मंगलवार, 6 जुलाई 2021

वरिष्ठ साहित्यकार मक्खन मुरादाबादी जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ


मेरा घर आनन्द महल है : मक्खन मुरादाबादी
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वागर्थ प्रस्तुत करता है वरिष्ठ कवि मक्खन मुरादाबादी जी के नवगीत 
      हममें से बहुत से लोग उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद को पीतल नगरी के नाम से जानते हैं परन्तु पड़ताल करने पर वहाँ खरा सोना भी मिल जाता है। अब तक मक्खन मुरादाबादी जी को व्यंग्यकार के रूप में जाना जाता था  खोजी प्रवृति के समूह वागर्थ की गहन पड़ताल और प्रस्तुति के बाद आप उन्हें नवगीतकार कहने से शायद ही रोक सकें! उनके नवगीत चिंतन परक हैं और सोने के समान ही खरे हैं। मक्खन मुरादाबादी जी नवगीत शब्द का प्रयोग खुल कर नहीं करते उनका मानना है कि अब तक नवगीत के नाम पर नवगीतकार थोपी हुई विचारधारा को पोषित करते और पढ़ते आ रहे हैं। बकौल मुरादाबादी जी 'मेरे प्रस्तुत नवगीतों में जनपक्षधतरा का जो स्वर उभरा उसका सीधा सम्बन्ध शुद्ध भारतीय सनातन मूल्यों से जुड़ता है।'
मक्खन जी नवगीत के फॉर्मेट में शुद्ध गीत के दर्शन करना चाहते हैं तुक और छन्द की जरा सी चूक कवि को असहज और विचलित कर देती है।
यद्धपि आप लोग पूरी प्रस्तुति मेरी पसन्द में पढ़ रहे हैं एक बात और जो आप सब के संज्ञान में लाना चाहता हूँ वह यह है कि नवगीत के महादेव मक्खन मुरादाबादी जी के चेहरे पर बिखरी मोहक मुस्कान की छटा और इनके हँसने का अंदाज़ बड़ा ही कातिलाना है।
फ़ोटो देखकर एक फिल्मी गीत की जो पँक्ति मेरे जेहन में कौंधी वह भी आपसे शेयर करने का मन है
           " तेरे नैना बड़े क़ातिल मार ही डालेंगे !"
बहुत बधाइयाँ एक बार फ़ोटो पर भी गौर करिएगा फिर हँसने के अंदाज़ पर भी !

            आइए पढ़ते हैं नवगीतकार मक्खन मुरादाबादी जी के नवगीत और नवगीत पर उनका विचारपक्ष
प्रस्तुति
वागर्थ 
सम्पादक मण्डल
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गीत-नवगीत: मेरी दृष्टि में
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      मेरे भीतर गीत को लेकर उधेड़बुन निरंतर रही है। मेरे साहित्यिक मित्र डॉ.अजय अनुपम के साथ गीत चर्चाओं से यह निष्कर्ष निकला-- ' जो गाया गया है,वही गीत है। इस -  'जो गाया गया है' - को समझते रहिए और गीत को पाते रहिए।
        कीड़ा मुझमें फिर भी कुलबुलाता ही रहा। मेरे भीतर प्रश्न उठा कि वह क्या है, जो सबसे पहले गाया गया है? उत्तर भी जैसे होंठों पर ही रखा था, बाहर आ गया कि सबसे पहले तो यह सृष्टि ही गायी गई है। अर्थात, मुझे लगता है कि सृष्टि ही संसार का पहला गीत है। प्रश्न पर प्रश्न फिर उत्पन्न हुआ कि सृष्टि गायी क्यों गई? उत्तर इसका भी अपने आप ही आकर मुझमें बैठ गया कि- 'प्रेम के लिए।'
       यह सब मेरे भीतर पक ही रहा था कि इसी बीच एक गोष्ठी में मुझे गीत पर कुछ बोलने के
लिए कह दिया गया। गीत साधकों के मध्य गीत पर क्या बोला जाय ? मैं इस असमंजस में था , तभी मेरे होंठों पर एक पंक्ति अपने आप आकर बोली कि बोल- 'प्रेम को, प्रेम के लिए प्रेम से गाया गया ही गीत  है।' इस प्रेम को जिसने जितना जाना-समझा ,उतनी ही उसकी गीत यात्रा है। मेरे भीतर फिर एक नई बात गूंजी कि जिस लोकतंत्र को हम जी रहे हैं,वह हमारे पास कहीं से आयातित नहीं है अपितु
 हमारी गीत धारा से ही वह हमारे तंत्र में आकर विकसित हुआ है, गीत ही लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी है। गीत अपनी सनातन यात्रा तय करता हुआ अपने नव गुंजार से परंपरायी काया को जिस नव परिधान में सामने लाया, वही नवगीत हुआ।
     निरंतर अविकल रूप से होते रह कर दिखने वाले और न दिखने वाले परिवर्तन समय के  साथ लगे ही रहते हैं। साहित्य भी आदि से अब तक इन्हीं परिवर्तनों से होता हुआ अपनी यात्रा पर है। समय के साथ-साथ समय को गाने के लिए ही गीत रूप की नहीं अपितु गीत स्वरूप की नये शिल्प में कथ्य,बिंब और भाषा की नवता से मन भाई सज्जा ही नवगीत है।इसकी मांग है कि इसमें जो आम और खास के बीच की खाई है,उसे पाटा जाय क्योंकि समय किसी एक पर केन्द्रित होकर नहीं घूमता और साहित्य का कार्य भी दूरियां बढ़ाना नहीं अपितु नज़दीकियां गूंथने वाला धागा होना है। इसके बिना मेरी दृष्टि में नवगीत अधूरा है।

गीत
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      • डॉ. मक्खन मुरादाबादी

एक-------------------------
माल नहीं हम औने-पौने
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माल नहीं हम औने-पौने
लगी-उठाई फड़ के।
पेड़ पुरातन सभ्य समाजी
नस्से देखो जड़ के।।

इन साँसों में बसी न हिंसा
मुनिजन इनमें रहते।
धड़कन और शिराओं में बस
वेद-मंत्र ही बहते।।
पावन शब्द-दूत ही भेजे
जब भी दुश्मन कड़के।

रौंदी नहीं सभ्यता कोई
सदा उद्धरण बोये।
जब-जब भी मानवता सिसकी
परवत हमने ढोये।।
आहत धड़कन कहीं मिली तो
हम भी भीतर फड़के।

जुल्मों से भी आँख मिलाकर
नहीं आँख है मींची।
संस्कृतियों के गले न काटे
मुरझी थिरकन सींची।।
बीन-बान कर सदा पिरोये
मोती बिखरी लड़ के।

कभी व्यवस्था करी न बंधक
कभी न उल्लू साधे।
लोकतंत्र की निर्मलता के
बने नहीं हम बाधे।।
छाया देते सड़ी तपन को
ठहरे वंशज बड़ के।

दो-------------------------

ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
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ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
साल, साल में घर आती हैं।

नहीं एक का, साझे का है
छह बहनों का पुस्तैनी घर।
जो भी इसमें रहती आई
वह, देखी गई अकेली पर।।
रहन-सहन इस ढब का हो तो
शंकाएँ घर कर जाती हैं।

बतलाए जाते हैं, इनके
और कहीं भी ठौर-ठिकाने।
चली वहीं जाती हैं क्रम से
अपना-अपना अर्थ कमाने।।
कमा-कमाकर गर्मी, ठिठुरन
और कमा जलधर लाती हैं।

जाती एक दूसरी लौटे
निज मान सुरक्षित रखने को।
घर की बात बना रक्खी है
आते जिसको सब लखने को।।
जोड़-जमाकर जी की ठंडक
हँसने को,पतझर लाती हैं।

तीन-------------------------

ठहर सतह पर रुक मत जाना
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ठहर सतह पर रुक मत जाना
मन से मन को छूना।

भीतर-भीतर बजती रहती
कोई पायल मुझमें।
प्रेम-परिंदा घर कर बैठा
होकर घायल मुझमें।।
परस भाव से अपनेपन के
पन से पन को छूना।

अंतर्मन में चाह उमगना
दुविधा भर जाता है।
कुछ-कुछ जी उठता है भीतर
कुछ-कुछ मर जाता है।।
आगा-पीछा सोच समझकर
तन से तन को छूना।

घने अभावों में मुट्ठी भर
भावों का मिल जाना।
चिथड़े-चिथड़े पहरन के ज्यों
दो कपड़े सिल जाना।।
उल्लासों के मेले-छड़ियाँ
कन से कन को छूना।

चार-------------------------

ऋतुओं ने डाँट दिए मौसम
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मौसम जब मनचले हुए तो
डाँट दिए ऋतुओं ने मौसम।

ड्योढ़ी-ड्योढ़ी यौवन आहट
जात उमंगित न्यारी-न्यारी।
हाव-भाव में भरी चुलबुली
मिसर उठी पतियाती क्यारी।।
सूँघ महकते संवादों को
साँट दिए ऋतुओं ने मौसम।

उमड़-घुमड़ कर रस आया तो
रसने अधर,अधर को आए।
कातर-कातर,सहमे-सहमे
नीचे पड़ कर नयन लजाए।।
सोच-समझकर इस भाषा को
चाँट दिए ऋतुओं ने मौसम।

मनमौजी मनमाने पंछी
बहुत मनाए, पर कब माने।
चुपके-चुपके देख-भाल कर
चुगने लगे प्रेम के दाने।।
विपरीती परिणाम दिखे तो
फाँट दिए ऋतुओं ने मौसम।

पाँच------------------------

मेरा घर आनन्द महल है
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आस पास में इसीलिए तो
रहती चहल-पहल है।
पीड़ाओं को लगता मेरा
घर, आनन्द महल है।।

मिलता कब है लाचारी को
सम्मान जनक आसन।
भोर हुए से दिन ढलने तक
करती चौका बासन।।
मेरे घर में इनके ही तो
मन का सुखद महल है।

घर से निकलूँ तो मिल जाती
भिखमंगी मजबूरी।
धर्मपरायण मर्म शास्त्र भी
चलें बनाकर दूरी।।
मेरे दर पर इन दुखियों की
होती रही टहल है।

थक हारी पड़ जातीं कुछ तो
फुटपाथी बिस्तर पर।
तम को गाने लग जातीं फिर
अपना सगा समझकर।।
इनकी भूकंपी साँसों की
मुझ तक रही दहल है।

छह-------------------------

खेत जोत कर जब आते थे
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खेत जोत कर जब आते थे
थककर पिता हमारे।
कहते! बैलों को लेजाकर
पानी जरा दिखाना।
हरा मिलाकर न्यार डालना
रातब खूब मिलाना।।
बलिहारी थे, उस जोड़ी पर
हलधर पिता हमारे।

स्वर से लेकर वर्णों तक के
जो भी पाठ पढ़ाए।
इस जीवन में उत्कर्षों तक
ले, जो हमको आए।।
परम शास्त्र के मंदिर जैसे
गुरुवर पिता हमारे।

इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता।
इसपर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता।।
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर! पिता हमारे।

सात------------------------

काम बोलता है
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शोर मचा है! सबका
काम बोलता है।

सच का पता न पाया
पूछ-पूछ कर हारे।
किस मुँह से बतलाएँ
जो, उसके हत्यारे।।
पर, मदिरालय में कुछ
जाम बोलता है।

चुप रहती है कुर्सी
उस पर बैठा भी चुप।
रेंग रही है फाइल
खेल-खेलकर लुकछुप।।
आगे आकर केवल
दाम बोलता है।

सुस्ती में दिन सारे
ताल ठोकती रातें।
छंद विफल हो बैठे
पास हो गईं बातें।।
जिस पर होवे, उसका
राम बोलता है।

रुष्ट देवता इतने
सुनती नहीं देवियाँ।
घाटे पर घाटा है
उस पर नई लेवियाँ।।
लिखा मुकद्दर ऐसा
धाम बोलता है।

आठ-----------------------

पीले पत्ते रड़क लिए
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नव का स्वागत करते-करते
पीले पत्ते रड़क लिए।

खींच हमें ले जाता बरबस
मधुशाला का अपनापन।
वहाँ बैठकर कलुषित में भी
दिख जाता है उजलापन।।
झूठे सच्च बोलने लगते
घूँट तनिक जो कड़क लिए।

जितना सोचो, उतना दुष्कर
हवा महल के घर जाना।
गुनी-धुनी भी सीख न पाए
खूब तैरकर तिर पाना।।
बटिया-रस्ते थक हारें तो
चल पड़ती है सड़क लिए।

अच्छे-अच्छे सपने देखे
और दिखाए औरौं को।
पके फलों का सदा टपकना
भाग्य मिला है बौरों को।।
जितनी साँसें थीं, दिल उतने
रह सीने में धड़क लिए।

नौ--------------------------

फुदक रही हैं खीलें
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गिद्ध और सब चीलें
लगी हुई हैं, लाशें
गिर जायें तो छीलें।

प्रोपेगैंडा के सब
अक्षर लगे चीखने।
पास हमारे आओ
हमसे कला सीखने।।
लूट घरों को,उनपर
लगा रहे खुद सीलें।

गाँव-गाँव अब भुरजी
भाड़ झोंक हर्षाए।
आये जो भुनवाने
सबने उधम मचाए।।
जली-भुनी जितनी भी
फुदक रही हैं खीलें।

चढ़ मंचों पर गरजें
भटिये इधर-उधर के।
मूषक मक़सद पूरे
गन्ने कुतर-कुतर के।।
भेड़ भेड़िए खाएँ
हुई पड़ी हैं डीलें।

अगुआ हलधर सारे
लगे देखने धन्धे।
चौपट फसल करा दी
यूज़ हो गए कंधे।।
लुटिया भरी डुबाकर
अब गंगाजल पीलें।

दस------------------------

चलो! एक हम भी होलें
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रोग-व्याधियों के कुनबे
एक हो गए मिलकर।
चलो! एक हम भी होलें
फटा-पुराना सिलकर।।

पाँचों उंगली अलग-अलग
सिर्फ विवशता जीतीं।
मिल बैठैं तो मिली जुली
सार शक्तियाँ पीतीं।।
सीख ग़लतियों से मिलती
दर्द दुखों में बिल कर।

दुरुपयोग शक्तियाँ जियें
तो चिंता हो पुर को।
भस्मासुर की अतियाँ ही
डहतीं भस्मासुर को।।
एक हुआ था, लेकिन सच
देवलोक भी हिलकर।

विविध धर्म भाषाएँ मिल
मानव मर्म बचाएँ।
महल, मड़ैया, घेर सभी
संजीवन हो जाएँ।।
राम हुए ज्यों पुरुषोत्तम
मर्यादा में खिलकर।

ग्यारह-----------------------

डर बैठाते हैं
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गरज-गरज कर काले बादल
डर बैठाते हैं।
ज़िद पर उतर हवा आए तो
दौड़ लगाते हैं।।

ख़बर बुरी है! पर, जीने को
हरगिज़ जीना है।
सुख-दुख जीवन के साजिंदे
समय हसीना है।।
दिवस-रात ही विषम चक्र में
शुभ ले आते हैं।

भाग्य बुरा है तो मिल-जुलकर
उसे सँवारेंगे।
पास-दूर के सब ही अपने
उन्हें पुकारेंगे।।
निष्ठाओं के दम पर ही, घर
भगवन् आते हैं।

विपदाओं का गुण ही सबको
दुख पहुँचाना है।
हमने सीखा खुद को, कैसे
पार लगाना है।।
पंख खुलें तो उड़ धरती का
अम्बर छाते हैं।

परिचय

।संक्षिप्त परिचय-------------
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कवि नाम : मक्खन मुरादाबादी
नाम: कारेन्द्र देव त्यागी
जन्म: ग्राम ततारपुर रोड
जनपद मुरादाबाद की तत्कालीन तहसील,सम्भल
वर्तमान में जनपद सम्भल , उ.प्र. में स्थित।
जन्म तिथि:
वास्तविक:12 फरवरी 1951
शैक्षिक: 10 नवंबर 1951
शिक्षा: पी-एच.डी. (हिन्दी)

 प्राप्तियां
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एक : सन् 1971 से अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों में आज तक सक्रिय भागीदारी।
दो : दूरदर्शन के अधिकतर केन्द्रों द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि- सम्मेलनों में भागीदारी।
तीन : आकाशवाणी रामपुर से कविताओं, वार्ताओं और परिचर्चाओं का नियमित प्रसारण तथा आयोजित अ.भा.कवि-सम्मेलनों में भागीदारी और आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों में भागीदारी
चार : देश की प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित ।
पांच : हास्य-व्यंग्य कविता के
प्रतिष्ठित काव्य-संग्रहों में कविताएं समाहित तथा हास्य-व्यंग्य कविता पर हुए दर्जन भर शोध ग्रन्थों में मूल्यांकन।
संपादन :                          एक : हास-परिहास पत्रिका- हुल्लड़ मुरादाबादी-
मक्खन मुरादाबादी।
दो : सन् 1979 से 1993 तक रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली के एम. ए  (प्र.व.) हिन्दी के पाठ्यक्रम में समाहित निबंध संग्रह ' निबंध लालित्य- प्रो. महेन्द्र प्रताप-
कारेन्द्र देव त्यागी।
तीन : ज़िला साक्षरता अभियान, मुरादाबाद की पत्रिका ' अक्षर ज्योति ' -
माहेश्वर तिवारी-मक्खन मुरादाबादी।
सदस्य :
एक : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ-एक कार्यकाल।
दो: सदस्य सलाहकार समिति आकाशवाणी रामपुर- तीन
कार्यकाल।
तीन : जनपद मुरादाबाद के साक्षरता अभियान  कार्यकारिणी का संस्थापक सदस्य तथा ज़िला कृषि, विकास एवम् सांस्कृतिक प्रदर्शनी समिति, मुरादाबाद का संस्थापक सदस्य।
सम्मान एवं पुरस्कार:
युवा प्रतिष्ठान उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा सन् मिले सन्
1986 में  " राष्ट्रीय युवा
पुरस्कार- 1986 " से प्रारंभ हुई इस श्रृंखला को लिखने में कई पन्ने भरने की आवश्यकता मैं नहीं समझता।
संप्रति :
महामंत्री ' सवेरा ' हिन्दी साहित्य और उर्दू अदब की संस्था, मुरादाबाद और संयुक्त निदेशक राष्ट्रीय शिक्षा समिति उत्तर प्रदेश जैसे दायित्वों के निर्वहन के साथ स्वतंत्र लेखन तथा शोध कार्य।
साहित्यिक प्रयास :
हास्य-व्यंग्य कविता,लेख, निबंध,समीक्षा,संस्मरण,दोहा, कहानी , गीत आदि जो अपने आप उतर आए।
प्रकाशित:
कड़वाहट मीठी सी (व्यंग्य-कविताएं )
शेष कृतियां प्रकाशन की राह पर।

संपर्क :
झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद
पिनकोड: 244001
मोबाइल: 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

  1. पीतल की नगरी में सोना और वह भी खरा सोना हो तो क्या कहने! और फिर नाम भी अद्भुत_ डॉ मख्खन मुरादाबादी, सोने में सुहागा वाली बात है, क्योंकि मख्खन की यह विशेषता होती है कि उसे काफी यत्नपूर्वक किये गये श्रम के उपरान्त ही पाया जाता है। तथा उसका वैशिष्ट्य ये है कि वह तनिक सी आंच पर ही पिघल जाता है। तो आज के गीत व गीतकार इन्ही गुणों से भरपूर हैं। तब ही तो पहला गीत ही उद् घोषणा कर डालता है-- माल नहीं हम औने पौने लगी उठाई फड़ के।और इस बहाने कवि संपूर्ण नवगीत जगत को सहजता से अपनी महत्ता प्रतिपादित कर देता है। उनके गीतों में परिलक्षित गरिमा,आदर्श, लोक-मंगल की भावना युगीन चेतना के प्रति समर्पण प्रणम्य है। व्यंजना शब्दशक्ति युक्त अभिव्यक्ति हर उस पाठक को सीधे सीधे गीतों की आत्मा से जोड़ कर रस का प्लावन कर देती है,जो गीत का रसिक है। गीतकार जिस जीवन को जीता है उसकी अनुभूति को ही अभिव्यंजित करता है। शब्दों का चयन,छंदो का पल्लवन और भावनाओं का प्रकटीकरण,पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहा है। सार्थक सृजनधर्मी कलम को नमन करता हूं, और आदरणीय डॉ मख्खन मुरादाबादी जी के शतायु होने की कामना करता हूं, जहां तक मुस्कराते चेहरे का प्रश्न है तो वह लोकरंजन तत्व का ही उपादान है, जो संदेश देरहा है सदा मुस्कराते रहो, दुःख में भी और सुख में भी। अनुज मनोज मधुर जी को सादर अभिवादन।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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  2. मैंने तो आज ही देखा। आपका बहुत बहुत आभार और धन्यवाद, मेरे लिए ऊर्जावान टिप्पणी के लिए। नमस्कार।

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