बुधवार, 7 जुलाई 2021

कवयित्री सीमा अग्रवाल जी की नवीनतम कृति : ‘नदी ने बतकही की पत्थरों से’ की सविस्तार समीक्षा समीक्षक: वेद शर्मा प्रस्तुति : वागर्थ

पुस्तक समीक्षा: ‘नदी ने बतकही की पत्थरों से’ 
समीक्षक: वेद शर्मा 

                                एक अंदाज़े बयां में सीमा अग्रवाल
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आज के दौर में हर ठीक ठाक रचनाकार का यह प्रयास रहता है कि वह अपने आस पास फैले यथार्थ से आँख मिलाकर बात करे, उसकी टटोल, खंगाल यथासम्भव करे, करता रहे। नवगीत के हस्ताक्षर के नाते सीमा अग्रवाल जाना पहचाना नाम है। दूसरे रचनाकारों की तरह वे भी अपने समय को देखती चलती हैं, झाड़ती पोंछती भी हैं और फटकती भी हैं। अपने कहन में वे कहीं -कहीं अलग दीख पड़ती हैं,अपने ही अंदाज़ में। यह अंदाज़ बातचीत का अंदाज़ है। समय से संवाद करते हुए अपनी इस विशिष्ट शैली में वे अपने को इस प्रकार अभिव्यक्त करती हैं कि लगता है जैसे हम सब कुछ लाइव देख रहे हों अर्थात जैसे वे हमारे सामने किसी से बातचीत कर रही हैं। प्रख्यात समालोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने जिस 'दृश्यता' की बात गालिब के सम्बंध में, उनके पत्रों के बारे में कही है ,वह हमें सीमा अग्रवाल की कुछ रचनाओं में भी देखने को मिलती है। अपनी इस बातचीत में वे कभी संबोधनकर्ता के रूप में सामने आती हैं तो कभी अभिभावक की मुद्रा में। कभी लगता है किसी पक्ष की प्रवक्ता, अधिवक्ता या कभी- कभी सर्वाधिकार प्राप्त अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में। उनकी बातचीत स्वजन, परिजन, पुरजन या अन्य किसी से भी हो सकती है। गीतों से  गुज़रते हुए यह लगता है कि यह बातचीत जैसे कभी घर में हो रही हो तो कभी किसी सभा में और कभी -कभी अन्य किसी जगह पर। कुल मिलाकर बात यह है कि एक दृश्य -सा उभरता है।
 
'तुम चिंतन के शिखर चढ़ो' नामक गीत की शुरुआत होती है --- 
 
       तुम पन्नों पर सजे रहो
       हम अधरों अधरों बिखरेंगे 
पंक्तियों से 
सतही तौर पर देखने से लगता है कि जैसे यह गीत दो वर्गों की द्वँद्वातमकता को ज्ञापित करता है किंतु आगे बढ़ते ही पंक्ति आती है --
 
              तुम बन ठन कर घर मे बैठो
               हम सड़कों से बात करें
 
अब ये पंक्तियां साफ तौर पर यह दिखाती हैं कि एक ही वर्ग में भी दो प्रवृत्तियाँ या प्रकृति मौजूद हैं--- एक जो अपने को अलग दिखाने की मानसिकता से ग्रस्त है और एक।प्रकार से सुपिरियोरिटी काम्प्लेक्स का शिकार है। दूसरी वह है जो 'आम' 'साधारण' की न केवल पैरोकार है, उस जैसा दिखना चाहती है , रहना चाहती है। पूरा गीत इस गाँठ पर ही चोट करता है। गीत का 'तुम' इस ग्रंथि से पूरी तरह ग्रस्त है तभी तो बन ठन कर घर मे बैठता है, गुलदानों में इतराता है, अकड़ी गर्दन का स्वामी है, अनुशासित झील- सा मुस्काता है। आदि -आदि। इस 'तुम' का सम्बंध उस अभिजात्य से भी है जो साधारण से काट कर रहने में ही शान समझता है। किंतु वाचक का साधारण कोई दीन हीन नहीं वरन उस सक्रियता का पर्याय है जो यत्र -तत्र जीवन व्यापार को व्यावहारिक रूप में चलाती है। उसे इस आम जीवन की चिंता केवल चिंतन मात्र तक सीमित रहकर स्वीकार नहीं बल्कि उसके कारण निवारण तक है, और सक्रिय रहकर क्रियात्मक रूप में। सीधे शब्दों में गाल बजाई मात्र उसका करम-धरम  नहीं है।   
 
 
असल में इस गीत में जिस ओपनएंडेडनेस  को कायम रखा गया, उसके चलते इस गीत का फलक बहुत व्यापक हो जाता है। पन्नों पर सजे रहना का एक अर्थ केवल सुर्खियाँ बटोरना, लाइम लाइट में रहना भी है,वह भी बिना कुछ किये धरे । यह प्रवृत्ति  भी आज के समय में जगजाहिर है जिसे गणेश परिक्रमा कहा जाता है। 
गीत में हल्की सी खीझ है तो व्यंग का भी पुट है। थोड़ा और ध्यान से देखें तो संयत, शांत फटकार का स्वर भी है जिसमें हल्का सा झिंझोड़ने का पुट भी है। गीत के प्रारंभ में ही बिखरना शब्द बड़े कमाल का है। बिखरना अर्थात निर्विकार भाव से बिना किसी भेदभाव के किसी चीज़ को उपलब्ध करा देना। इसमें सहजता है जो विनम्रता को जन्म देती है। बनावटी या ग्रंथि-ग्रस्त 'विशिष्ट' अथवा 'आभिजात्य' का नकार तो है ही , उसके विपरीत सक्रियता का ज्ञापन भी है। 'हर दिल से गुजरेंगे' , 'चिंताओं में उतरेंगे' जैसे कथन इस भाव को और गहरा करते हैं। 'मिट्टी में निखरेंगे' में लगता है जैसे तुक का निर्वाह है। मिट्टी का और निखरने का सम्बंध ? हाँ पत्थर पर पिसकर तो हिना रंग लाती है। 'सरसेंगे' यदि प्रयोग होता तो शायद और बात बनी रहती। खैर, यहाँ इन बातों पर चर्चा नहीं होनी है। ऊपर जिस ओपनएंडेडनेस की बात की गई है उसके चलते अपनी भंगिमा को और संदर्भों को लेकर यह गीत देश -काल की सीमा को तोड़ता है। केवल हठयोग एक शब्द है,जिससे भारतीय सन्दर्भ ध्वनित होता है। किन्तु ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इस शब्द का प्रयोग व्यंजनात्मक है , रूढ़ अर्थों में नहीं । 
अपनी बातचीत में सीमा अग्रवाल बेबसी को उकेरती है--
 
           धुंधली तस्वीरों से बातें हो सकती हैं
           बिगड़ी तस्वीरों से कोई कैसे बात करे
 
कोई कैसे बात करे अर्थात बात नहीं हो सकती । यह अंदाज़ भी काबिले तारीफ़ है। इस अंदाज में बातचीत का एक दृश्य तो उभरता ही है, लगता है वे किसी से बात कर रहीं हैं । सामने वाला किसी समस्या के निदान के लिए बात करने को कहता है और वाचक कहता है कि बिगड़ी तस्वीरों से कोई कैसे बात करे। यह 'कैसे' प्रश्नवाचक नहीं है। सीधा सीधा 'ना' है और 'ना' भी बलाघात के साथ, फ़ोर्स के साथ। समय केवल धुंधलाया नहीं है बिगाड़ग्रस्त  है। धुंधलाना टेम्परेरी हो सकता है , उसे झाड़ना , पोंछना आसान होता है। दूसरे,धुंधलाने की प्रक्रिया में धूल अर्थात किसी बाहरी (किसी भी प्रकार का) कारक की मौजूदगी भी रहती है, सक्रिय मौजूदगी। इसमें 'धुंधलाये'  की भूमिका निष्क्रिय होती है। समाज के परिप्रेक्ष्य में यदि यह भी मान लें कि इस धुंधलाने की प्रक्रिया में बाहरी कारक के अलावा अपनी भूमिका भी है तो भी इसे हटाना आसान रहता है। किंतु जब कोई चीज बिगड़ जाये तो बिगड़े में सुधार लाना कठिन है। इन बिगडों या इस बिगड़े से संवाद भी आसान नहीं होता क्योंकि बिगड़ने में व्यक्ति, समाज आदि की अपनी भी भूमिका होती है। धुंधले और बिगड़े शब्दों से गीत इस अंतर को स्पष्ट करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज का दौर धुँधलाया हुआ उतना नहीं जितना बिगड़ा हुआ है।
गीत में प्रयोग किये गये फूल, नदी, सूरज आदि प्रतीकों पर गौर करें तो तीनों के हिस्से बेबसी है परंतु फूल की बेबसी तुलनात्मक रूप से  असमर्थ की बेबसी है। नदी और सूरज की बेबसी अलग तरह की है। वे स्वयं किसी हद तक उस स्थिति के लिए उत्तरदायी  हैं,जिसके हाथ बेबस हैं। नदी एक दिन में दो दिन में अचानक नहीं तपती। उसके पास विकल्प था, या है, मार्ग बदलने का,लेकिन ऐसा हुआ नहीं । इसी प्रकार सूरज काले धब्बों से आक्रांत है। ये धब्बे उसे एक दिन में नहीं ढांप सकते। शाप की कल्पना घिसी-पिटी है। यह रचना को कमजोर करती है कुल मिलाकर अपने समय की विडम्बना ही कही जायेगी कि सब किसी न किसी बेबसी के शिकार हैं- समर्थ या असमर्थ। यह तथ्य समस्याओं को चक्रिक रूप प्रदान करता है और हर किसी को पल्ला झाड़ने की सुविधा भी देता है, जबकि सच यह है कि हर कोई स्थितियों के लिए कम या ज्यादा जिम्मेदार है। अंतिम चरण के नटखट मोहन की संगति मेरी दृष्टि में अन्य प्रतीकों से नहीं बैठती।
गीत किसी संदर्भ विशेष से नही जुड़ा है, अतः इस बेबसी का क्षेत्र, आयाम, रूप भी किसी सीमा में नहीं बँधता।
उपर्युक्त बेबसी हल्के से आक्रोश का रंग लिए हुए एक और गीत में ध्यान आकर्षित करती है -- 
                 
                 हकलाते कंठों को कैसे
                 तकरीरों की रीत सौंप दें 
 
ऊपर वाले गीत में संकट अलग था। यहाँ संकट उत्तरदायित्व सौंपने का है। उत्तरदायित्व अर्थात अधिकार और कर्तव्य। वर्तमान समय में जो परिदृश्य समूचे विश्व का है उसे देखते हुए यह गीत बहुत प्रासंगिक हो उठता है। यह ठीक है कि समूचा ग्लोबल रंग गीत में नहीं है किंतु एक बात तो निश्चित है कि उत्तरदायित्व के उचित या मानवोचित निर्वहन के लिए बागडोर या नेतृत्व का संकट तो जैसे पूरे विश्व में है। प्रस्तुत गीत में वाचक के अतिरिक्त एक और पात्र मौजूद लगता है। इसी पात्र से कहा जा रहा है कि आखिर जो सुपात्र नही, बल्कि स्पष्टतः एक प्रकार से अक्षम है उसे कैसे अधिकार और कर्तव्य, वह भी नेतृत्व करने के सौंप दिये जांय।
'कैसे' शब्द का प्रयोग यहाँ भी प्रश्नवाचकता के लिए नहीं बल्कि अपनी बात तो बल प्रदान करने के लिए किया गया है। एक जगह इसके पहले 'बोलो' लगाकर एक अतिरिक्त छटा उत्पन्न की गयी है जिससे सीधे सीधे 'बोलो बोलो ऐसा कैसे किया जा सकता है' की ध्वनि पैदा की गई है। इस प्रकार उस पक्ष की जो वाचक के सामने मौजूद है, की सहभागिता जैसे किसी निर्णय में अर्जित की जा रही है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वाचक अपना निर्णय नहीं सुना रहा है बल्कि एक सुसंगत संवाद कर रहा है और उद्देश्य को या निर्णय को पुष्ट करने के लिए अन्य पक्ष की सहभागिता को पक्की कर रहा है। 
'हकलाते कंठों में तकरीरों की रीत', 'कदराये आयासों के हाथों में जीत' , 'डगमग पग को प्रयाण के गीत' आदि वाक्यांशों को विन्यस्त कर सीमा अग्रवाल वाचक के माध्यम से अपने कहन को, निष्कर्ष या निर्णय को तर्क की ठोस भूमिका प्रदान करती है।
सीमा अग्रवाल अपनी इस शैली में सांस्कृतिक , धार्मिक आयोजनो , तत्सम्बन्धी प्रतीकों पर भी चोट करती हैं। इन आयोजनो , प्रतीकों के साथ साथ ही यह चोट उन परम्पराओं पर भी हो जाती है जो रूढ़ियाँ बन चुकी हैं।यह सारा तामझाम केवल रस्म-रिवाज़ तक सीमित होकर एकदम यांत्रिक सा हो गया है और समाज के लिए एक प्रकार से अपना अर्थ खो चुका है।
'सुनो सांता' में सांता को सीधे- सीधे संबोधित किया गया है। इसी प्रकार 'नौ रातें कुछ अलग मनाओ' में माँ अम्बे को भी। 
सुनो सांता का प्रारंभ होता है इन पंक्तियों से--
 
            सुनो सांता 
            इस क्रिसमस पर
            जो हम बोलें देखो बस तुम 
             वो ही लाना
 
पंक्तियों पर गौर करने से समझ आता है कि यह 'सांता' वह सांता नहीं है जो क्रिसमस पर लाल चोगा,लाल टोपी पहनकर बच्चों को रिझाता है, प्यार करता है और हमारी आस्था के चलते हमारे आदर का पात्र है।
सुनो सांता..जो हम बोलें.. देखो..बस तुम... वो ही लाना। यह न तो विनय है न प्रार्थना। यह एकमात्र मांग पत्र है। मांग पत्र भी ऐसा वैसा नहीं बल्कि चेतावनी भरा-- देखो बस तुम वो ही लाना। अब यदि यह मांगपत्र है तो यह सांता भी तथाकथित दाताओं , दानियों, मेहरबानियों का प्रतीक है क्रिसमस कोई अवसर, आयोजन। अब यह अवसर क्या प्रतिवर्ष पेश किया जाने वाला बजट या कोई योजना नहीं हो सकती? टॉफी बिस्कुट, खेल खिलौने केवल घिसी पिटी परम्परा के निर्वाह की सामग्री है -- विशुद्ध यांत्रिकता के साथ रस्मों रिवाज़ का निर्वाह। आज के आदमी को यह नहीं चाहिए। उसे परिवर्तन चाहिए -- ऐसा परिवर्तन जिसके द्वारा आने वाली पीढ़ी का भविष्य स्वस्थ सुखी हो सके। अतः माँगपत्र में रोटी, कपड़ा मकान के लिए रोड मैप है। ऐसा रोड मैप जो होठों को हँसी प्रदान कर सके और 'छोटी' की दवाई भी सुनिश्चित कर सके। छोटी की दवाई के आग्रह का माँगपत्र , जाहिर है वह वर्ग ही करेगा जो बुनियादी सुविधाओं बल्कि जरूरतों से वंचित है। अतः दवाई भी लाक्षणिक है अपने प्रयोग में। छोटा सा बस्ता भी एक सुखी , सुन्दर, सम्मानजनक भविष्य की ही माँग है। बस्ते के बाद उसमें अक्षर रखना एक तरह से बस्ते का ही दोहराव है जिससे काव्य सौंदर्य बाधित होता है।
भविष्य की चिंता के साथ साथ इन सांता से वर्तमान की खैर खबर लेने का भी आग्रह किया गया है। सर्दी में रजाई कंबल की माँग यही दिखाती है।
 
          लगे जरा भी गर तुमको यह गठरी भारी
         अपनी सोच समझ से तुम फेहरिस्त घटाना
          तथा - 
          अगर बहुत महंगा हो यह सब 
          बेढब सर्द हवाओं को आ धमकाना 
 
पंक्तियाँ स्पष्ट रूप से उस चिकोटी की ओर इशारा करती हैं, सीमा अग्रवाल जिसे निहायत संतुलित संयम के साथ शिष्टता से काटती हैं। इस अदा से खंजर चलाती हैं कि खून का दाग तो क्या बूँद तक नहीं दिखाई देती। 
 
'नौ रातें कुछ अलग मनाओ' में भी रूढ़िग्रस्त परम्परा पर चोट है। प्रस्तुत गीत में भी असुरमर्दिनी माँ अम्बे की आरती नहीं उतारी गयी है। चकाचौंध शब्द को पंडालों से पहले रखकर इस शब्द को एक प्रकार से रेखांकित किया गया है और उसे ध्यान का , पाठक के आकर्षण का केंद्र बनाया गया है क्योंकि पंडाल से दिक्कत शायद उतनी नहीं जितनी उसकी चकाचौंध से है। इस चकाचौंध का संबंध निश्चित तौर पर उस मोहक जाल से है, जिसमें आमजन नासमझी में अनायास ही परम्परा के नाम पर , सांस्कृतिकता के नाम पर , धार्मिकता के नाम पर फंसता जा रहा है। यह जाल उसे निरंतर जकड़ता जा रहा है।
 
           निरंकार है जोत तुम्हारी यदि सच में माँ
           अँधियारी खुशियों में भी
           कुछ रोज़ बिताओ
 
अम्बे माँ के साथ 'निरंकार' उसकी दिव्यता के लिए और 'जोत' (यह जोत आमजन जलाता है) का आमजन के साधन स्वरूप प्रयोग कर शब्द चयन की सटीकता ने परिवेश को अधिक अर्थमय और जीवंत बनाया है। कलात्मकता की दृष्टि से तो यह प्रशंसनीय है ही, अर्थ को अधिक गहरा और व्यापक बनाता है। माँ अम्बे की दिव्यता को साफ सुथरी चुनौती दी गयी है इस गीत में। 
इस चुनौती में 'आज हौं एक एक करि टरिहौं' वाला सूरदास का भाव नहीं स्पष्ट कटाक्ष है। 
यह कटाक्ष साफ साफ तौर पर जैसे कहता है - अम्बे माँ! तुम ऐसी ऐसी हो, इतनी शक्तिशाली इतनी दिव्य तो फिर इन अंधकार सीलन भरी खोरियों कोठरियों में रहकर उसके सुख दुख को अनुभव क्यों नहीं करती और अंततः उसे दूर क्यों नहीं करती। निष्कर्ष यह है कि सब कुछ केवल घिसी पिटी लीक पर चलने की आत्म स्वीकृत कवायद भर है। 
'नौ-रातें कुछ अलग मनाओ' में कटाक्ष प्रत्यक्ष है, पैना है , सीधा सीधा है। यह जैसे अम्बे माँ के माध्यम से आस्था , विश्वास , सांस्कृतिकता , धार्मिकता और परंपरा से दिखाऊ , बनावटी , पोम्प एंड शो पर करारा प्रहार करता है। 
सुनो सांता! में उतना स्पष्ट भले न हो किन्तु सुनो सांता की बार बार आवृत्ति निष्प्रयोजन और निरर्थक नहीं है। इस संबोधन में एक ध्वनि की निर्मित्ति होती है जो जैसे सांता को बार बार झिंझोड़ कर बातों का स्मरण कराती है।एक ऐसी दृश्यता रचती है जैसे बरसात में कभी बूँदें पड़पड़ गिरती हैं , थमती हैं और फिर गिरती हैं। प्रहार रह रह कर होता है। यहाँ भी सांता को बार बार स्मरण कराया जाता है । इस प्रकार भी कह सकते हैं कि वाचक या माँगपत्र प्रस्तुत करने वाला अपनी बात कहकर चलता है फिर मुड़कर कहता है -- सुनो ! यह नहीं तो इतना सही। फिर मुड़ता है फिर कहता है --सुनो कम से कम इतना ही। इस प्रकार एक प्रकार की जीवंत नाटकीयता उभरती है। संवाद महत्वपूर्ण ही नहीं फोर्सफुल भी हो जाता है। एक ध्वनि उत्पन्न करता हुआ जैसे घण्टे पर पड़ी चोट गूंजती है -- देर तक दूर तक जाती हुई। 
'सुनो सांता' में गीत के पहले और अंतिम चरण का सम्बंध बच्चों से अर्थात भविष्य से है तो बीच का चरण वर्तमान से जुड़ता है यह क्रम कुछ खटकता है। इसी तरह
'नौ-रातें कुछ अलग मनाओ' में पहले दो चरणों मे सुख-दुख, सीलापन, दुर्योग, अंधकार , अभाव है तीसरे चरण में बेटी बचाओ का भाव प्रकट हो जाता है। पहले दो चरणों मे शक्ति और दिव्यता पर सामर्थ्य पर कटाक्ष है और तीसरे में उस अम्बे से सच को ,स्वांग को, लालच को पहचानने का आग्रह है। दोनो सुन्दर गीत  आन्वितिक स्खलन के शिकार हो जाते हैं। सघनता छीजती है। ये बिंदु इस लेख का हिस्सा नहीं अतः ज्यादा चर्चा संभव नहीं। 
जैसा की इस लेख के प्रारंभ में ही कहा गया है सीमा अग्रवाल के बातचीत करने का रंग ढंग अलग तरह का है। कुछ गीतों में लगता है जैसे वे किसी वार्ता मेज पर बैठी हुई हैं और कोई समझौता होना है या जैसे कोई  डील फाइनल होनी है। 
' हम लहर पर आज ही' नामक गीत इसी तरह का गीत है। गीत की शुरुआती पंक्तियाँ है ---
          
              हम लहर पर आज ही 
              दीपक सिराना छोड़ देंगे 
               शर्त है पर .......
 
'शर्त है पर' की ये ध्वनि गीत में आद्योपांत विद्यमान है। यह गीत का मुखड़ा है अतः जाहिर है यही केंद्र- बिंदु भी है। इस गीत की बुनावट बहुत ही तर्कपूर्ण ढंग से सुसंगत रूप में की गई है। वार्ता की मेज पर बैठने से पूर्व या डील फाइनल करने से पूर्व कोई भी आदमी जैसे अपना होम वर्क पूरा करके बैठता है वैसे ही सीमा अग्रवाल का वाचक पूरी तैयारी के साथ उपस्थित होता है। असल मे इस गीत का 'हम' बहुवचन नहीं बल्कि एकवचन है। हम लिख दिया गया है उसी भाव के साथ जैसे पूर्वांचल में बातचीत में प्रयोग किया जाता है। इस बात की पुष्टि गीत की अंतिम पंक्ति -- ' तुम अमिट विश्वास बन कर रक्त में मेरे बहोगे' करती है। इस प्रकार हम इसे आत्मसंवाद या आत्मालाप भी कह सकते हैं। गीत में रचनाकार के स्वयं के दो रूप हैं -- एक वह व्यक्ति जो परिवेश के अनुरूप या परिवेश के दबाव के कारण , परिवेश में उपस्थित विडंबनाओं के चलते , विकल्पहीनता के चलते या उपलब्ध विकल्पों के चलते अपने कार्य का या कार्य शैली का चुनाव करता है। इस व्यक्ति का एक छाया रूप भी है जो कदाचित उसका उन्नत आत्मरूप है, कुछ कुछ वैसा जिसे आध्यात्मिक जगत आत्मा कहता है। यह छायारूप वह आत्मरूप भी हो सकता है जो चाहता है कि वह सब न करे जो करना पड़ता है, करना पड़ रहा है। पूरा गीत इन दोनों को उपस्थित पाता है। पहला वाचक और दूसरा श्रोता के रूप में उपस्थित है।
वाचक अपने पूरे होम वर्क के साथ प्रस्तुत होता है और एक एक कर उन सभी कारकों को , तथ्यों को प्रस्तुत करता है जो उसकी कार्य शैली या कार्यों का कारण हैं। 
आग के दरबार में नीर के फैसले, साधनाओं का साध्य से और साधकों का साधनाओं से बड़ा होना, सुकर्मी भाग्य का हाशिये पर होना, सांत्वना भी भुगतान पर मिलना,छोटे बड़े हर देवता का आशीष मंहगा या सस्ता होना। जाहिर है आज के दौर में ये सब स्थितियाँ सामान्य हो चली हैं, इतनी सामान्य की हमारा ध्यान भी एक आम आदमी की तरह उन पर नहीं जाता। नो लंच इस फ्री लंच, काम का फिकर करो, फिकर का जिकर करो, काम सिफर करो आदि आज के दौर के मुहावरे हैं । यह तथ्य किसी से नहीं छिपा कि साध्य गौण क्या लगभग ओझल है और साधना का अर्थ यदि कुछ है तो केवल गणेश परिक्रमा या शॉर्टकट के ताम झाम , जुगत -जुगाड़, समीकरण। वाचक बड़े तर्कपूर्ण ढंग से उपर्युक्त बातों को तथ्यों को प्रस्तुत करके अपनी शर्त रखता है कि लहर पर दीपक सिराना वह छोड़ देगा यदि यह आत्मरूप अनय का दंभमर्दक बन जयति के स्वर रचे। 
अंत में -- 
हम फलाना या ढिकाना हर ठिकाना छोड़ देंगे, 
शर्त है पर / तुम अमिट विश्वास बन कर/ 
रक्त में मेरे बहोगे 
यह गीत का और वार्ता का चर्मोत्कर्ष है , क्लाइमेक्स है। आज की आवाश्यकता आश्वासन भर की नहीं , दूसरों के  हाथों कार्य समापन की नहीं और यदि है तो रचनाकार की यह कामना नहीं , उसकी शर्तमयी कामना है कि वाचक का आत्मरूप अमिट विश्वास बन कर उसके  अस्थिमज्जा तक में वरन डी. एन. ए तक में  उसका अभिन्न अंग हो न केवल अभिन्न अंग हो बल्कि व्यावहारिक जगत में सक्रिय भूमिका का निर्वाह भी करे। आज के परिवेश की यह महती आवश्यकता है। सारांश रूप में कहें तो सारी वार्ता का प्रतिफल आत्मजागरण ही है। ढंग अलग है लेकिन अभिप्राय और गुहार वही है -- 
'उत्तिष्ठ कौन्तेय 'वाली ' , सक्रियता की।
'तो हम भी बहरे हैं' नामक गीत में बात अपने किसी आत्मीय से हो रही है । 
' अगर सिर्फ कहना है /सुनना नहीं ज़रा भी तुमको/ तो फिर हम भी बहरे हैं ' 
यह मुखड़ा बड़ा आकर्षक है । स्वर भी नया है। किंतु आगे बढ़ने पर कुछ कुछ तथ्यों की पीठिका पर जैसे वे सूक्तियाँ सी गढ़ देती हैं। ऐसा लगता है उनका चिंतन उनके रचनाकार पर हावी हो जाता है। विचार आग्रही सा हो उठता है। 
आत्मसंवाद या आत्मालाप जिसे एक प्रकार का एकालाप भी कह सकते हैं -- 'आग बनकर डोल' नामक गीत में और अधिक तीव्रता और वेग लिए दिखाई देता है। इस गीत पर अन्यत्र भी चर्चा हुई है दूसरे लेख में। यहाँ थोड़ी चर्चा केवल संवाद शैली के अंतर्गत इस गीत को रखकर इसके आत्मसंवाद के कारण है ताकि सीमा अग्रवाल की अपनी इस रंग ढंग की अभिव्यक्ति का एक रंग भी प्रस्तुत किया जा सके। जिस लेख का उल्लेख किया गया है वह 'कमला रानी' की यात्रा की कड़ी का संदर्भ रखता है। खैर उस कड़ी से अलग कर इस गीत पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि यह स्त्री के वर्तमान का, उसके सम्भाव्य से संवाद है,बल्कि आह्वान है।
 
         मत सुलग नम लकड़ियों सी
         आग बन कर डोल कमली
         आग बन कर डोल 
 
सुलगना जलने से भी अधिक कष्टदायी होता है। स्त्री सुलगती ही आयी है। आज भी सुलगती है -- कहीं नम लकड़ियों-सी तो कहीं बुरादा-सी, कहीं भीतर- भीतर लावा-सी उबलती है। आग बन कर डोल में जिस आग का आह्वान है,वह जलाने वाली आग नहीं ,वह विध्वंस रचने और किसी को राख बनाने वाली आग नहीं है। इस आग में ऊष्मा है,प्रकाश है। यह ऊष्मा लकड़ियों की नमी को, शब्दों की फुसफुसाहट को, चुप्पियों के घेरे को, वर्तमान सोच को, प्रार्थनाओं की गिड़गिड़ाहट के शीत को हरेगी। अपने वर्तमान को होम कर जो आग प्रज्ज्वलित होगी वह प्रकाश भी बिखेरेगी। वह प्रकाश जो स्त्री के वर्तमान को प्रकाशित कर उसके सम्भाव्य को मूर्तिमान कर सकता है। यह प्रकाश ही या इस प्रकाश को मूर्तिमान करने के उद्यम का नाम ही 'बोल खुलकर बोल' , 'उजले रंग घोल' हैं। यह आत्मसंधान के मार्ग से होता हुआ आत्म विश्वास और आत्म आस्था का वह बिंदु है जहाँ पहुंचकर स्त्री भरे पूरे व्यक्तित्व से सम्पन्न स्वतंत्र मानवी हो सकती है। 
बोल खुलकर बोल, आग बन कर डोल से उठती हुई ध्वनियाँ और ध्वन्यार्थ वेगवान तो हैं ही अपने प्रहार और प्रवाह में तीव्र भी हैं। ऐसा लगता है जैसे वर्षों वर्षों से सोये हुए व्यक्ति को उठाकर खड़ा किया जा रहा हो, जैसे किसी हनुमान को उसके बल से परिचित कराया जा रहा हो। यही इस गीत की उपलब्धि है। 
बातचीत का वार्ता का उनका ढंग बहुत बार साधारण सा हो जाता है। 'आगे हमको क्या करना है' , ' थोड़ी नमी बचाये रखना', 'धीर संजोये रखना', 'मिट्टी जैसे टीम में रखना' , आदि गीत इस बात के साक्षी हैं। इन गीतों में उनका स्वर कहीं आह्वान का है तो कहीं वे शिक्षक, अभिभावक जैसी मुद्रा में दिखाई देती हैं। कहीं कहीं यही मुद्रा उपदेशात्मकता तक चली जाती है। 
सीमा अग्रवाल के इन गीतों पर बात करते हुए उन कविताओं की ओर ध्यान जाता है ,जिनमें नामवर सिंह ने नाटकीय एकालाप की बात की है। 
इन कविताओं -- श्रीकांत वर्मा की ' समाधि लेख' , रघुवीर सहाय की 'आत्महत्या के विरुद्ध' और राजकमल चौधरी की 'मुक्ति प्रसंग' पर बात करते हुए इन्हें आत्मपरक न कहकर आत्मपरकता का आभास देती हुई बताया है। कारण स्पष्ट है कि ये कविताएं इस प्रकार का आभास देती हुई एकदम निर्वेयक्तिक हैं। इसी आधार पर नामवर जी ने इन्हें -- 'दिन जल्दी जल्दी ढलता है'(बच्चन),  'कितनी शान्ति कितनी शान्ति'(अज्ञेय), और 'जी हुज़ूर में गीत बेचता हूँ'(भवानी प्रसाद मिश्र) जैसी  प्रगीतात्मक कविताओं से अलग किया है। नामवर सिंह ने जिस नाटकीय एकालाप की बात की है और जिसका उल्लेख ऊपर है उसकी बात उन्होंने विजयदेव नारायण साही की कविता 'अलविदा' तथा मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' में भी की है। इन दोनों को उन्होंने उपरोक्त से  भिन्न कहा है क्योंकि नाटकीय एकालाप को फैंटेसी  के जरिये प्रभावशाली पटभूमि प्रदान की गई है तथा एकालाप में वाचक के अलावा एक छायारूप व्यक्ति एकालाप का साझीदार बना हुआ है। 
सीमा अग्रवाल के 'हम लहर पर' तथा 'आग बन कर डोल' गीतों में नाटकीय एकालाप 'अलविदा' तथा 'अंधेरे में' जैसा कहा जा सकता है। सीमा अग्रवाल की ये रचनाएँ अप्रगीतात्मक लंबी रचनाएँ नहीं हैं और निस्संदेह प्रगीतात्मक हैं। साही जी और मुक्तिबोध की कविताओं में संवाद के अतिरिक्त जीती जागती घटनाओं की, स्थितियों की तथा जीते जागते व्यक्ति पात्रों की सजीव दुनिया के चलते फिरते दृश्य भी हैं। सीमा जी की रचना प्रक्रिया का आधार पर्यवेक्षण है।
श्री कांत वर्मा की 'समाधि लेख' तथा रघुवीर सहाय की 'आत्महत्या के विरुद्ध' के संदर्भ में नामवर सिंह पंक्ति या वाक्यांश की आवृत्ति का भी उल्लेख करते हैं। 'समाधि लेख' में 'मुझसे नहीं होगा' की आवृत्ति है तो 'आत्म हत्या के विरुद्ध में' में 'समय आ गया है' की ।
मुझसे नहीं होगा/जो मुझसे नहीं हुआ/ वह मेरा संसार नहीं  इसकी बार बार आवृत्ति जैसा नामवर सिंह ने कहा बार बार कोशिश की पीड़ा को प्रगाढ़ करती है। 'समय आ गया है' में वाक्यांश का अर्थ सन्दर्भ के साथ बदलता है। यह बदलता अर्थ नामवर सिंह के अनुसार आवेश में हाँफते हुए स्वर की त्वरा को जन्म देता है। निराला जी की सुप्रसिद्ध कविता 'वह तोड़ती पत्थर' में भी इस वाक्यांश की आवृत्ति स्थिति के अनुसार नया अर्थ ग्रहण करती है। स्वयं निराला जी के अनुसार ऐसा लेखक के वर्णन प्रकार के कारण और निर्देश से है। पत्थर पहले सड़क का पत्थर है फिर अट्टालिका का और फिर हृदय का पत्थर । सीमा अग्रवाल के गीत सुनो सांता में 'सुनो सांता' ये छवियाँ  उपस्थित नहीं करता उसे झिंझोड़ने का प्रयास करता है। 
विश्वनाथ त्रिपाठी ग़ालिब के बारे में उनकी प्रश्नवाचकता तथा उनके आत्मसंवाद की बात करते हैं और कहते हैं कि ग़ालिब अपने व्यक्ति और अपने शायर के बीच  विभाजन रेखा खींचते है और फिर आत्मनिर्वासन तक जाते हैं। उनका शायर उनके व्यक्तित्व पर हँसता,गाता,रोता है।  उन्होंने ग़ालिब की करुणा को भी आत्मकरुणा कहा है। सीमा अग्रवाल की स्थिति यह नहीं है। उनके संवाद जैसा ऊपर कहा गया है पर्यवेक्षण आधारित ही प्रायः रहते हैं। वाचक की भूमिका अधिक रहती है।
सीमा अग्रवाल के गीतों का यह पक्ष अन्यत्र स्वतंत्र लेख की मांग करता है अतः फिलहाल इतना ही। 
अपने इन गीतों में वार्तालाप करते हुए सीमा अग्रवाल का रचनाकार एक प्रकार की आत्मीयता पैदा करता है जिसके कारण सरोकारों का सम्प्रेषण सहज हो जाता है। अनुभूति सहज रूप से सहअनुभूति हो जाती है। 
वे अपना होम वर्क अच्छी तरह से करतीं हैं खास तौर पर तब जब वह किसी वार्ता मेज पर होने जैसा वातावरण तैयार करतीं हैं। रचना के केंद्र में कोई विचार बिंदु होता है। यह यों ही कहीं से टपक पड़ा दिखाई नहीं देता क्योंकि सीमा अग्रवाल का रचनाकार चिन्तनधर्मा रचनाकार है। 'कालरिज' ने कहा है कि रचनाकार को दार्शनिक भी होना चाहिए। इस कसौटी पर वे खरी उतरतीं हैं। उनका विचार बिंदु कहीं आसमान से नहीं टपकता न वायवीय होता है और न ही किसी समाचार पत्र या टी.वी से उठाया हुआ। अपने आस-पास फैले पसरे वास्तविक जगत से वे अपनी विषय वस्तु के यथार्थ को प्राप्त करतीं हैं , सहेजती हैं, संवारतीं हैं और विचारपूर्वक सुसंगत तरीके से अपनी शैली में गीत में ढ़ालकर प्रस्तुत करतीं हैं। विचार का अर्थ यह नहीं कि भाव नहीं रहता। भाव और विचार की मिलौनी वे भली प्रकार संपादित करतीं हैं। इस अर्थ में निर्मित्ति उनकी रचना प्रक्रिया का हिस्सा है। कविता में निर्मित्ति एक तत्व है। मेरी समझ में वह रागात्मकता,संदर्भ , भाव और उद्देश्य का सही संश्लिटिकरण है। इसके अभाव में विचार नंगा खड़ा हो जाता है जैसे बहुत सी कविताओं में यथार्थ के नाम पर नंगा प्राकृतिक सच। हाँ कभी कभी सीमा अग्रवाल की कुछ रचनाओं में ऐसा लगता है कि जैसे विचार के गद्यात्मक वक्तव्य को ही पद्य में रख दिया हो। कहने का मतलब यह है कि स्टेटमेंटल हो जाती हैं।
सीमा अग्रवाल रचनाकार की हैसियत से अपनी रचनायात्रा पर सतत सुचारु रूप से अग्रसर हैं। अतः कहा जा सकता है सारी सम्भावनाएं शेष हैं और साहित्य जगत को, खासकर नवगीत को आशावान होना चाहिए।
समीक्षक
वेद शर्मा


परिचय
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परिचय
वेद प्रकाश शर्मा 'वेद'
1,जुलाई 1954
प्रकाशन 
1.आओ नीड़ बुनें
2.नाप रहा हूँ तापमान को
3.अक्षर की आँखों से
अनेक समवेत संकलनों में सहयोगी रचनाकार
सम्पर्क : एस .सी.1,शास्त्री नगर,
गाज़ियाबाद - 201002
सम्पर्क सूत्र: 981885565

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