बुधवार, 21 जुलाई 2021

साहित्यिक पत्रिका गीत-गागर के यशस्वी संपादक श्री दिनेश प्रभात जी के दो गीत : प्रस्तुति ब्लॉग वागार्थ

साहित्यिक पत्रिका गीत-गागर के यशस्वी संपादक श्री दिनेश प्रभात जी के दो गीत

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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एक
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चैन से जीना कठिन है
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कुल मिलाकर बात ये है
चैन से जीना कठिन है।

बस उसी ने ली परीक्षा,
बस उसी ने आजमाया।
सच यही है आजतक भी,
चाँद धरती पर न आया।

दिन उदासी से भरा है,
रात बेचारी मलिन है।

चाहतें सब बन गईं हैं,
आज बारूदी सुरंगें।
आसमां से डर गईं हैं,
कल्पनाओं की पतंगे।

आँख का सपना सुहाना,
एक चुभता आलपिन है।

खत्म होता ही नहीं है ,
सिलसिला मनमानियों का।
आचरण अच्छा नहीं है,
दर्द के सैलानियों का।

हर घड़ी सहमी हुई -सी
जिन्दगी की डॉल्फिन है।

एक दिन इसको तुम्हीं ने,
प्यार का मंदिर कहा था।
और बरसों तक इसी में
भक्त बन कर मैं रहा था।

आज गमले -सा यही दिन,
दर्द, ग़म का डस्टबिन है।

दो

मेरा गाँव
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मेरा गाँव,
शहर से बढ़कर

सड़कों में बदली पगडंडी,
चौपालें हो गईं घमण्डी
लड़का बिगड़,
गया है पढ़कर

भाती है अब कहाँ किसानी 
पिछड़ेपन की खेत निशानी
कचरा हुई 
मान्यता सड़कर

हाथों में हरदम मोबाइल
ओठों पर हल्की 'इस्माइल'
फैशन बोल रही 
सिर चढ़ कर

छमिया की जुल्फें घुँघराली,
धनिया आज लिपिस्टिक वाली
रधिया जींस
माँगती लड़कर

परम्परा की उड़ती खिल्ली
वृद्ध हुए सब भीगी बिल्ली
रख लो ये,
तस्वीरें मढ़कर

1 टिप्पणी:

  1. गीत गागर के संपादक आदरणीय दिनेश प्रभात जी के नवगीत पढ़कर लगा कि यदि गागर में गीत भरने में सक्षम गीतकार जिनकी उपस्थिति मात्र से गीताकाश में"प्रभात" की लाली फैल जाती है और गीत समसामयिक संदर्भों की किरणों से आलोकित हो कर "दिनेश" हो जाता है। तो पटल पर प्रकाशन जरूरी है। गीत जब सार्थक शब्द संयोजन, सामयिक सन्दर्भ से अनुस्यूत कहन अपनी अनूठी भाव्यंजना के साथ जब जीवन की सरलता-दुरुहता,हर्ष-विषाद,कामना- संभावना और दर्द के सैलानियों से बाबस्ता होता है तो "चैन से जीना कठिन है" गीत का सृजन अवश्यंभावी है। टटके बिम्ब,समर्थ प्रतीक,और दुश्वारियों का सहज संप्रेषण कोई दिनेश जी से सीखे। अद्भुत गीत है सीधे सीधे आत्मा से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आंख का सपना सुहाना एक चुभता आलपिन है। अपने में समाहित पीर की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त है। नवगीत धारा में सक्रिय भाई दिनेश जी का सृजन स्तुत्य है। लोकधर्मिता से संपृक्त गीत मेरा गांव शहर से बढ़कर, बदलते परिवेश, मान्यताओं की कीमत का ह्रास होना तथा फैशन का सिर चढ़कर बोलना सभी घटनाओं की बखिया उधेड़ कर रख देता है। गीत कार सामाजिक जीवन का एक्स-रे करने में माहिर है। साथ ही तथ्यात्मक रूप से अभिव्यंजित करने में निपुण भी। दिनेश जी की लेखनी को सादर प्रणाम,और आशान्वित हूं कि ऐसे ही नवगीत सुनने पढ़ने को मिलेंगे। भाई मनोज मधुर जी को साधुवाद।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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