सरल रेखीय गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी की गीतात्मक यात्रा का वृत्तान्त
मनोज जैन
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पुरानी डायरी के एक पेज पर क़रीने से सजी अख़बार की कतरन पर जब-जब मेरी नज़र पड़ती डायरी के इस पन्ने को उलटकर जरूर पढ़ता। इस तरह डायरी के इस पन्ने से अनायास मेरा प्रगाढ़ सम्बन्ध जुड़ता चला गया। मेरे लिए यह कागज़ महज कतरन भर नहीं था अपितु एक जरूरी दस्तावेज था जिसे मैंने कभी किसी, पत्र के रविवारीय के अंश से निकाल कर अपनी डायरी में चस्पा कर लिया था। कतरन में तीन अंतरे का एक बहुत प्यारा गीत छपा था जो मुझे आज भी कंठस्थ है।
यह गीत किसी और का नहीं बल्कि देश के चर्चित गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी का है जो शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्ति के उपरांत मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में रहकर अब भी साहित्य की साधना में निमग्न हैं। मयंक श्रीवास्तव जी के गीतकार मन से मेरे परिचय का आरम्भ यहीं से होता है। यह परिचय उनसे भेंट के लगभग 10 वर्ष पहले का रहा होगा।
छन्द को समर्पित राजधानी की छंदधर्मी संस्था "अंतरा" की गोष्ठी,जो कीर्ति शेष दिवाकर वर्मा जी के आवास पर आयोजित थी, जिसमें मुझे पहली बार युवा रचनाकार के नाते आमन्त्रित किया गया था। उस गोष्ठी में ऊँची पूरी कदकाठी के एक पुरुष जिन्हें मैनें पहली बार नीले आसमानी रंग के सफारी सूट पहनें गम्भीर मुखाकृति में देखा और कड़क रौवदार आवाज में गीत प्रस्तुत करते सुना था। यह दस्तावेजी कतरन जो मेरे पास अब भी संरक्षित है, के भौतिक गीतकार मयंक जी से मेरे पहले परिचय की दूसरी कड़ी थी। तदुपरांत उनसे मुलाकातों का सिलसिला इसलिए भी जारी रहा क्योंकि उनके व्यवहार में वरिष्ठता या कनिष्ठता जैसा कोई भेद-भाव नहीं रहता वह अपने मित्रों से पूरी अनौपचारिक आत्मीयता के साथ प्रस्तुत होते हैं।
कारणों की पड़ताल में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि मयंक जी की संवेदनशीलता ने कभी भी अन्दर के अफ़सर एस• सी• वर्मा को सार्वजनिक जीवन में हावी नहीं होने दिया 40 वर्षीय कार्यालयीन कार्यकाल में मयंक जी की मिसाल ईमानदार अफसर के रूप में भी दी जाती रही है।
मयंक जी ने अपनी आधा दर्जन कृतियों के सृजन के साथ-साथ गीत विधा के लिए प्रेसमेन के साहित्य संपादक के रूप में थोड़े से समय में ही अविस्मरणीय प्रयास किए उन्हीं के प्रयासों का सुफल है कि देश भर में गीत की नई पौध लहलहाती दिखाई देने लगी। एक समय वह भी रहा है जब प्रेसमेन के युवा विशेषांक के लिए उन्हें ढूँढें से भी रचनाकार नहीं मिलते थे।
रामावतार त्यागी की परम्परा को आगे बढ़ाते-बढ़ाते मयंक जी अपने समय सापेक्ष सृजन के चलते जल्द ही नवगीतकार के रूप में याद किये जाने लगे। यद्धपि उन्होंने स्वयं को कभी नवगीतकार नहीं कहा। आज भी वह गीतों में नवता की पैरवी करते हैं और गीत को गीत ही रहने दो की धारणा के प्रबल पक्षधर हैं।
पूरे गीत परिदृश्य इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर खासी नज़र रखने और सन्दर्भ ग्रंथों को सिरे से पढ़ने वाले मयंक जी के मन में आज भी यह कसक है कि नई पीढ़ी में गीत धर्मिता को लेकर जो जोश होना चाहिए वह न के बराबर है बकौल मयंक श्रीवास्तव "समकालीनता के चलते गीत की शाश्वतता को बड़ा नुकसान पहुँचा है। उनका मानना है की गीत सार्वभौमिक और सर्वकालिक होनें चाहिए।"
मयंक जी ने न केवल गीत को लिखा है बल्कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से गीत को जिया भी है।उन्होंने जितना लिखा वह पूरे का पूरा गीत-नवगीत के युगीन दस्तावेजों में दर्ज है।
ऐसा नहीं कि उन्हें किसी बड़े सम्मान की चाह न हो, लेकिन आज के युग में जिन तरीकों और पैंतरों को अपनाकर सम्मान हासिल किए जाते हैं उनसे उनका गीतकार कभी भी समझौता नहीं करना चाहता।
मयंक जी के पास पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक शेष और कीर्तिशेष मित्रों की एक लंबी फ़ेहरिश्त है। उनका आधा समय आज भी मित्रों से गपियाने में व्यतीत होता है। कीर्तिशेष में वह राम अधीर, दिवाकर वर्मा, कुँवर किशोर टण्डन, विनोद तिवारी, हुकुम पाल सिंह "विकल" राजेन्द्र सोनी, महेन्द्र गगन के अलावा उन सभी मित्रों के साथ बिताए पलों को याद करते हैं जिनका उनसे मन मिला रहा।
देवेन्द्र शर्मा "इंद्र" जी ,विद्या नंदन राजीव जी, महेश अनघ जी को आदरेय भाव देनें में सदैव उदारता दिखाने वाले मयंक जी की निजी लायब्रेरी में मित्रों के पत्र सँग्रह और संकलन सब कुछ व्यवस्थित मिलेंगे उन नामों का जिक्र भी जिन्होंने पढ़ने या शोध के नाम पुस्तकें लेकर उड़ा दीं पर शिकायत किसी से नहीं मयंक जी का का यह वीतराग भाव हमें बड़ी प्रेरणा देता है।
उनका मानना है कि हमें सम्बन्धों की एक खिड़की सदैव खोलकर रखनी चाहिए और वह सम्बन्धों की उस खिड़की को उन दोस्तों के लिए खोल कर रखते भी हैं जिहोंने समय-समय पर कोमल मन के इस गीतकार को घातों की सौगातें भेंट की परन्तु मयंक जी के निर्लिप्त और निर्विकार मन ने शिकायतों को आज तक नहीं छुआ हाँ ! याद करते समय एक जोरदार ठहाका भर लगते हैं।
निजी स्तर पर मयंक श्रीवास्तव जी मेरे सदैव सहयोगी और मार्गदर्शक रहे हैं। उनके आशीर्वाद से ही मेरा पहला नवगीत संकलन "एक बूँद हम" 2011 में आ सका यही नहीं संग्रह का नामकरण संस्कार भी उन्हीं का किया हुआ है। चर्चित संकलन "सप्तराग" में उनके साथ शामिल होनें का सौभाग्य मिला है।
मयंक जी का पाँच दशकों का सृजन अनेक युगीन चर्चित पत्र पत्रिकाओं, शोध सन्दर्भ ग्रन्थों, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के महत्वपूर्ण दस्तावेजों में दर्ज है। वर्तमान में जो दो एक पत्रिकाएँ चर्चा में हैं वह मयंक जी के प्रेस मेन के अपडेट वर्जन भर हैं।
उनके प्रेसमेन के अवदान की तुलना धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे चर्चित पत्रों से अकारण नहीं की जाती। मयंक जी का काम बोलता है आज भी यदि कोई शोधार्थी गीत नवगीत पर शोध करना चाहे तो उसे उसके हिस्से का महत्वपूर्ण मटेरियल प्रेसमेन के पुराने अंको की पूरी फाइल से आसानी से मिल सकता है।
गीतकार की रचनाधर्मिता को किसी एक छोटे से आलेख में नहीं समेटा जा सकता लेकिन उनकी रचना धर्मिता पर उनके मित्र प्रेमशंकर शुक्ल जी की अकाट्य टीप को समसामयिक सन्दर्भ में प्रस्तुत अवश्य किया जा सकता है।
" ठहरा हुआ समय " के फ्लैप मैटर में वह लिखते हैं कि "मयंक श्रीवास्तव का गीतकार स्वाभाविक लयों से अपने गीतों का अनुभूति के स्तर पर रचाव करता है। इसके लिए वह प्राचीन छंदों के रचना विधान के निकट जाने की बजाय अपनी स्वतंत्र छन्द रचना का विकास करता है। इस विकास प्रक्रिया में मयंक लोक की आर्षय शक्ति को अपनी गीत रचना में एक ऊर्जा केन्द्र की तरह अपनाता हुआ अपनी विषयगत कल्पना,भावना,आत्मानुभूति और रागात्मकता को कलात्मक अभिव्यक्ति की सार्थकता प्रदान करता है।"
अपने साथ ही चलते चलते पाठकों को उस कतरन के गीत से भी जोड़ना चाहूँगा जो पूरे लेख और मेरे मन के केन्द्र में आज भी है।
तुम रुपहले चित्र की
झाँकी न दिखलाओ मुझे
मैं सुलगते स्वप्न की
चिनगारियाँ तो देख लूँ।
स्वर अभी अनुभूतियों का
बंद हो पाया नहीं
गीत मैने वेदना का
बेवजह गाया नहीं
मैं खुला आकाश
देखूँगा मगर पहले मुझे
घेरकर बैठी हुईं
बरबादियाँ तो देख लूँ।
कुछ अभागे पल
बचाकरके रखे हैं पास में
लिख सके शायद कथानक
ये कभी इतिहास में
अब तलक करता रहा
उपयोग मैं दिल खोलकर
हैं अभी कितनी मुखर
अभिव्यक्तियाँ तो देख लूँ।
हो सकेगा क्या पता
कोई हमारा प्रश्न हल
उड़ रही विश्वास की
रंगत हवा में आजकल
हाकिमों,भूमाफियाओं
की निगाहों से बचीं
साँस अंतिम से रहीं
हरियालियाँ तो देख लूँ।
गीत के तीसरे अन्तरे में गीतकार ने अपने सजग सामाजिक दायित्वबोध के चलते आम आदमी की तरफ से ऐसे प्रश्नों को उठाया था जिनका उत्तर गीतकार को तब से लेकर आज तक नहीं मिला अमूमन सरकार तक आम आदमी की आवाज़ पहुँचती ही नहीं यदि पहुँच भी जाय तो प्रतियुत्तर के मामले में सरकार का रुख किसी गूँगे बहरे की तरह रहता हैं।
आशा है मयंक जी ने गीत में जो प्रश्न उठाये हैं उनका उत्तर उन्हें आज नहीं तो आने वाले कल के अगले प्रहर में जरूर मिलेगा!
आज मेरे प्रिय गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी अपने जीवन के अस्सी बसंत पूरे कर रहे हैं।वह शतायु हों ! और वह निरन्तर सृजन रत रहें।
मनोज जैन
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