गीत
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तप्त पलों में
मन शेफाली-सा सुन्दर है,
इसके फूल न गिन पाओगे।
हमें उछाल रही हैं सड़कें,
हो यह जिस्म खिलौना जैसे।
मगर पास हैं सपने जब तक,
मानें ख़ुद को बौना कैसे?
होना मत हैरान, सेज पर
अक्सर कोई पिन पाओगे।
जीवन के इन तप्त पलों में
मुश्किल है अशरीरी होना,
रूमालों पर फूल काढ़ना,
किसी झील में पाँव डुबोना।
ठहरे तुम मासूम, जहाँ को
पर हर वक़्त कठिन पाओगे।
ख़ुशियाँ हैं गिरते पत्तों-सी,
उनका ढेर लगाना छोड़ो।
सुनो ओस वाली पंखुडियो!
तुम ख़ुद को ढरकाना छोड़ो।
होगे तुम कमज़ोर जिस घड़ी,
यह दुनिया बैरिन पाओगे।
जूते में आये कंकड़-सा
कभी-कभार समय गड़ता है,
पर यह जो है आस, जन्मदिन
इसका रोज़-रोज़ पड़ता है।
तुम न ख़ुशी की खोयी गेंदें
दोस्त! उजाले बिन पाओगे।
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी