रविवार, 18 जुलाई 2021

वागर्थ प्रस्तुत करता है मुकुट बिहारी सरोज जी के गीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

#हो_गया_है_हर_इकाई_का_विभाजन_राम_जाने_गिनतियाँ_कैसे_बढ़ेंगी

~।।वागर्थ ।। ~ 


              प्रस्तुत करता है मुकुट बिहारी सरोज जी के गीत 

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  मुकुट बिहारी सरोज जी का जन्म २६ जुलाई १९२६ को हुआ , सन् १९४७ के बाद ही उनका लेखन क्षेत्र में आना हुआ और जल्द ही वे जन -जन में लोकप्रिय हो गए , उनके प्रथम काव्य संग्रह के परिचय में उल्लिखित है कि इकत्तीस वर्षीय सरोज दस बारह वर्षों से लिख रहे हैं , और अपने विशेष धज के गीतों के साथ समकालीन गीतकारों की पंक्ति में उनका विशिष्ट स्थान है । 
    यह वह दौर था जब नई कविता की आमद हो चुकी थी तथैव गीत ही जनमानस की काव्य रुचि में प्रमुखता से रचा पचा था। उस समय फेसबुक , व्हाट्सएप , इंस्टा , ट्विटर आदि का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था , कवि सम्मेलन ही रचना के परीक्षण व व सार्थक होने के निर्णायक केन्द्र होते थे  यद्यपि इस कसौटी  में कुछ अंक मधुर गायन वाले अनुग्रह में ले जाते थे पर रचना को उसके भावों, विचारों, शब्दों और सम्प्रेषणीयता की कसौटी पर कसा जाकर ही किसी कवि को परखा जाता था ।
        सरोज जी के गीतों में अन्य श्रंगारिक कवियों के तरह नख-शिख वर्णन कभी नहीं रहा। उनके गीत सदैव ही जन सरोकार पर बोलते बतियाते  खनकदार रहे। सरोज जी अपनी कहन में, अन्दाज़ में, अपने समकालीनों से भिन्न रहे हैं इसलिए अलग से पहचाने भी गए ।
       अपने गीत-संग्रह की भूमिका में मुकुट बिहारी सरोज जी लिखते हैं- ' मेरे इस संग्रह की भाषा आपको अखरेगी या अजीब लगेगी या आपके मन में खुब जायेगी। इसे आप शायद भाषा वैचित्र्य की संज्ञा दें। बड़ी आसानी से इसे शैली की पृथकता भी माना जा सकता है। बोल-चाल में रात-दिन जो आपने कहा सुना है, उसी को जब आप पढ़ेंगे, तब मेरा विचार है कि आपको उसमें कुछ अपनेपन का अनुभव होना चाहिए ।'

    वागर्थ उनको स्मरण करते हुए उनके कुछ गीत आप सभी के समक्ष प्रेषित करता है ।

                                             प्रस्तुति 
                                       ~।। वागर्थ ।।~
                                       सम्पादक मण्डल
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(१)

प्रभुता के घर जन्मे
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इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं

प्रभुता के घर जन्मे समारोह ने पाले हैं
इनके ग्रह मुँह में चाँदी के चम्मच वाले हैं ।
उद्घाटन में दिन काटे, रातें अख़बारों में,
ये शुमार होकर ही मानेंगे अवतारों में

ये तो बड़ी कृपा है जो ये दिखते भर इन्सान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।

दंतकथाओं के उद्गम का पानी रखते हैं
यों पूँजीवादी तन में मन भूदानी रखते हैं
होगा एक तुम्हारा इनके लाख-लाख चेहरे
इनको क्या नामुमकिन है ये जादूगर ठहरे

इनके जितने भी मकान थे वे सब आज दुकान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।

ये जो कहें प्रमाण करें जो कुछ प्रतिमान बने
इनने जब जब चाहा तब-तब नए विधान बने
कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की
ये खुद जन्मपत्रियाँ लिखते हैं सरकारों की

तुम होगे सामान्य यहाँ तो पैदाइशी प्रधान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।

(२)

एक ओर पर्दों के नाटक
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एक ओर परदों के नाटक 
एक ओर नंगे
राम करे दर्शक दीर्घा तक 
आ न जाएँ दंगे

अव्वल मंच बनाया ऊँचा 
जनता नीची है
उस पर वर्ग -वर्ग में 
अंतर रेखा खींची है
समुचित नहीं प्रकाश व्यवस्था 
अजब अंधेरा है
उस पर सूत्रधार को खलनायक
 ने घेरा है

पात्रों की सज्जा क्या कहिए, 
जैसे भिखमँगे।
राम करे दर्शक दीर्घा तक 
आ न जाएँ दंगे।

नामकरण कुछ और खेल का 
खेल रहे दूजा
प्रतिभा करती गई दिखाई 
लक्ष्मी की पूजा
अकुशल असंबद्ध निर्देशन 
दृश्य सभी फीके
स्वयं कथानक कहता है 
अब क्या होगा जी के

संवादों के स्वर विकलांगी 
कामी बेढंगे।
राम करे दर्शक दीर्घा तक 
आ न जाएँ दंगे।

मध्यांतर पर मध्यांतर है 
कोई गीत नहीं
देश काल की सीमाओं को 
पाया जीत नहीं
रंगमंच के आदर्शों की 
यह कैसी दुविधा
उद्देश्यों के नाम न हो पाए 
कोई सुविधा

जन गण मन की जगह अंत में 
गाया हर गंगे।
राम करे दर्शक दीर्घा तक 
आ न जाएँ दंगे।

(३)

रात भर पानी बरसता 
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रात भर पानी बरसता और सारे दिन अंगारे,
अब तुम्हीं बोलो कि कोई ज़िंदगी कैसे गुज़ारे।

आदमी ऐसा नहीं है आज कोई,
साँस हो जिसने न पानी में भिगोई,
दर्द सबके पाँव में रहने लगा है,
ख़ास दुश्मन, गाँव में रहने लगा है,
द्वार से आँगन अलहदा हो रहे हैं,
चढ़ गया है दिन मगर सब सो रहे हैं,

अब तुम्हीं बोलो कि फिर आवाज़ पहली कौन मारे,
कौन इस वातावरण की बंद पलकों को उघारे।

बेवजह सब लोग भागे जा रहे हैं
देखने में खूब आगे जा रहे हैं,
किंतु मैले हैं सभी अंतःकरण से,
मूलतः बदले हुए हैं आचरण से,
रह गए हैं बात वाले लोग थोड़े
और अब तूफ़ान का मुँह कौन मोड़े,

नाव डाँवाडोल है ऐसी कि कोई क्या उबारे,
जब डुबाने पर तुले ही हो किनारे पर, किनारे।

है अनादर की अवस्था में पसीना,
इसलिए गढ़ता नहीं कोई नगीना,
जान तो है एक उस पर लाख ग़म है,
इसलिए किस्में बहुत हैं, नाम कम हैं,

एक उत्तर के लिए हल हो रहे हैं ढेर सारे,
और जिनके पास हल हैं, बंद हैं उनके किवारे ।

(४)

हो गया है हर इकाई का विभाजन
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हो गया है हर इकाई का विभाजन
राम जाने गिनतियाँ कैसे बढ़ेंगी ?

अंक अपने आप में पूरा नहीं है
इसलिए कैसे दहाई को पुकारे
मान, अवमूल्यित हुआ है सैकड़ों का
कौन इस गिरती व्यवस्था को सुधारे

जोड़-बाकी एक से दिखने लगते हैं
राम जाने पीढियां कैसे पढ़ेंगी ?

शेष जिसमें कुछ नहीं ऐसी इबारत
ग्रन्थ के आकार में आने लगी है
और मज़बूरी, बिना हासिल किए कुछ
साधनों का कीर्तन गाने लगी है

माँग का मुद्रण नहीं करती मशीनें
राम जाने क़ीमतें कितनीं चढेंगी ?

भूल बैठे हैं, गणित, व्यवहार का हम
और बिल्कुल भिन्न होते जा रहे हैं
मूलधन इतना गँवाया है कि ख़ुद से
ख़ुद-ब-ख़ुद ही खिन्न होते जा रहे हैं

भाग दें तो भी बड़ी मुश्किल रहेगी
राम जाने सर्जनाएँ क्या गढेंगी ?

(५)

मेरी कुछ आदत खराब है
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मेरी, कुछ आदत, खराब है

कोई दूरी, मुझसे नहीं सही जाती है,
मुँह देखे की मुझसे नहीं कही जाती है
मैं कैसे उनसे, प्रणाम के रिश्ते जोडूँ-
जिनकी नाव पराये घाट बही जाती है।

मैं तो खूब खुलासा रहने का आदी हूँ
उनकी बात अलग, जिनके मुँह पर नकाब है ।

है मुझको मालूम, हवाएँ ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवाएँ ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण, गलत होते जाते हैं-
शायद युग की नयी ऋचायें ठीक नहीं हैं ।

जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वह किताब भी क्या कोई अच्छी किताब है ।

वैसे, जो सबके उसूल, मेरे उसूल हैं
लेकिन ऐसे नहीं कि जो बिल्कुल फिजूल हैं
तय है ऐसी हालत में, कुछ घाटे होंगे-
लेकिन ऐसे सब घाटे मुझको कबूल हैं 

मैं ऐसे लोगों का साथ न दे पाऊँगा
जिनके खाते अलग, अलग जिनका हिसाब है ।

(६)

सचमुच बहुत देर तक सोए
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सचमुच बहुत देर तक सोए

इधर यहाँ से उधर वहाँ तक
धूप चढ़ गई कहाँ-कहाँ तक
लोगों ने सींची फुलवारी
तुमने अब तक बीज न बोए ।

सचमुच बहुत देर तक सोए

दुनिया जगा-जगा कर हारी,
ऐसी कैसी नींद तुम्हारी ?
लोगों की भर चुकी उड़ानें
तुमने सब संकल्प डुबोए ।

सचमुच बहुत देर तक सोए

जिन को कल की फ़िक्र नहीं है
उनका आगे ज़िक्र नहीं है,
लोगों के इतिहास बन गए
तुमने सब सम्बोधन खोए ।

सचमुच बहुत देर तक सोए ।

(७)

पंथ दौलत से न जीता जाएगा 
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पंथ, दौलत से न जीता जाएगा नादान !

स्वर्ण-कलशों में भरे मणियाँ
हज़ारों देवता भागे।
झुक गई, लेकिन,करोड़ों बार
दौलत, धूल के आगे।

धूल की, कैसे खरीदेगा अकिंचन आबरू
राख में लिपटे पड़े हैं सैकड़ों भगवान।

शीश वे, जिन पर कि
मलयानिल डुलाता था विजन।
पाँव वे, जिन पर कि नित
माथा झुकाता था गगन।

एक कण के राज्य की सीमा न पाए जीत
नत पड़े हैं, विश्वविजयी दम्भ के अरमान!

तू अभी, आरम्भ ही करने चला है
पुस्तिका का लेख।
इसलिए, उस हाथ फैलाए हुए
इन्सान को भी देख।

राह दोनों की बराबर है, बराबर चाह
हैं नहीं लेकिन बराबर, राह के सामान !

1 टिप्पणी:

  1. "मरहम से क्या होगा,ये फोड़ा नासूरी है। अब इसकी चीरफाड़ करना जरुरी है।" सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं के लिए "लिए लुकाठी हाथ" खड़े वर्तमान के "कबीर"आदरणीय मुकुट बिहारी सरोज जी हिंदी साहित्य के " मुकुट" हैं जो " सरोज" की तरह राजनैतिक, सामाजिक, वैयक्तिक संवेदनाओं से सराबोर रहकर भी निर्लिप्त भाव से अपने सृजन धर्म में लगे रहे। ग्वालियर की साहित्य परंपरा में अपनी पहचान बनाने वाले व्यंग्य गीतों के आधार स्तंभ सरोज जी से मेरा प्रथम परिचय कक्षा नौवीं में हिंदी के शिक्षक के रूप में हुआ था। अपने सृजन पथ पर चलते हुए अनेकों बार उनके साथ काव्य गोष्ठी एवं कविसम्मेलनों में सहभागिता करने का सौभाग्य मिला था। एक कार्यक्रम में मेरे गीत पाठ पर अचानक सिरपर जब वरद हस्त का अहसास हुआ तो पलटकर देखा कि दादा सरोज जी का आशीर्वाद मिला है। मैं अत्यंत सौभाग्य शाली हूं कि मुझे उनका सानिध्य मिला। उनके गीतों की यात्रा व्यष्टि से समिष्टि तक दिलों में जिंदा रहने वाली है। कथ्य चाहे राजनैतिक कुचक्रों को बेनकाब करने वाला हो या सामाजिक सरोकारों से अनुस्यूत दैनंदिन जीवन में आईं दुरूहता से उत्पन्न चिंता हो, उनकी कहन, अंदाजेबयां और मंचीय प्रस्तुति अद्भुत तथा संप्रेषणीय रही । उनका पूर्व उल्लिखित कथन अब चीरफाड़ करना जरूरी है, सरोज जी के लेखन का आत्म तत्व है, जिसके दर्शन उनके प्रत्येक गीत में होता है। वक्रोक्ति, व्यंजना से उनके गीत बेमिसाल होकर जनबोधी बन जाते हैं,जो सर्वग्राह्य और सर्वमान्य रहते हैं। नेताओं की कर्मकुंडली खंगालते प्रथम गीत ने धूम मचा दी थी। ,ये खुद जन्मपत्रियां लिखते हैं सरकारों की। कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की। दूसरा गीत सामाजिक ढांचे की परतें उधेड़ने में सफल रहा है -अव्वल मंच बनाया ऊंचा, जनता नीची है। उसपर वर्ग वर्ग में अंतर रेखा खींची है। पात्रों की सज्जा क्या कहिए जैसे भिखमंगे। इससे अनूठी उपमा शायद ही कोई हो सकती थी। आम आदमी की विवशता, प्रकृति की मार से आहत जीवन की दुरूहता के साथ मैले अंत:करण और आचरण हीनता का शिकार मानवता किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी होकर आहत है। तबही तो रचना कार कहता है - रह गए हैं बात वाले लोग थोड़े, और अब तूफ़ान का मुंह कौन मोड़े।
    गणितीय भाषा में जीवन जगत की अनुभूति को अभिव्यंजित करता गीत समसामयिक तो है ही साथ ही जीवन के उद्देश्य से भटकने की राम कथा भी सटीक रूप से कहता है-मान अवमूल्यित हुआ है सैकड़ों का, कौन इस गिरती व्यवस्था को सुधारे,भूल बैठे हैं गणित व्यवहार का हम,भाग दें तो भी बड़ी मुश्किल रहेगी,राम जाने सर्जनाएं क्या गढ़ेंगी।कहती पंक्तियां कवि की चिंता को स्पष्टत: ध्वनित कर देती हैं। मेरी कुछ आदत खराब है गीत आदरणीय सरोज जी के व्यक्तित्व, आचरण और व्यवहार का आईना है। इससे अच्छा उनका आंकलन और हों भी नहीं सकता। और फिर वो समाज को अपने गीतों के प्रदेय के रूप में देते हुए कहते हैं - पंथ दौलत से न जीता जायेगा नादान। उनके लिए धूल का मोल दौलत से कहीं ज्यादा है - झुक गई, लेकिन करोड़ों बार दौलत, धूल के आगे। क्योंकि जीवन का अंतिम सत्य है - राख में लिपटे पड़े हैं सैकड़ों भगवान। इसलिए उस हाथ फैलाए हुए इन्सान को भी देख। ये पंक्तियां सरोज जी के समता समानतावादी सोच का प्रतीक बनकर दलितों वंचितों की पक्षधरता का उद् घोष भी करतीं हैं। सार्थक चयन कर संपादक ने सरोज जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को ऊंचाई दी है, साधुवाद देता हूं। आज सामाजिक जीवन में ऐसे ही कबीर की जरूरत है जो हमको सचेत करते हुए दुखती रग पर हाथ रखने का साहस करे। भाई मनोज मधुर जी और अनामिका जी को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होंने ग्वालियर गीत ऋषि सरोज जी से पाठकों का परिचय कराया।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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