शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

प्रभु त्रिवेदी



चूल्हा-लकड़ी-रोटियाँ, धुआँ-भोंगली आग
माँ ने आँखें झोंककर, बाँट दिया अनुराग

एक ओर गूगल जले, एक ओर लोबान
एक बह्म को बाँटता, ऐ! मूरख नादान

उलटे पासे पड़ गए, कल तक थे अनुकूल
कितनी पीड़ा दे गई, ‘दशरथ’ की इक भूल

सच्चा सौदा है वही, जो दे ख़ुशी अपार
यूँ तो झूठों के सदा, फलते दिखे विचार

धन की सत्ता मोह ले, करवा दे दुष्कर्म
होने में निर्वस्त्र अब, कहाँ आ रही शर्म

पहने मंगल-सूत्र को, बचा रखे वह लाज
विधवा की निर्लज्जता, कहता लोक-समाज

झूठ कभी छुपता नहीं, दिल में रहता साँच
अगर छुपाया झूठ को, चटकेगा फिर काँच

मन को पढ़ने की कला, समझ लीजिए आप
घर बैठे ख़ुशियाँ मिलें, मिटें शोक- संताप

जीते जी पूछा नहीं, कभी न झाँका द्वार
मरते ही कहने लगे, हम भी हैं हक़दार

आँखें रोतीं बाप की, जीवन में दो बार
बेटा जब मुँह मोड़ता, बेटी छोड़े द्वार

माना आँखें थीं नहीं, हृदय कहाँ था पास
एक पिता की धृष्टता, बदल गई इतिहास

यद्यपि हो वामांगिनी, कहता यही समाज
दोनों अंगों पर मगर, करो नित्य ही राज

बेटी जैसा प्यार जब, मिले सास के पास
सारा सुख संसार का, उस घर करे निवास

कुछ दुख किस्मत ने दिये, कुछ मिल गये उधार
सुख बस चर्चा में रहा, जीवन भर निस्सार

पूजन-अर्चन-धर्म का, एक रसायन मान
पुण्य-भाव से है जुड़ा, रोटी का विज्ञान

मिलते हैं प्रारब्ध से, पैसा-पत्नी-पूत
व्यर्थ सभी अभ्यर्थना, पूजन-पाठ-भभूत

पद-पैसे के मोह ने, ऐसा फेंका जाल
धूनीवाले संत भी, फिसल गए तत्काल

उभय पक्ष की मित्रता, मिले सभी को नेक
चाहे हों दस-बीस पर, ख़ास मित्र हो एक

मीठे जल को पी रहा, रत्नाकर यह जान
खारेपन का हो कभी, नदियों से अवसान

दादा का बरगद मरा, पापाजी का नीम
नई सड़क से हो गई, पीढ़ी तीन यतीम

राम नहीं, पर राम-सम,गढ़ना अगर चरित्र |
फिर कोई वशिष्ठ बने, या फिर विश्वामित्र ||

तत्त्व-ज्ञान से हैं भरे,गीता-वेद-पुराण |
माटी में भी फूँककर , पैदा कर दे प्राण ||

जहाँ उच्च थी भावना , -ज्ञान रहा आदर्श |
वहाँ अर्थ से जुड़ गया,शिक्षण और विमर्श ||

शर्मिंदा तब हो गए, गुरुओं के सद्कार्य |
गए कोरवों के यहाँ , जब से द्रोणाचार्य ||

वृद्ध शब्द को भूलिये , रखिये याद वरिष्ठ |
ये अनुभव सम्पन्नता,यों ही नहीं प्रतिष्ठ ||

बूढ़ा - बुज़ुर्ग शब्द ये , करें कोष में बंद |
रचते रहिये नित्य ही,नई सुबह के छंद ||

दुश्मन जैसे लग रहे , मौसम के बदलाव |
शहर संक्रमण से भरा, गाँव भूख के घाव ||

जननी-जन्मभूमि यहीं, यहीं जाह्नवी मित्र |
जनक-जनार्दन भी यहीं,यहीं जकार सचित्र ||

नई पीढ़ियाँ सीख लें, झुकने के निहितार्थ |
झुकने से मिलते यहाँ, भैया सकल पदार्थ ||

चपल-चपल चपला करे,घन गरजे घनघोर |
प्रिये! आँजना आँख की, तभी कजीली कोर ||

दमक-दमककर दामिनी,हृदय करे भयभीत |
धरा-गगन की शुष्कता, सचमुच शब्दातीत ||

अश्रु सूख कर आँख में , -भोग रहे वैधव्य |
व्यर्थ-व्यर्थ लगने लगा,गाड़ी-कोठी-द्रव्य ||

जन्म-मृत्यु निश्चित यहाँ,व्यर्थ हमें आश्चर्य |
यही जीवनी शक्ति है, ----जग का नैरन्तर्य ||

लहर-लहर में गरल है, भूल-भूल अमरत्व |
काल खड़ा निर्लज्ज अब, भुला रहा देवत्व ||

रक्तवाहिनी में पिता, दौड़ रहे दिन- रात |
जीवित लगते है सदा, छायाप्रति अज्ञात ||

मोबाइल में हैं फँसे , --कोठी और कुटीर |
उसमें ही भगवान हैं, आओ भक्त कबीर ||

कुरता-धोती-चप्पलें,चश्मा-क़लम-दवात |
पिता छोड़कर चल दिए , यादों की बारात ||

ठेले पर पुस्तक दिखीं,रोका गया कबाड़ |
सोचा रोयें सड़क पर , --मारें ख़ूब दहाड़ ||

रद्दी में 'बच्चन' पड़े,सिसके स्वयं 'प्रसाद' |
'महाप्राण ' के छंद का, ठेले पर अनुवाद ||

फटे पृष्ठ मस्तक धरे, पहले किया प्रणाम |
क्षमा याचना की बहुत, मुँख बोला हे राम ||

सदी छीनने को खड़ी, पुस्तक का उपहार |
जिन्हें सहेजा प्यार से, हमने सौ-सौ बार || 41

-प्रभु त्रिवेदी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें