वागर्थ में आज
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गीत नवगीत पर एकाग्र समूह वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं कविवर प्रदीप दुबे जी के नवगीत
समूह वागर्थ के सन्दर्भ में यदि इसकी स्थापना की बात करें तो आज की तिथि में ऐसा कोई गीतकार या नवगीतकार नही है समूह वागर्थ से परिचित न हो और समूह वागर्थ में ना छपा हो. हमारे संस्थापक श्री मनोज जैन मधुर जी गीत नवगीत के पूरे दृश्य परिदृश्य पर पैनी नज़र रखते आए हैं।
यदि आपके गीतों में नवता है या वैचारिकी है तो वह आपके गीतों को ढूँढकर समूह में चर्चार्थ प्रस्तुत कर देंगे।
इन बातों को मैंने पिछले चार पाँच वर्षों में इसी समूह में रहकर देखा है। यह मेरा सौभाग्य है मनोज जैन 'मधुर' जी ने मुझे इतने चर्चित समूह में काम करने का अवसर दिया मैं उनका कृतज्ञ मन और भाव से आभार व्यक्त करता हूँ। इतना ही नहीं मनोज जी मुझे कदम कदम पर सम्हालते हैं अपने बहुमूल्य सुझाव देते हैं।
उनका कहना है कि किसी भी रचनाकार पर चर्चा करते समय हमें प्रस्तुत गीतों पर अपनी दमदार वैचारिकी जरूर लिखनी चाहिए।
उनके इस निर्देश को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत हैं कवि प्रदीप दुबे जी के कुछ अतीत जीवी कल्पना के नवगीत
प्रदीप जी के नवगीत शैल्पिक स्तर पर बहुत कसे हुए हैं। कथ्य में बहुत कुछ कहने के लिए भले ही दुबे जी के पास नया ना होने के बाबजूद इनके गीतों में कहन का नायाब तरीका सम्मोहित करता है। मूलतः कवि को चाहिए कि वह अपने समय को तीसरी आँख से पकड़े और कथ्य को समकालीनता से भी जोड़े।
आइए कवि के प्रस्तुत गीतों पर चर्चा करें और अपनी बात एक शालीन टीप के माध्यम से समूह में कवि और पाठकों के अवलोकनार्थ जोड़ें।
आज के लिए इतना ही
प्रस्तुति
वागर्थ
समूह वागर्थ के लिए
सम्पादक
संजय सुजय बासल
बरेली मध्यप्रदेश से
पढ़ते हैं प्रदीप दुबे जी के नवगीत
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एक
लंदन की सिगरेट
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बेटा,जब दद्दू जीते थे
खाकर आधा पेट
तब भी राजाजी पीते थे
लंदन की सिगरेट
हमने खाए अमरीका के
रद्दी गेहूं, लाल
जैसे-तैसे कर जुट पाती
ढुल-ढुल पनिया दाल
राजाओं को खाते देखा
काजू भर-भर प्लेट
संभव है वे अपने कपड़े
पेरिस में धुलवाएं
हो सकता है बाल कटाने
सिंगापुर तक जाएं
बस्ती उनकी, जंगल उनके
कहीं करें आखेट
सुनी नहीं है तूने शायद
तुलसी की चौपाई
समरथ का कुछ दोष नहीं है
कह कर गए गुंसाई
रख ले आरोपों के धागे
अपने पास लपेट
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दो
भुआ नहीं आई
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अद्दू बता रहा था आसों
भुआ नहीं आई
छोड़ दिया बड़के बापू ने
अब घर आना जाना
बना लिया है काकाजी ने
अपना अलग ठिकाना
जिज्जो राखी पर आई थी
इक दिन रुक पाई
जबसे कटा नीम आँगन का
आती नहीं चिड़ैया
जहां सार थी,है शौचालय
रही न बछिया-गैया
दोनों के हिस्से की रोटी
कुतरू ने खाई
बचुआ तोड़ लिए इक निबुआ
गुस्सा गए पड़ोसी
झगड़ी खूब पड़ोसन भौजी
पानी पी-पी कोसी
डेढ़ साल का हुआ अबोला
ऐसी रिसियाई
घर का रस्ता भूल गए
बापू के मित्र पुराने
हालचाल तक नहीं पूछते
बात हुई क्या जाने
बड़का कहता "बदल गया जुग"
समझा कर भाई
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तीन
मैं न जा सकूँगा
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दे रहा आवाज मुझको-गाँव
मैं न जा सकूंगा
हो गए आदी, सड़क के-पाँव
मैं न जा सकूँगा
कुहकती अमराइयों में
वन बबूलों के उगे हैं
अब नदी मीठी कहां है
लोग रेती के सगे हैं
पार अब करती नहीं है-नाव
मैं न जा सकूँगा
दूर कब का हो चुका हूँ
धूलधर पगडंडियों से
हो गई पहचान गहरी
माल नामक मंडियों से
भा गई मन को दमकती-ठाँव
मैं न जा सकूँगा
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चार
बहुत दिनों से उसका कोई
पत्र नहीं आया
सब घर आए-पर
बचपन का मित्र नहीं आया
महिनों से बिरवा कनेर का
हँसता नहीं दिखा
मौन मोगरा छंद-गंध के
लिखता नहीं दिखा
बहुत दिनों से चिड़िया ने भी
गीत नहीं गाया
सब घर आए पर
बचपन का मित्र नहीं आया
ऊब रही है कबसे बैठक
गपशप नहीं हुई
सारी चीजें बैठ गई
कानों में ठूंस रुई
पीने को पी रोज चाय का
स्वाद नहीं भाया
सब घर आए पर
बचपन का मित्र नहीं आया
बहुत दिनों से छत पर उतरी
शाम नहीं महकी
न कुछ छलका न कुछ खनका
नहीं बात बहकी
दर्द नयन की डगर पार कर
ढुलक नहीं पाया
सब घर आए पर
बचपन का मित्र नहीं आया
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पाँच
सुख बस एक कटोरी
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दुख पूरे घर भर में छितरे
सुख बस एक कटोरी जिज्जो
जैसे हाल रहे सावन में
वैसे ही हैं होरी जिज्जो
कुछ पंछी निमिया पर बैठे
कुछ जामुन कुछ आम पर
लेकिन सबका ध्यान स्वयं के
काम नाम पर दाम पर
जो सबको जोड़े रखती थी
टूट गई वह डोरी जिज्जो
बड़े-बड़ों की पहुँच बड़ी है
छोटे हैं सरकार के
बचे हुए हैं जो बेचारे
वे समझो करतार के
स्वयं लिखें या फिर रहने दें
किस्मत अपनी कोरी जिज्जो
रकम महाजन के घर गिरवी
सपने बोए हार में
पूस माघ की ठंडी झेली
तीखा घाम कुंआर में
पर डाली पर जब फल आए
मौसम ने झकझोरी जिज्जो
आस अभी भी संजो रखी है
जायेंगे दिन त्रास के
अपनी बस्ती भी आयेंगे
दिन मधुरिम मधुमास के
इसी आस पर टूटी,बगरी
हिम्मत पुनः बटोरी जिज्जो
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छह
रोने हैं इस बात के
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क्या बतलाएं बालू भैया
रोने हैं इस बात के
न संपूरन बने शहर के
रहे न अब देहात के
बातचीत की अनघड़ शैली
आड़े आ ही जाती है
कभी-कभी तो अंगरेजी में
बुंदेली घुस जाती है
लगता है हम मनइ बन गए
एक अलग ही पांत के
जींस पहन कर घूमा करते
सेंत रखी पर धोती भी
चित्र विदेशी टांग रखे हैं
उकरी भीत जिरौती भी
पिज़्ज़ा-बर्गर भी खा लेते
खउआ रोटी-भात के
देखादेखी अंगरेजी में
नामपट्टिका लगा रखी
बालकनी में बड़े जतन से
नागफनी भी सजा रखी
पर भीतर से अब भी प्रेमी
जूही ,पारिजात के
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आदरणीय
प्रदीप दुबे "दीप" जी का जन्म 17फरवरी 1956को ग्राम सांगाखेड़ा कलां,तहसील
मखननगर (बाबई)जिला नर्मदापुरम(होशंगाबाद) मध्यप्रदेश में हुआ था।
आपने एम ए अर्थशास्त्र से की,
आपकी प्रकाशित पुस्तकें,
गीत संग्रह,,
फिर कुंडी खटकी है,
कुछ मत पूछो बंसी भैया,
दोहा संकलन,,,
आ जाया कर गांव
आपकी रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में और समवेत संकलनों में ,
संपर्क-2/73 रिवर व्यू रेसीडेंसी
मालाखेड़ी रोड,नर्मदापुरम
मध्यप्रदेश 461001
चलित वार्ता-9302786415
9826280437