दो गीत
समूह वागर्थ प्रस्तुत करता है मस्ताने फागुन के दो अलग-अलग रंग जहाँ एक गीत में, प्रेम के छिटक रंग हैं तो दूसरे गीत में व्यंग्य के छींटे! दोनों ही गीत अपनी उम्र में नवेले हैं। आशा है आपको यह दो नवगीतों की सँयुक्त प्रस्तुति पसन्द आएगी।
सादर
प्रस्तुति वागर्थ
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एक
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टका सेर में भाजी
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समिधा डाल
हवन में प्यारे
तल में उतर मनोज।
अंतर्मन में
भाव दशा की
सुधबुध लेना रोज।
धमकाती
सरकार दिखाकर
अपना खूनी पंजा।
धन वाले का
धन क्यों बढ़ता
निर्धन होता गंजा।
सदियों से
यह विषय शोध का
करना,इसकी खोज।
सत्ताधीश
दलित के सँग में
खाता दिखता रोटी।
इसी जीव के
चमचे चूसें
जमकर इसकी बोटी।
हँस कर कुटिल
खिंचा लेता है
छपवा देता पोज।
नट-नागर
छलने में माहिर
अपना छलिया राजा।
टका सेर में
भाजी देगा
टका सेर में खाजा।
लेकर वोट
दिया करता है
महँगाई का डोज।
समिधा डाल
हवन में प्यारे
तल में उतर मनोज।
मनोज जैन
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दो
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रंग वफा का
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फागुन का गुन
सिर चढ़ बोले
रिलमिल रंग चढ़ा।
ऐसे रंग में रँगना जोगी
कभी नहीं छूटे ।
नेहिल थाप न टूटे,बेशक
जीवन लय टूटे ।
मन का प्रेम
बरोठा हो बस
तेरे रंग मढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।
इस फागुन से उस फागुन तक
हों छापे गहरे ।
रंग चढ़ाना ऐसा जोगी
जनम-जनम ठहरे ।
शोख रंग में रंग वफा का
थोड़ा और बढ़ा ।
रिलमिल रंग चढ़ा ।
किस्सागो लें नाम हमारा
रँगरेजा सुन ले ।
मीत-जुलाहे एक चदरिया
झीनी-सी बुन ले ।
हो छोरों पर
जिसके,तेरा-मेरा
नाम कढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।
अनामिका सिंह
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