शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

सिंदूर जी का एक गीत


अनिल सिंदूर जी की वॉल से साभार
आज लगभग 40 वर्षों पूर्व एक स्टूडियो में ली गई तस्वीर श्री वीरेन्द्र आस्तिक जी के संग्रहालय से प्राप्त हुई जिसको बाबू जी के गीत के साथ पोस्ट करने का सम्मोहन मैं नहीं त्याग पाया। तस्वीर में बाबू जी तथा उनके अभिन्न सहयोगी रहे श्री वीरेन्द्र आस्तिक जी।
सादर धन्यवाद आदरणीय आस्तिक जी।

रात बीत जाये सपनों में 
दिन काटे न कटे ।
सब कुछ घट जाता है 
लेकिन जो चाहूँ न घटे ।

देहरी मुझको, मैं देहरी को
जैसे भूल गया हूँ ,
आस पास के लिए अजाना
मैं हो गया नया हूँ,
दूरी की खाई गहरी है
कोशिश से न पटे ।

अब भविष्यफल देखूँ-पूंछू 
यह उत्साह नहीं है,
छलनी-छलनी वसन किसी की
कुछ परवाह नहीं है,
आँधी चली, चीथड़ो-जैसे
कपड़े और फटे ।

मन की दशा कि जैसे पल-पल
अतल-वितल होती है,
श्वास-श्वास बरसात सावनी से
आँखें धोती हैं,
बौराये आमों के नीचे
बिसरे गीत रटे ।

मुझ पर गाली याकि दुआ का
असर नहीं होता है,
अंध गुफा में बैठ कौन है
जो कि नहीं रोता है,
मेरे प्राणों में क्या जाने
कितने गीत अटे ।

सहज भाव से अब मैं कुछ भी
सहने का आदी हूँ,
कोई मुझको कह देता है
पागल-उन्मादी हूँ,
जीवन के पट खुले, मृत्यु का
बोझिल भार हटे ।

प्रो. रामस्वरूप 'सिन्दूर'