।। भाषा के विकास का तिलिस्म।।
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भाषा के विकास का खेल किसी तिलिस्म में घुसने जैसा रोचक व रोमांचक है।
'भारतीय ज्ञानपीठ' अंग्रेज़ी में लिखता है--bhartiya jnanpeeth। इससे मुझे लगा कि हम तो 'ग्य' का उच्चारण करते हैं ,क्या वह गलत है? तुलसीदास ने भी लिखा है --प्रभु अग्या अपेलि स्रुति गाई। मतलब यह कि संयुक्ताक्षर 'ज्ञ' के दो उच्चारण प्रचलित हैं--'ग्य' व 'ज्य'। एक और भी उच्चारण है 'ज्+ञ'। इसमें संयुक्ताक्षर का उच्चारण आनुनासिक ध्वनि 'ञ' के साथ होता है.....इस उच्चारण भेद के कारण ही सम्भवतः इसे संयुक्ताक्षर की मान्यता मिली है। 'यज्ञ' को मैंने 'यज्य' के कुछ आनुनासिक रूप के साथ उच्चारण की कोशिश की पर यह मुश्किल है। पर, तमाम दूसरी चीज़ें देखकर मुझे लगता है कि यही सही है,आप स्वयं देखकर निष्कर्ष निकालें --
यज्ञ , यजन,जनेऊ [यज्ञोपवीत],जानकारी[ज्ञान],....इनसे यही पता लगता है कि 'ज्ञ' में 'ज'का अंतर्भाव हुआ है ...पर 'योग्य' को कभी 'योज्ञ' नहीं लिखा जाता, बल्कि तद्भव रूप 'जोग' है। ऐसे ही 'भाग्य' को 'भाज्ञ' नहीं लिखा जाता। इसका तद्भव रूप 'भाग' है। 'य' तो बहुत जगह 'ज' में बदलता है। योग-जोड़ यादव-जादोराम,यमुना-जमुना,योनि-जोनि-जून ,.......
एक मोबाइल ऐप 'ज्ञ' को 'ज् +ञ' से टंकित करने की व्यवस्था देता है, न कि 'ग् +य' से, सो यह ठीक है।
इसलिए नहीं, कि ऐप यह व्यवस्था बताता है।
तिलिस्म नं. 2 'क्ष' को लेकर है। ऐप व्यवस्था देता है ' क् +ष '; नकि 'क्+श'। सही पहली व्यवस्था ही है। इसको तिलिस्म की तरह शब्दों के लोकरूपों--तद्भव व देशज से समझने की कोशिश करें। प्राचीन लिपियों में 'ख' के स्थान पर 'ष' का ही प्रयोग हुआ ,ष व ख का अन्तस्संबंध बहुत लोग समझते हैं...वर्षा-बरखा, पुरुष=पुरुख-पुरखा, मानुष-मानुख, दृष्टि-दीखना,देखना,....इसी तरह देखें ---रक्षण=रखवाली, लक्ष्मण=लखमन=लखन=लखनलाल, क्षत्रिय=खत्री, लक्षण=लक्खन [लक्खन ठीक नहीं हैं], 'क्ष' का लोकरूपान्तरण 'च्छ' में भी होता है..... लक्ष्मी=लच्छमी ,लक्षण=लच्छन, क्षरण=छीजना,क्षत्र=छतरी,क्षोभ=छोभ , परीक्षा=परीच्छा [कछु न परीच्छा लीन्ह गुसाईं].....पर अपवाद भी हैं। 'कृष्ण' की जगह ''किखन, किछन '' कभी नहीं सुना, 'किशन' ज़रूर सुना, जिसका सीधा अर्थ है कि 'कृ' में जो 'ऋ' युक्त है, उसका उच्चारण 'इ' से सम्बन्धित है न कि 'उ' से . यद्यपि 'कृ' को कई जगह 'kru' करके भी बोलते हैं पर कभी 'कृष्ण' का अपभ्रंश या देशज रूप 'कुशन ' नहीं सुना ...... यद्यपि हर व्यंजन की अपनी पृथक सत्ता है पर ये एक दूसरे के लिए स्थान छोड़ना जानते हैं। यह भी एक विज्ञान ही है ...
पंकज परिमल
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