शनिवार, 24 जुलाई 2021

कवि लक्ष्मीनारायन पयोधि के समकालीन दोहे प्रस्तुति ब्लॉग : वागर्थ

समकालीन दोहा
         कवि :लक्ष्मीनारायण पयोधि
                                     प्रस्तुति
            ©वागर्थ संपादन मण्डल
                        ©ब्लॉग वागार्थ


                           दूसरे  पड़ाव  की अन्तिम कड़ी
कवि लक्ष्मीनारायण पयोधि जी के समकालीन दोहे
_______________________________________

           हमने समकालीन दोहे की इस यात्रा का आरम्भ कवि स्व.देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी पर पहला अंक केंद्रित कर उन्हीं की प्रेरणा और आशीर्वाद से की है ।
          आज हमें कविता (दोहा) के इस फॉर्मेट में,कथ्य का तीखापन और  दोहों के कलेवर में जो धार सर्वत्र दिखाई पड़ रही है, इस पूरे वातावरण निर्मिति में कहीं न किसी इन्द्र जी महती भूमिका है इस दिशा में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
                                         एक आलेख में, किसी विद्वान नें उन्हें दोहा के द्रोणाचार्य की संज्ञा दी थी, जो मुझे बड़ी अटपटी लगी , मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि मैं उस विद्वान से असहमत हूँ ,या उसे ऐसा नहीं करना चाहिए , पर यदि मुझे उन पर लिखने का अवसर मिलता तो मैं उन्हें 'नये दोहे का एकनिष्ट एकलव्य' कहना ज्यादा उचित समझता  
          क्योंकि  छली  द्रोणाचार्य  ने तो अपने ही शिष्य का अंगूठा माँग लिया था । इस दृष्टि से द्रोणाचार्य तो छल का प्रतीक हैं और समर्पित एकलव्य एक निष्ठ मौन साधना का समर्पण का प्रतीक है। अतः मेरी दृष्टि में आम आदमी का प्रतीक एकलव्य ज्यादा आदरणीय है। गुरुपूर्णिमा के अवसर पर मैं गरूदेव इन्द्र जी का पुण्य स्मरण करता हूँ। और यह अंक उन्हीं को समर्पित करता हूँ। 

                 दूसरे पड़ाव की अन्तिम कड़ी में प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहा के मौन साधक कवि लक्ष्मीनारायण पयोधि जी के दोहे।

दुखी बिजूका खेत में
_______________

पानी  पर  जितने  लिखे, थे  मैंने  अनुबंध।
अक्षर-अक्षर   वे  सभी, बने  अनुष्ठुप  छंद।

हैं  पूजा  के  थाल में, कुछ अक्षर सुर-ताल।
गीत  कंठ से फूटता, कुमकुम लगता भाल।

धूप  खिली  हँसते  सुमन,बिखरे रंग-पराग।
गूँज  रहा  है हर तरफ़,फिर निसर्ग का राग।

मेघ  पिता  का  प्यार  है, वर्षा माँ  का नेह।
बूँदें  झर-झर  झर  रहीं, और घुमड़ता मेह।

जीवन को पढ़-पढ़ गुना,और लिखा बेलाग।
गिनने  वाले  गिन  रहे,  कितने  गहरे  दाग़।

सब  दलाल  मुस्तैद  हैं, और कमीशनख़ोर।
सुविधाओं  की  होड़  में, आगे   चिन्दीचोर।

राजनीति  के मंच पर, भिन्न सभी किरदार।
कोई   शातिर   चोर    है,  कोई  चौकीदार।

बापू   तेरे    देश   में , सत्य   करें   वनवास।
चाटुकार  दरबार  के, बेहद  ख़ासमख़ास।

आँखों  में  जाले  पड़े,  और मोतियाबिन्द।
वह  शैतानी  शक्ल को,कहता है अरविन्द।

निष्ठा  रख   दरबार  में, कर   तू  कारोबार।
सिद्धांतों  को  ताक  पर, रखने  को तैयार।

फिर  बिल्ली  के भाग  से, छींका टूटा यार।
दरवाज़े  पर आ  खड़ी, पद लेकर सरकार।

जितना ऊँचा पद मिला,उतना विज्ञ-महान।
कुर्सी   छूटी  तो  हुए , विदा  ज्ञान-सम्मान।

आन गाँव के सिद्ध पर, किया अंधविश्वास।
बगुलों  के  षड़यंत्र से, बना गिद्ध का ग्रास।

आँखों  में  सपने  लिये, पंखों  में आकाश।
पंछी   मिलने  जा  रहा, सूरज  से  बिंदास।

दुखी  बिजूका  खेत में,फ़सलें और मचान।
आंदोलन  की राह पर, बेबस खड़े किसान।

मायावी  औघड़   हठी,  क्रूर   निशानेबाज़।
हत्यारे   का  आजकल, रोज़  नया अंदाज़।

इक  छोटे  जीवाणु  से, दुनिया है हलकान।
कोरोना   से   जंग   में, हारे   कई   महान।

जिस  काया से मोह है, देखो उसका हाल।
गठरी  काँधों  पर  लिये, जाते चंद सवाल।

अवसर है हर आपदा, जिनके हाथ गुलेल।
मानवता  देखे  विवश, कुछ  दुष्टों के खेल।

तूफ़ानों  में   नाव   का,  टूट  गया  मस्तूल।
जीवन  के  अनुबंध  में, जैसे  सभी उसूल।

                    @   लक्ष्मीनारायण पयोधि

पिछली कड़ी का लिंक
_________________
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=680831689982845&id=100041680609166

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें