सोमवार, 5 जुलाई 2021

यश मालवीय की कृति समीक्षा 'काशी नहीं जुलाहे की' परख कवि ओम निश्चल प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

काशी नही जुलाहे की। यश मालवीय 
।।ओम निश्‍चल ।। 

गीत का जब भी जिक्र होता है, मुझे विनोद श्रीवास्‍तव की इस कसौटी की याद हो आती है: 'गीत हमेशा ही होता है/ सुधि की भोर सॉंझ की रचना।' मैं सोचता हूँ उन्‍होंने 'हमेशा' ही क्‍यों कहा। गीत में सुधि के भोर जैसा नास्‍टेल्‍जिया तो हो सकता है। उसकी नाजुक मिजाजी के तो क्‍या ही कहने! पर मुझे लगता है 'हमेशा' कहना जरा गीत के मिजाज को लेकर एक स्‍थायी लक्ष्‍मण रेखा खींचने जैसा है। गीत-नवगीत के तेवर इधर बहुत बदले हैं। उसमें अपने समय को पढ़ने का सलीका प्रखर हुआ है। यह अलग बात है कि अच्छे गीतों की कलम आजकल बहुधा कम ही दीख पड़ती है।  

तथापि इधर यश मालवीय के ताज़ा गीत फिर पढ़ने को मिले उनके नए संग्रह 'काशी नहीं जुलाहे की' के बहाने। साहित्‍य भंडार से शीघ्र ही छपने वाले इस संग्रह का आवरण अचिंत्‍य मालवीय ने बनाया है। शीर्षक के दीप्‍त स्‍वाभिमान को आवरण की सज्‍जा में पिरोते हुए अचिंत्‍य ने जैसे जुलाहे और रचनाकार के करघे को झीने और भीने भाव के साथ एकीकृत कर दिया है। उनके पिछले संग्रह 'वक्‍त का मैं लिपिक' का भी आकल्‍पन अचिंत्‍य ने किया था जो आवरण की गतानुगतिकता में नवाचार की सेंध लगाने जैसा था। 'काशी नहीं जुलाहे की' के गीत भी हमारे समय की तल्‍खियों से बने हैं। यश मालवीय जोखिम उठाने वाले कवि हैं। वे गीतों के गमले में बेला और चमेली ही नहीं, कैक्‍टस उगाने वाले कवियों में हैं --- बिल्‍कुल अपने पिता उमाकांत मालवीय जैसे जिन्‍होंने 'मेंहदी और महावर' व 'एक चावल नेंह रींधा'  जैसे गीत दिए तो 'सुबह रक्‍त पलाश की' जैसे नवगीत भी।  

उत्‍तरोत्‍तर पेचीदा होते समय में गीत लिखना कितना कठिन हो चला है यह आज के गीत के सतत काव्‍याभ्‍यासियों को देख कर महसूस होता है। कभी नई कविता के कथ्‍य और अंतर्वस्‍तु की व्‍यंजनाओं के कारण गीत से वह दुराव न था जो आज कविता में दीखता है। शायद इसकी वजह यही हो कि गीत अपने उत्‍तरदायित्‍व से विमुख होते चले गए। वे कहीं तुकबंदियों में खो गए, कहीं उनके संयम और स्‍थापत्‍य में बिखराव सा आता गया।
 
उमाकांत मालवीय की लीक पर चलने वाले यश मालवीय के नए संग्रह काशी नहीं जुलाहे की के गीत पढ़ते हुए यह अहसास दृढ़तर होता है कि नई कविता से विलग होकर नए गीतों ने अपना नामकरण तो पा लिया किन्‍तु वह तेजस्‍विता खो दी जो धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, शंभुनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, ठाकुर प्रसाद सिंह और नरेश सक्सेना जैसे कवियों में थी।  यश मालवीय के गीतों में नवगीत का नयापन है और कथ्‍य का पैनापन भी। समय के साथ कदमताल करते हुए उनके गीत अपने समय का क्रिटीक भी हैं और अपने समय के मिजाज का भाष्‍य भी।

'काशी नहीं जुलाहे की' कहने में वही तेवर है जो 'ये चमन माली की जागीर नहीं है लोगो' कहने में है। यश गीतों की लालित्‍य रेखा से बहुत दूर निकल आए हैं। इस खुरदुरे समय की चादर पर पांव धरते हुए उन्‍हें जो चुभन महसूस होती है वह उनके गीतों में छन कर आती है। उनके यहां पग पग पर सुन पड़ती बंदिशें गीत के स्‍थापत्‍य का आभरण हैं । कथ्‍य और छंद का जैसा बिखराव आज गीतों में दिखता है , उसके बरक्स यश गीतों के यति-गति का पूरा ख्याल रखते हैं।

यथार्थ की पेचीदगियों से आंख मिलाते हुए यश के गीत परंपरागत बिम्‍बों को नई पालिश देते हैं। चांद उन्‍हें कभी कटे नाखून सा दिखता है तो कभी वह खुद को संयत कर बादल हटा के निकलता हुआ। सोच में एक सुनहरा ताल खामोशी से उगता हुआ दिखता है तो देखो घड़ियाल रो रहा है से पूरी सियासत की दो मुंही चालों को कवि बेनकाब करता है। दुनियावी चिंताओं से लैस यश के गीत अपने कार्यभार से सरोकार रखने वाले हैं। वे सत्‍ता से, सियासत  और इस देश के नियामक से सवाल करते हैं तो इस उम्‍मीद से भरे भी दिखते हैं कि जो भी हो, यह सूरत बदलेगी : 

'ओस में भीगती हवा होगी 
दर्द के साथ कुछ दवा होगी
शायरी की जबान बदलेगी 
शायरों का कलाम बदलेगा 
बदलेगा ये निजाम बदलेगा
लगता है अब अवाम बदलेगा '

यश अपने एक गीत में तंज करते हैं कि 'छायावादी चिंतन है, नवगीत लिख रहे हैं।' यह कहीं न कहीं यश के नवगीत-चिंतन का बीजमंत्र भी है कि गीत को आधुनिक चिंतन  और वैचारिकी का वाहन बनना चाहिए। कविता को तो उन्‍होंने अपने वक्‍त के लिपिक का रोजनामचा माना ही है। कहना न होगा कि यश ने गीतों में जीवन साधा है, समय को साधा है, आज की सियासत के पेंचोखम को साधा है और उस विरासत की बागडोर साधी है जिसे अगली पीढ़ी को देकर वे इस दुनिया से कभी विदा होंगे।

उनके गीत तुकबंदियों से मोह उपजाने वाली बंदिशें नहीं हैं, वे तुकों के युक्‍तियुक्‍त इस्‍तेमाल से बनी ऐसी काव्‍ययुक्‍तियां हैं जिनके आगे नई कविता की कसावट भी कभी-कभी शिथिलप्राय नजर आती है। यश ने गीत की टेक पर कायम रहते हुए उसे आत्‍महीनता के एकांत का वरण करने के लिए अकेला कभी नही छोड़ा बल्‍कि जनता के सुखों-दुखों को और अपनी नौकरी दांव पर लगा कर भी गीत के कंधों पर सिर टिकाए 'हमारे होठों पे मांगी हुई हँसी तो नहीं' की आश्‍वस्‍तिदायी मुद्रा में संघर्षरत रहे हैं।

कहना न होगा, कि एक अच्‍छा गीत एक ताजा सिंकी हुई रोटी की सोंधी महक से कम नहीं होता। यश के गीतों में ताजा फुल्‍के की-सी सोंधी महक है--- एक ऐसा देसीपन है जो आम तौर पर कविता के अभिजात मिजाज में संभव नहीं है।  यश के गीतों में सधे हुए छंदकार का स्‍वर है। लिपे पुते आंगन की-सी आभा है। उनके गीतों की विपुल रागात्‍मकता से गुजरते हुए उनके यहां ऐसे कई मुकाम आते हैं कि किसी किसी गीत की देहरी पर बैठ कर देर तक गुनगुनाते का मन होता है। काशी नहीं जुलाहे की--फिर एक बार उस कवि की याद दिलाती है जो गीतों के लिए एक साधक की तरह है तथा जिसने वाग्‍देवी को यह वचन दे रखा है कि वह आजीवन छंदों की तपश्‍चर्या में तल्‍लीन रहेगा।
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साहित्‍य भंडार इलाहाबाद से शीघ्र प्रकाशय। प्रकाशक संपर्क:9415214878 Email ; vibhoryash1@rediffmail.com

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