मंगलवार, 6 जुलाई 2021

नवगीतकार राजा अवस्थी के नवगीत : प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

1.
ढूँढ़ते हैं डोर 
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झोंक पूरा जोर
खोद डाला पर्वतों को काट डाले वन
पथ पवन के प्रदूषित कर
की विषैली भोर।

दौड़ता सूरज निरन्तर
जिस सड़क पर बिन थके, वह
सड़क खोजी जा रही है
बुद्धि-कौशल प्रमाणित कह

उलटबाँसी, तन्त्र, आसन ,योग के हठ 
किस अबूझी यात्रा की
ढूँढ़ते हैं डोर।

कभी की बंजर धरा जो
पूछती बन आज उर्वर ;
कहाँ मुझको खौंदते खुर
कहाँ हैं वे विटप तरुवर;

'मरघुला' का चाक अब थम - सा गया है
कंकड़ों से भरी माटी
ही रही हर ओर।

भाड़ में झोंकी गई - सी
जिन्दगी पर भी भरोसा ;
वाट्सअप पर फेसबुक पर
खूब पाला और पोसा ;

आॅफिसों में कामचोरी  बुद्धि विलसे
उपजते कुछ प्रश्न उछले
सृजन पर हर ओर।


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2.
तापमय संताप 
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निरन्तर निर्लक्ष्य-से
पथ पर सदा चलता रहा।
मौसम विवश जलता रहा।

तापमय संताप के
कितने थपेड़े सह गया;
गाँव का जीवट रहा
हर हाल में थिर रह गया ;
परिश्रम था हाड़तोड़ू
उफ नहीं निकली कभी,
सृजनधर्मा सोच ले
संघर्ष में ढलता रहा।

घर बँटे, कुनबे घटे
आँगन सिमटकर खो गया ;
व्यक्ति केन्द्रित भाव भारी
स्वार्थ सबतर बो गया ;
अकेलापन भोगने को
हो रही अभिशप्त पीढ़ी,
प्रगतिकामी प्रेत
अंधा कर सतत् छलता रहा।

कैरियर के नाम दुनिया
खो रहे बच्चे मिले ;
आग से भीतर भरे
हमने रचे ये सिलसिले ;
जिस हिमालय के
इन्हें सपने दिये दम साधकर,
वह निरन्तर स्वयं के
आधार से गलता रहा।

एक मैराथन निरन्तर
मूल्यरोधी मार्ग पर ;
विश्वग्रामी कल्पना में
मूक-सा अनुभूति स्वर ;
एक बच्चा गीत - सा
तब भी  हमेशा हृदय में,
उछलता, किलकारियाँ
भरता हुआ पलता रहा।

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3.

   'यादों की बाहें'
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यादों की ताकतवर बाहें। 
रोक रही हैं जब-तब राहें। 


अनहोने का भी होना है 
खोया हुआ लगा सोना है 
अनुपलब्धि का अनुभव भारी 
चाहे-अनचाहे ढोना है 


एक लक्ष्य के हर राही को 
बहकाती हैं अनगिन चाहें।


जाने कैसे सपने लेकर 
गाँव-खेत को पिठिया देकर 
आकर शहर मजूर बन गया 
खुद की नजर झुकाये है सर 


मन अभिमानी पल-पल रोये 
मिल मालिक को रोज़ निबाहें  ।


कितनी आँखों की मुस्कानें
आँखों में वे भरी उड़ानें
खो जाने पर आईं लेकिन
मन संकल्पित हार न मानें


भरा विसंगतियों से हर पल
पा ही लेते फिर भी राहें।

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4.

'जीवन के फलसफे'
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जीवन के फलसफे पुराने
रद्दी के अखबार हुए।
जितनी मौज हवा में दिखती
कारोबार उधार हुए।


पहले आवारा फिर पिट्ठू
फिर भैये छुटभैये थे;
कुशल रहे नारेबाजी में
फटहे बाँस गवैये थे ;
मंचों ने अब भ्रम फैलाया
कहते हैं सत्कार हुए।


शब्दों की तासीर बहुत ही
तर्कभरी वे रखते हैं ;
बार - बार हामी भरवाते
सबका मूड परखते हैं ;
उनके उन्नतिशील कदम सब
जन के पेट प्रहार हुए।


नींव शिखर दीवारें गुम्बद
सिरजे तिनका - तिनका कर ;
नदियों की भी दिशा बदल दी
सारा खून पसीना कर ;
कल थे जहाँ वहीं अब भी हम
बाकी सब उस पार हुए।


एक सुरक्षित जगह बैंक भी
चली लूट के रस्ते पर ;
शिक्षालय बनियों के हत्थे
नजर लगी है बस्ते पर ;
साँसों के भी दाम माँगते
जो राजा इसबार हुए।


कल्प प्रकल्प शाख पंखुड़ियाँ
क्या - क्या और नहीं जाने ;
हुए उतारू बतलाने को
ताकत मुट्ठी के माने ;
रूप सियासी शाखाओं के
सब के सब तलवार हुए।


घर थे घर में दरवाजे थे
आना - जाना होता था ;
मुस्कानों का मुखड़ा प्रायः
आमंत्रण भी बोता था ;
अब बस्ती के सब दरवाजे
सजधजकर बाजार हुए।

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5.

जीने की आदत भारी है 
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जीने की आदत भारी है।
मजबूरियाँ बहुत मरने की,
पर जीने की लाचारी है।


निपट रहा दारू में गिरवर,
कामकाज के झांझर छप्पर,
घायल सर्विस सरकारी है।
जीने की आदत भारी है।


दलित नहीं, तो अपराधी है,
मेहनत की कीमत आधी है,
तेज उपेक्षा की आरी है।
जीने की आदत भारी है।


जो बोलेगा नक्सल होगा,
उसका भी मसला हल होगा,
अब जारी छापेमारी है।
जीने की आदत भारी है।


सच के स्रोत हुये पाखण्डी,
लेकर चले फूल की झण्डी,
भाँड़ों में मारामारी है।
जीने की आदत भारी है।


मँहगाई का भी ग्लैमर है,
जुमलों का संसार अमर है,
रोज बढ़त में बेकारी है।
जीने की आदत भारी है।


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6.
टूट गया फिर राजा जी 
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सम्मोहन जो रचा आपने
टूट गया फिर राजा जी।
गढ़िए कोई चकाचौंध का
झूठ नया फिर राजा जी।


सब्जबाग दिखलाये सौंपे
रेत भरे सारे पल - छिन ;
कठिन हुए हालात
आँधियाँ बढती रहीं खूब अनुदिन ;
नकली सौगातों का वह घट
फूट गया फिर राजा जी।


आजादी के सपने देकर
जीभ काटने के उपक्रम ;
कौड़ी बना रुपैया कीमत
आम आदमी की भी कम ;
उसको क्यों हर बार जहर का
घूँट नया फिर राजा जी।


चौकीदार देश के बनकर
सेवादार बने किसके ;
जो पूँजी के रक्षक - तक्षक
सोने के घर 'पर' जिसके ;
ताकतवर अपराधी नेता
छूट गया फिर राजा जी।


सागर मथे जनम भर जीभर
अमृत का घट भी निकला ;
षड़यन्त्रों के बीच फँस गया
हाथों में से जा फिसला ;
राहु बैठकर साथ समूचा
सूँट गया फिर राजा जी।


कठपुतलियाँ नहीं देती हैं
जगह असहमति के स्वर को ;
आमादा रहते भरने को
चिड़ियों के मन में डर को ;
जन-बंधन को रोज गाड़ते
खूँट नया फिर राजा जी।




राजा अवस्थी 
गाटरघाट रोड, आजाद चौक 
कटनी - 483501 (मध्यप्रदेश) 
9131675401 
Email - raja.awasthi52@gmail.com

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