मानवतावादी चिंतन की
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एकांगी
चिंतन है प्यारे!
यह तो कोई बात नही हैं।
जम्बुद्वीप के भरतखंड के
आर्य क्षेत्र में हम हों केवल,
हम ही हम हों।
खुशियाँ सारी रहें हमारी,
सदा दुलारी,
औरों के हिस्से में गम हों।
सच्चाई में
सपना बदलें
इतनी अभी बिसात नहीं है।
एक सोच जो सदियों से है,
कहती आई, सिर्फ हमारी, केशर क्यारी
सिर्फ हमारी।
सोच रहा है, रंग धरा का,
हो केसरिया, बस केसरिया
भगवाधारी।
मानवतावादी
चिंतन की
प्यारे कोई जात नहीं है।
उन्मादी कुत्सित चिंतन को,
जन-गण- मन में,
पलने मत दो, मत पलने दो।
बंधु छोड़ दो कठमुल्लापन,
नई पौध को,
जलने मत दो, मत जलने दो।
रोक सके आशा
का सूरज,
ऐसी कोई रात नहीं है।
मनोज जैन