कर लिया था स्यात्  तुमने 
मौन रह ख़ुद को सुरक्षित ।

सुन्न कर सम्वेदनाएँ 
हो गए अभ्यस्त कड़वे घूँट के अब 
हम क़सम से 
फिर रसीली ईख का हम क्या करेंगे ।

जान कर अनभिज्ञ रहना 
शब्द हों पर कुछ न कहना ।
आँख हो कर भी स्वयं के 
लिए ख़ुद अंधत्व गहना ।
दोष है यह, दोष को भी 
दोष कहने से बचे यदि
है ज़रूरी तो नही प्रत्यक्ष 
हिस्सेदार रहना ।

यह घड़ी परिणाम की है 
व्यर्थ होगा हर जतन ही 
संभलने या बदलने का 
अब सयानी सीख का हम क्या करेंगे ?

               - सीमा अग्रवाल

परिचय
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रचनाकार -सीमा अग्रवाल
माता -श्रीमती प्रभा गुप्ता
पिता-आयुर्वेदाचार्य बनारसीदास गुप्ता
जन्म तिथि- ८अक्टूबर, १९६२

मूल पैतृक स्थान कानपुर, उत्तर प्रदेश है l संगीत से स्नातक एवं मनोविज्ञान से परास्नातक करने के पश्चात पुस्तकालय विज्ञान से डिप्लोमा प्राप्त किया l आकाशवाणी कानपुर में कई वर्ष तक आकस्मिक उद्घोषिका के रूप में कार्य किया l विवाह पश्चात पूर्णरूप से घर गृहस्थी में संलग्न रहीं l पिछले कुछ वर्षों से लेखन कार्य में सक्रिय हैं l इन्ही कुछ वर्षों में काव्य की विभिन्न विधाओं में लिखने के साथ ही कुछ कहानियाँऔर आलेख भी लिखे ।

लेखन क्षेत्र- गीत एवं छंद, लघु कथा

प्रकाशित  गीत संग्रह 
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१- खुशबू सीली गलियों की 
२-नदी ने बतकही की पत्थरों से 
३- आहटों के अर्थ (सद्य प्रकाशित )
एवं अन्य कई साझा संकलन 

पता -
सीमा अग्रवाल
C-12 सिल्वर एंक्लेट 
यारी रोड, वर्सोवा,
अंधेरी पश्चिम
मुम्बई 400061
981029051

1 टिप्पणी:

  1. अद्भुत गीत है और हों भी क्यों न आखिर प्रबुद्ध विचारक सीमा अग्रवाल जी की कलम से निकले हैं। इनका रचनाकर्म गीत नवगीत के क्षेत्र में अपने आप मे पूरी पाठशाला है।
    सादर , निशा कोठारी

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