शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

समकालीन दोहा दूसरे पड़ाव की : नौवीं कड़ी दोहाकार : हरेराम समीप प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

दूसरा पड़ाव 
नौवीं कड़ी

                               समकालीन दोहा
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                 दूसरे पड़ाव की :  नौवीं कड़ी
                 दोहाकार    :   हरेराम समीप
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                    यह महज संयोग ही है कि दूसरे पड़ाव की नौवीं कड़ी के रूप में यह किसी दोहाकार पर मेरी तरफ से दूसरी प्रस्तुति है। यहाँ कुछ मित्र सवाल उठा सकते हैं कि, आठवीं कड़ी के बाद फिर नौवीं कड़ी ! यहाँ तक तो ठीक परन्तु फिर वही दोहाकार !
          क्या कोई और दोहाकार नहीं मिला ? परन्तु जब- जब  मेरा अंतर मन इन दोहों को पढ़ने बैठा तो में इन दोहों की नवता में दोहों की तरलता में प्रयोग शीलता की सरलता में, तल स्पर्शी चाह में,डूबता ही चला गया।
          कहन के स्तर पर, मेरी नजर से अब तक इस स्तर के दोहे कम ही गुजरे हैं। ऐसे दोहे रचने के लिए दोहा के इस आधुनिक कबीर को युगीन असंगतियों ने पता नहीं कितनी कितनी बार तोड़ा होगा।
             कहते हैं सृजन की भी अपनी एक दुनिया होती है उसे छोड़े बिना आप दूसरी दुनिया नहीं रच सकते आइए पढ़ते हैं समकालीन दोहाकार हरेराम समीप के मूल्यपरक और आदर्श समकालीन दोहे।

 प्रस्तुति और चयन
    वागर्थ
संपादक मण्डल
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समापन क़िस्त भाग-दो
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हरेराम समीप के समकालीन दोहे 
1
गर्व करें किस पर यहाँ, किस पर करें विमर्श 
आधा है यह इंडिया,  आधा भारतवर्ष
2
जनता इस जनतंत्र में, बेबस और अनाथ
छोड़ दिया है जिल्द ने, अब किताब का साथ
3
देखा तानाशाह ने, ज्यों ही आँख तरेर 
लगा तख्त के सामने, जिव्हाओं का ढेर
4
क्या बिगाड़ लोगे यहाँ, लोकतंत्र का आप
शिक्षामंत्री है अगर, एक अँगूठा-छाप
5
व्यापारी करने लगे, राजनीति से मेल
हरे पेड़ पर ही चढ़े, अमरबेल की बेल
6
दुनिया में सबसे अलग है अपनी तस्वीर 
यहाँ गरीबों के लिए लड़ते मिले अमीर
7
ये आए या वो गए, सबने चूसा खून 
कौन गड़रिया छोड़ता, किसी भेड़ पर ऊन
8
राजनीति का इसलिए, बढ़ता गया महत्त्व 
कुर्सी पाते ही मिले,  नेता  को  देवत्व 
9
लगता है इस वक्त के, नहीं इरादे नेक
नदी सुखाने के लिए, हुए किनारे एक
10
बस्ती में दो वर्ग हैं, जालिम और मजलूम
इक जंगल का शेर है, एक हिरन मासूम
11
बड़ा विसंगत वक्त यह, सोच हृदय से हीन
हँसते हुए फ़रेब हैं, रोते हुए यक़ीन
12
पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसीको साथ 
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ
13
शब्दों का कुछ इस कदर, आज हुआ अपमान
नागफनी फैली जहाँ, उसे कहें उद्यान
14
बचपन में जिसकी कलम,वक्त ले गया छीन 
बालपेन वह बेचता, बस में ‘दस के तीन’ 
15
दास-प्रथा अब भी यहाँ, धनिकों का है शौक़
नगर-नगर में बन गए, अब तो ‘लेबर चौक’
16
फिसल हाथ से क्या गिरी, सम्बंधों की प्लेट
पूरी उम्र समीप जी, किरचें रहे समेट
17
यूँ अपारदर्शी हुआ, अपने मन का काँच
बाहर से संभव नहीं, अब भीतर की जाँच
18
सम्बंधों का दायरा, आज हुआ यूँ तंग
बेटा राजी ही नहीं, माँ को रखने संग
19
उस बुढ़िया माँ पर अरे, कुछ तो कर ले गौर
तुझे खिलाती जो रही, फूँक-फूँक कर कौर
20
आया है सय्याद फिर, चलने शातिर चाल
एक हाथ दाने रखे, एक हाथ में जाल
21
भोजन भी जिस देश में, मिले नहीं भरपेट
वहाँ लग्जरी कार के, रोज़ बढ़ रहे रेट
22
फैल गई जब भुखमरी, बना ‘भूख-आयोग’
उसमें शामिल हो गए, सभी अघाए लोग
23
जाने कैसी चाह ये जाने कैसी खोज
एक छाँव की आस में चलूँ धूप में रोज
24
जाने किस दिन माँग ले, वो अपना प्रतिदान
बर्फ शिखर पर दोस्तो, सागर का सामान
25
धरती तेरी गाय है, तू मत इसे निचोड़
कुछ तो बछड़े के लिए, दूध थनों में छोड़
26
मरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप 
पेड़ गिरा तब हो सकी ऊंचाई की नाप
27
उससे बढ़ कर कौन है, आज यहाँ धनवान
जिसने जीवन भर किया,पल-पल ख़ुद को दान 
28
तेरे पैसों से ब्रदर, माँ को अब आराम
आई बटुआचोर की, इक चिट्ठी गुमनाम
29
तय कर पाये किस तरह‚ तू राहें दुश्वार
लिए सफर के वास्ते‚  तूने पांव उधार
30
देखो तो शालीनता, ये लिहाज-सम्मान
चिट्ठी में इक दुष्ट को, लिखता हूँ ‘श्रीमान’

31
जी चाहा तो चख लिया, वर्ना है बेकार
कविता अब तो प्लेट में, रक्खा हुआ अचार
32
संशय की मरूभूमि में बोओ तो विश्वास
बारिश लेकर आएगा चाहत का आकाश
33
आओ हम उजियार दें, ये धरती ये व्योम
तुम बन जाओ वर्तिका, मैं बन जाऊं मोम
34
फिर निराश मन में जगी, नवजीवनकी आस
चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लाई घास
 35
खाली माचिस जोड़ कर एक बनाऊं रेल 
बच्चे सा हर रोज़ मैं उसको रहा धकेल
36
तू भी यदि कविता हवा, हो जाएगी मौन
फिर खुशबू के सफर पर, साथ चलेगा कौन
37
जो जैसा जब भी मिला, लिया उसी को संग
यारो मेरे प्यार का, पानी जैसा रंग
38
तुमको हमसे प्यार है, हमको तुमसे प्यार 
कहने में इस बात को, उम्र लगा दी यार
39
बिटिया को करती विदा, माँ ज्यों नेह समेत 
नदिया सिसके देखकर, ट्रक में जाती रेत
40
तुझे देखकर आ गया, मुझे बहुत कुछ याद
गहनों का बक्शा खुला, बड़े दिनों के बाद
41
जा बन जा विद्रोहिणी, और न रह मासूम
माँ ने बेटी से कहा, उसका माथा चूम
42
आज अचानक कर गया बेटा बचपन पार
निकली उसकी जेब से चिटठी खुशबूदार
43
अब भी अपना देश है, डर का बड़ा मरीज़
यहाँ दवाओं से अधिक, बिकते हैं ताबीज़
44
चाहे काटो डालियाँ, या लो पत्ते छीन
पेड़ रहेगा पेड़ यदि, छोड़े नहीं जमीन
45
संघर्षों से भागना, जीवन की तौहीन
सागर से कब भागती, तूफ़ानों में मीन

46
उसके हिस्से की उसे, जो मिल जाये धूप 
पौधा है जी जाएगा, खिल जायेगा रूप
47
बरसों अनजाना रहा, मैं यारों के बीच
‘पंफ्लैट’ ज्यों अनपढ़ा, अख़बारों के बीच
48
चलो एक चिट्ठी लिखें,आज वक्त के नाम
पूछें दुख का सिलसिला, होगा कहाँ तमाम

हरेराम समीप
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2 टिप्‍पणियां:

  1. दोहे सुंदर आपके, सच के सदा 'समीप'।
    अंधकार में जल रहे, ज्यों ज्ञान के दीप।।

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  2. पटल पर एक साथ चार दर्जन दोहे परोस कर भाई मनोज मधुर जी ने छप्पन भोग का आनंद दिला ही दिया। हर रस का व्यंजन थाली की शोभा बढ़ा रहा है,ये अलग बात है कि जिसकी जैसी रुचि और मानसिक आवश्यकता होती है उसे वहीं रुचता है। परन्तु जब षट् रस व्यंजनों से आपूरित सुसज्जित थाली हो तो आधी भूख तो देखकर ही मिट जाती है और शेष स्वाद चखने के साथ। आदरणीय समीप जी का' सामीप्य' सदैव सुखकर रहा है जिसके निमित्त बनते हैं मधुर जी। गूंगे के गुड़ जैसी अनुभूति अनिर्वचनीय है। सामयिक सन्दर्भ हों या पारिवारिक स्नेहधारा के रूप, राजनैतिक कुचक्रों के दलदल हों या प्रकृति चित्रण के मनोहारी दृश्य सभी शब्दांकन, अविस्मरणीय हैं। मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा-उसके हिस्से की उसे जो मिल जाए धूप। पौधा है जी जायेगा,खिल जायेगा रूप। पटल के संपादक श्रेष्ठ को साधुवाद, सार्थक प्रयास है।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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