।।सन्दर्भ नवगीत : छन्द, शब्दावली, प्रतीक और बिंब।।
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लोगों की प्रायः जिज्ञासा होती है कि नवगीत और गीत में मूलभूत अंतर क्या है। मैं विभिन्न अवसरों पर इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश करता हूँ। पहली बात, इनमें केवल प्रकृतिगत अंतर होता है, रचावगत नहीं। रचने के लिए तो हमें वे ही उपादान और मूलभूत वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जिनकी एक पारम्परिक गीत को होती है। इसमें सबसे पहले छन्द का स्थान है। छन्द के बिना गीत नहीं होता।नवगीतकार को उसी छन्द का चयन करना चाहिए जिसमें उसकी अभिव्यक्ति छन्द के आयास से न बाधित हो। अर्थात उसका समग्र ध्यान अपनी रचना की अंतर्वस्तु पर ही रहे। तुकांत या समान्त ऐसे हों जिन्हें ढूँढने में किसी तुकांत कोष की आवश्यकता न पड़े और कवि के स्मृति कोष से निकलकर वे ज़रूरत से पहले ही सामने आते जाएँ। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझे नवगीत के लिए चौपाई, हरिगीतिका, विधाता, विष्णुपद जैसे कुछ छन्द अति प्रिय और सरल लगे हैं। उसका कारण है कि ये हमारी साहित्य-काव्य परंपराओं के माध्यम से हमारी स्मृति और आत्मा में रचे-बसे छन्द हैं। इनमें मापनीयुक्त मात्रिक से ज़्यादा मापनीमुक्त मात्रिक छंदों का स्थान है। चौपाई, हरिगीतिका, भुजंगप्रयात, दोहा आदि तो रामचरितमानस के पारायण से स्मृति-गर्भित छन्द हैं। दोहा चेतना में व्याप्त होने के बावजूद मुझे गीत या नवगीत की सर्जना के लिए कभी उपयुक्त नहीं लगा। चाहें तो इसे आप मेरा पूर्वाग्रह मान सकते हैं। और भी जिन मित्रों ने दोहा को आधार बनाकर गीत लिखे हैं, वे भी मुझे कभी प्रिय नहीं लगे।
छन्द को नवगीत के लिए आवश्यक मानते हुए पुनः कहूँगा कि अंततः, अंतर्वस्तु ही मुख्य है और छन्द गौण। मैं इस लांछन को स्वीकार करता हूँ कि मेरे तुकांत या समान्त कई अवसरों पर दोषपूर्ण होते हैं। सम्यक् हों तो बहुत अच्छी बात, इसका कोई विरोध नहीं। शुद्धता हमेशा अच्छी लगती है और स्पृहणीय भी है, पर मैंने अपना ध्यान हमेशा नवगीत की अंतर्वस्तु पर ही केंद्रित रखा।यद्यपि, कोशिश मैं भी करता हूँ कि मेरे समान्त शुद्ध हों।
अब बात नवगीत में प्रतीक और बिम्ब के विधान की। ये वे तत्त्व हैं जिनमें नवगीत की आत्मा बसती है। यही पारम्परिक गीत से नवगीत को अलगाने में सहायक तत्त्व हैं। बिंब और प्रतीक दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं, एक नहीं। बिंब प्रायः इन्द्रियसापेक्ष होते हैं। जैसे,चाक्षुष बिम्ब, घ्राण बिम्ब आदि। ये दृश्य का वर्णन करने वाले और प्रायः अभिधेयात्मक होते हैं। जैसा दिखा, वैसा अंकित कर दिया। रचना या कविता के सिक्के का यह एक पहलू है। दूसरे पहलू में प्रतीक उपस्थित हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। कभी-कभी प्रतीक की रचना में उपस्थिति का तरीका दूसरा होता है। उस पर चर्चा बाद में। पहले प्रस्तुत नवगीत की बात करूँगा।
छन्द की दृष्टि से यह आल्हा छन्द है, 16, 15 के मात्राविधान के साथ। प्रयोग में बहुत सहज है और प्रवाहपूर्ण तो है ही। शेष जानकारी छन्द के विषय में देना यहाँ अभीष्ट नहीं है। यह भी एक तरह से हमारी स्मृति और आत्मा में रचा-बसा छन्द है। इसके निर्वाह में पहले तो त्रुटि होने की संभावना नहीं है, अगर है भी तो बहुत कम। कविता के नए अभ्यासकर्ताओं को ऐसे छंदों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
गीत की टेक की या ध्रुवपंक्ति की आरंभिक पंक्ति देखें--
'अवधपुरी में डंका बाजा, नगरी टीके को तैयार'
यह सीधे-सीधे एक अभिधेयात्मक और चाक्षुष बिंब है, जिसे पकड़ने में पाठक, श्रोता या भावक को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। स्वतः समझ में आता है। पहला अंतरा या बन्द भी कमोबेश ऐसा ही है। पहले बन्द के बाद की ध्रुवपंक्ति से रचना में प्रतीकात्मकता का प्रवेश होने लगता है धीरे-धीरे।
संविधान की पोथी में से, निकला एक कूट उपचार
यहाँ संविधान शब्द नितांत आधुनिक युग का शब्द है और रचना में अपने प्रवेश से प्रतीक-विधान का सूत्रपात करता है। इस समय के राजनीतिक घटनाक्रमों में आगे के उल्लेख प्रासंगिक हैं। कवि की आत्मा प्रतीकों के पैनेपन को लेकर अभी अतृप्त और असंतुष्ट है, और इसी कारण, यह नवगीत बंदों की संख्या में काफी आगे निकल गया है, नकि समान्तों के अधिकाधिक दोहन की इच्छा से। यहाँ बताता चलूँ कि कुछ समान्त बहुत उर्वर होते हैं, जैसे --'आर'।
गीत के आगे के बंदों में ये प्रतीक अधिकाधिक स्पष्ट होते चले हैं और कवि को अर्थापन में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। फिर भी यदि भावक राम के अभिषेक की अयोध्याकाण्डीय तैयारी से बाहर नहीं निकल पाता और अपने समय को नहीं देख पाता तो यह उसका नितांत व्यक्तिगत दोष है, कवि का सर्जना-दोष नहीं। पर, स्पष्टता को लेकर कवि अभी भी संतुष्ट नहीं है, इसलिए वह आधुनिक युग के व्यंजक शब्दों का खुलकर प्रयोग करना ज़रूरी मान लेता है। अब पंक्तियाँ देखिए--
कहें मीडिया से अब रघुबर
दिया पिता ने वन का राज
सेवा कर वन के लोगों की
शुद्ध करेंगे अपने काज
भीतर के पृष्ठों पर जाने
क्या क्या छाप रहे अख़बार
यहाँ, मीडिया और अखबार के आ जाने से चीज़ें और ज़्यादा साफ होने लगती है। यहाँ, यह भी उल्लेख करना ज़रूरी है कि मीडिया और अखबार के स्थानापन्न हिंदी शब्दों की अर्थव्याप्ति दुर्बल होगी, इसलिए, भाषा को हिंदी रखते हुए, मैं जीवन में रच-बस चुके विदेशी भाषा के शब्दों के स्थानापन्न हिंदी शब्दों के प्रयोग के पक्ष में नहीं हूँ।
।।नगरी टीके को तैयार।।
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अवधपुरी में डंका बाजा
नगरी टीके को तैयार
आयोजन से पहले कोई
घुस आया देखो बटमार
रात-रात भर चली मंत्रणा
माथा पकड़े हैं महराज
कूटनीति ने आज बिगाड़े
सकल मनोरथ वाले काज
संविधान की पोथी में से
निकला एक कूट उपचार
सभी सभासद गुपचुप-गुपचुप
करते नए-नए गठजोड़
सिखलाते है विशेषज्ञ सब
संवैधानिक नित नव तोड़
कई उदाहरणों से होता
सच्चा साबित मिथ्याचार
मँझली रानी सीख रही है
कुबड़ाओं से नूतन दाँव
छान उड़े जो उनके सिर से
अपने सिर पर आए छाँव
हुए राजगुरु बूढ़े अब तो
उनके मत की क्या दरकार
कहें मीडिया से अब रघुबर
दिया पिता ने वन का राज
सेवा कर वन के लोगों की
शुद्ध करेंगे अपने काज
भीतर के पृष्ठों पर जाने
क्या क्या छाप रहे अख़बार
राजसदन में अफरातफरी
क्या जाने कल क्या हो जाय
राजमुकुट सत्ता की हलचल
जाने किसके सर धर आय
राजभवन घुस चैनल वाले
लेते सबके साक्षात्कार
जनता का भी अभिमत पूछा
जनता सारी पर है स्तब्ध
किसके पुण्य फलेंगे, किसके
आड़े आएगा प्रारब्ध
जयजयकार मचेगी किसकी
किसके घर अब हाहाकार
भर पाए हम दोनों से ही
नृप चाहे कोई हो जाय
हर सूरत में अपना घाटा
ये ही है नैसर्गिक न्याय
और कमर टूटेगी अपनी
और बढ़ेगी कर की मार
गद्दी पर हो चाहे कोई
उसको देंगे मंत्र सुमंत्र
है बराबरी के अंतर पर
सचिवों का भी अपना तंत्र
भाँज रहे हैं सारे क्षत्रप
नित अपनी-अपनी तलवार
रानीजी तो होंय रिटायर
राजाजी जाएँ सुरलोक
वैभव भोगेंगीं रानीजी
जनता सब भोगेगी शोक
वल्कल चीर धारना उनका
ठग जाता है फिर इक बार
खोटे सिक्के, खरी अशरफी
हम सबको इसका क्या ज्ञान
राजदण्ड है जिनके हाथों
उनका ही करना सम्मान
कब प्रतिपक्ष पक्ष बन जाए
निष्ठा बदलें बारंबार