#आग_पहले_से_लगी_है_अब_हवा_भी_चल_रही_है
~।। वागर्थ ।।~
प्रस्तुत करता है युवा कवि मोहित लाम्बा जी के नवगीत ।
बहुत सँभव है वागर्थ से जुड़े कई नवगीतकार व पाठक मोहित लाम्बा के नाम से अपरिचित हों किन्तु जो इनसे परिचित हैं वह इनकी विनम्रता सरलता व समझदारी के कायल हैं , जोकि मनुष्य होने की पहली आवश्यकता है , एक संवेदनशील मन ही संवेदनशील सृजन कर सकता है , मोहित जी की संवेदना उनके नवगीतोंं में स्पष्ट परिलक्षित होती है । सामाजिक सरोकारों व जन की पीड़ा से जुड़े , सामाजिक व सामयिक विसंगतियों पर प्रश्न उठाते , जनपक्षधरता पर कहते बोलते उनके नवगीत , प्रभावशाली कथ्य व सहज कहन के चलते संप्रेषणीय हैं । नवगीत के क्षेत्र में मोहित लाम्बा नई दस्तक है व बेहद सँभावनाशील भी । यह न सिर्फ़ समर्थ नवगीत रचने में निरन्तर प्रयासरत हैं बल्कि बहुत सुन्दर पेंटिंग्स भी बनाते हैं ,
बिना किसी भूमिका के वागर्थ , स्वभाव से मितभाषी मोहित लाम्बा के गीत आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है , आप लोगों की महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ निश्चित ही इनके लेखन को संबल प्रदान करेंगी ।
वागर्थ मोहित लाम्बा जी को हार्दिक बधाई व उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
~ ।।वागर्थ ।। ~
सम्पादक मण्डल
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(१)
माली से बगिया चिंतित
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पीड़ा की टेबुल के ऊपर
सजी हुई झूठी मुस्कानें।
चिंताओं के भोज पके हैं,
बिछी शोक की दस्तरख़ानें।।
मजबूरी पर मंजूरी के
लेपन हमनें रोज किए हैं।
बाती ने जिनको भरमाया
हम तो देखो वही दिए हैं।
काट दिए हैं 'पर' उसने ही
जिससे चाही बड़ी उड़ानें।
दोषी हैं हम ही इसमें जब
करे कहाँ इस हेतु दुहाई
देह बेचकर है ममता ने
फिर बच्चे की भूख मिटाई
इससे बचने को भी हम तो
ढूँढ रहे हैं बहुत बहाने।
माली से बगिया चिन्तित है
तन की सोचे या फिर मन की
और तिमिर से साँठ-गाँठ अब
खुलेआम हो रही किरन की
ऐसे में फिर इंक़लाब के
गाने होंगे नए तराने।।
(२)
देश प्रगति की सीढ़ी ऊपर
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ठंडक से बचने को उसने
ओढ़ी सर्द हवाएँ।
देश प्रगति की सीढ़ी ऊपर
ताली ख़ूब बजाएँ।
एक ओर है घी का दीपक
एक ओर है ढिबरी
इसका मतलब राजा चौपट
और अंधेरी नगरी
मलमल तक पैबंदों की कब
पहुँचीं यहाँ सदाएँ।
सूरजमनिया सुबक रही है
कहकर बात भुवन से
और नहीं अब बन पाएगी
मेरी यहाँ चुभन से
अस्पताल से दोनों गायब
डॉक्टर और दवाएँ।
सुख के आँगन में फिर ब्याही
दुख की राजदुलारी
नागफनी से रोंप दी गईं
सारी ही फुलवारी
माली भी चुप है सब सुनकर
अपनी यहाँ व्यथाएँ।।
(३)
बन्नो इतनी अच्छी आई
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जगमतिया सोची,मुरझाई।
बेटे की जब चिट्ठी आई।।
पेट काटकर अपना जिसको
भेजा बड़के शहर पढ़ाने,
दो बेटी की शादी वाला
ज़मींदार का कर्ज़ चुकाने,
आशा थी मीठी खुशियों की
पर दस्तक ही खट्टी आई।
छप्पर घर का चूता है,रे!
पक्का घर को बनवाना है।
बाहर चाहरदीवारी कर,
बाबू लिखकर टँगवाना है।
भेजी थी जो गाँठ बाँधकर
रस्म लौटकर कच्ची आई।
बापू की भी देख दवा अब
धीरे-धीरे ख़त्म हो रही।
लग जाए बस जल्द नौकरी
रोज शगुन के बीज बो रही।
हर राखी अरमान ले यही
देख मायके बिट्टी आई।
पढ़कर चिट्ठी छोटी बोली
माँ भैया ने ब्याह रचाया।
पैसे की थोड़ी तंगी है,
मनीआडर तुरन्त मँगाया ।
कहते हैं वह शहर रहेगी
बन्नो इतनी अच्छी आई।।
(४)
आग पहले से लगी है
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आग पहले से लगी है
अब हवा भी चल रही है
देख बस्ती जल रही है।
आग किसने है लगाई
बात पूछेंगे कभी ये
पर अभी जो जल न लाएँ
लोग दोषी हैं सभी वे
रातरानी के बगल में
बेल विष की फल रही है।
देख बस्ती जल रही है।
चाँद की यह चाँदनी अब
तन जलाती जा रही है
राग की यह रागिनी अब
कान साबुत खा रही है
फूल छूने को बढ़े तो
फाँस तन में खल रही है।
देख बस्ती जल रही है।
कोयलों के मंच पर अब
हो रहे कौए पुरस्कृत
और अपने ही किनारे
हो रही नावें तिरस्कृत
एक ढिबरी देख कब से
बुझ रही है,बल रही है।
देख बस्ती जल रही है।।
(५)
कली -कली मुरझाई
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उमर बढ़े ज्यों ज्यों बेटी की
बोझ बढ़े है सर का!
दिन पर दिन बढ़ती जाती है
पैरों फटी बिवाई
उम्मीदों की बगिया की है
कली-कली मुरझाई
सपने अपने गरम हुए ,पर
ठंडा चूल्हा घर का !
लालच के दलदल से बचकर
चलना बिल्कुल मुश्किल
मनचाहे 'वर' को भी अब तो
'वरना' बिल्कुल मुश्किल
आसमान में जोड़े बनते
बड़ा झूठ यह नर का !
समझौतों का ताना बाना
है बुनता आया जीवन
एक उसी के दुःख में रोया
हँसा था जिस संग आँगन
कैसा उसका 'भाग' रहेगा
कारण ये है डर का !
(६)
सूरज के गोरखधंधे
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बहरों के दरवाज़ों पर
चीखों की है फ़ौज खड़ी।
गूँगों की बातें सुनने
जुटी हुई है भीड़ बड़ी ।
जलता है जो जलने दो
हम तो आँखों के अंधे
अँधियारों के साथ हुए
सूरज के गोरखधंधे
पुण्यों के दरबारों में
पापों की धमा-चौकड़ी।
कलियों के मुरझाने पर
बगिया में सन्नाटा जो
विश्वासों के गालों पर
है घातों का चाँटा वो
हुआ शर्म का कद छोटा
बेशर्मी है बहुत बड़ी ।
बाहों का बल हो जब भी
चरणों के आगे याचक
लगे शौर्य पर यहाँ सदा
चिन्ह बहुत प्रश्नवाचक
जीवन के पुजारियों ने
आरतियाँ मौत की पढ़ी।
(७)
मजबूरी अभिनय करती है
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पीड़ा पर मुस्कानें धरकर
मजबूरी अभिनय करती है।
प्यास बावरी होकर देखो
सूखे पनघट जल भरती है।
झोपड़ियों में अंधियारा कर
महलों में चंदा उतरा है।
दुखियों की नगरी के बाहर
सुख की ख़बरों पर पहरा है।
निर्बल हुए जीव के ऊपर
चीलें कड़ी नज़र रखती है।
जगमतिया के घर का पैसा
खा गई शम्भू की परधानी
हरकू का जीना भारी है,
काहे बिटिया हुई सयानी
सदैव घड़ियालों के जग मे
मीन निवाला ही बनती है।
सर बदलें हैं राजनीति में
ऊपर एक वही टोपी है।
दूध की रक्षा हमने फिर फिर
बिल्ली के जिम्मे सौंपी है।
खुद खाती जहँ बाड़ खेत को
भूख वहाँ भूखों मरती है।
(८)
गीला हुआ आँख का काजल
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इक तो जीवन पर संकट है
उस पर देख पेट भी खाली
फुलवा लौट रही है वापिस
किस्मत को देकर फिर गाली
शहर गई थी ज़िद करके,वह
जीवन को भरपूर जिएगी
अंग्रेज़ी बोलेंगे बच्चे,
मम्मी सुनकर झूम उठेगी
डरकर गाँव मजबूरी में
दौड़ पड़ी वह भोली-भाली
छाती से चिपका जो राजू
कब तक आख़िर भूख पिएगा?
माँ के पेट निवाला जाए,
तब छाती से दूध बहेगा
गीला हुआ आँख का काजल
पर होंठों की सूखी लाली
पहले खाना ढूँढे या फिर
'सेनिटाइजर' हाथों ख़ातिर
महामारी से पहले ही हम
मर जाएँगे भूखो आख़िर
पेट बज रहा लगातार जब
और बजाएँ क्या हम थाली ?
-मोहित लाम्बा
-मोहित लाम्बा
सारगर्भित
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर नवगीत । बधाई । वागर्थ की नई नई खोजों के लिए संपादक जी को धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंप्रिय मोहित जी. बहुत बढ़िया गीत हैं आपके। हार्दिक बधाई। आपकी काव्य-यात्रा निरंतर गतिशील हो इसके लिए शुभ कामनाएं।
जवाब देंहटाएंप्रिय भाई मोहित जी आपके गीतों ने मन मोह लिया। आपके गीतों का कथ्य वास्तव और संवेदना से भरा हुआ है। आपके गीतों की संवेदना बनावटी नहीं लगती। शिल्प में लय और प्रवाह इतना सहज है कि बस! क्या कहने। बहुत - बहुत बधाई ।
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