मंगलवार, 6 जुलाई 2021

लेख- मुझे न भाती सपनों वाली स्वर्ण-प्रभाएं अनुमानों की आशीष दशोत्तर प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

लेख-

 मुझे न भाती सपनों वाली स्वर्ण-प्रभाएं अनुमानों की : नटवरलाल स्नेही  

आलेख
 आशीष दशोत्तर

कई बार यह सवाल उठता है कि रचनाकार को उसके अभाव और विषमताएं मजबूर कर देती है समझौता करने के लिए । इसका जवाब इस तरह सामने आता है कि जो रचनाकार अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होते हैं उन्हें कोई परिस्थितियां विषम नहीं लगती , बल्कि विषमताओं में वे अधिक निखर कर सामने आते हैं। 
दुनिया के कई बड़े रचनाकार सत्ताधोशों की तानाशाही के बावजूद उभरे और उन्होंने उन तानाशाहों की सत्ता को ललकारा । अपनी रचनाओं के जरिए जन-जन के दिलों में अपना मुकाम बनाया।
देश की आज़ादी का दौर भी ऐसा ही दौर था जब गुलामी से मुक्त होने के लिए हो रही क्रांति के साथ एक और क्रांति चल रही थी, जिसे उस दौर के रचनाकार गति प्रदान कर रहे थे। मालवा माटी के ऐसे ही रचनाकार थे श्री नटवरलाल 'स्नेही'।
 स्नेही जी ने विपुल साहित्य रचा और वह साहित्य आज भी पर्याप्त सम्मान की प्रतीक्षा कर रहा है। उनके गीत, नवनीत, कविताएं, कहानियां ,अनुवाद उच्च कोटि के हैं जो आज भी हमें चमत्कृत करते हैं । हिंदी साहित्य को स्नेही जी ने समृद्ध किया। उस परिवेश में रचनाधर्म निभाते हुए उन्होंने देश की आज़ादी को अपने शब्दों से संवारा।

श्री नटवरलाल 'स्नेही' का जन्म 4 जुलाई 1917 को रतलाम के सरसी ग्राम में हुआ। उन्होंने 'गांधी मानस' महाकाव्य के जरिए अपनी एक अलग पहचान कायम की । उनके खंडकाव्य 'जीवन' के अतिरिक्त जय पथ, प्रवासी पार्थ, अंतर्ज्वाला, वेदना, नवरत्न, नवरस प्रसाद पुरुषोत्तम, कल-कल, पुष्पांजलि, अमृत बिंदु , स्नेहार्चन ,मंत्रणा, सुलझा हुआ विवेक जैसे ग्रंथों का सृजन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीन हज़ार भक्ति पदों के 9 संकलन, 12 संस्मरण दस कहानियां और 1000 से अधिक कविताएं भी लिखी। उनका लेखन समय काल और परिस्थिति के अनुसार एक ऐसी साहित्यिक ग्रंथावली रच गया जिस का मूल्यांकन किया जाना बहुत आवश्यक है। उनके गीतों को उत्कृष्ट कोटि का माना गया। उनके गीत उस समय के महत्वपूर्ण गीतकारों के मध्य चर्चा का विषय रहे । श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन, आचार्य विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, सेठ गोविंद दास, सूर्यनारायण व्यास, डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, कन्हैयालाल मुंशी, मामा बालेश्वर दयाल,डॉ रघुवीर सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, श्री बालकवि बैरागी और कई महत्वपूर्ण रचनाकारों ने स्नेही जी के लेखन की प्रशंसा भी की और पत्र लिखकर उन्हें श्रेष्ठ रचना के लिए बधाई दी । 20 जनवरी 1996 को स्नेही जी का अवसान हो गया।
स्नेही जी ने विविध विषयों पर लिखा। मन से लिखा और पूरी तरह समर्पित होकर लिखा। उनके लेखन का शुरूआती दौर देशभक्ति पर केन्द्रित रहा। मध्य दौर विशुद्ध हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित रहा। अंतिम दौर की रचनाओं में आध्यात्मिक रंग दिखाई देता है। यही कारण था कि उस वक्त के प्रमुख रचनाकारों में उनका जिक्र होता रहा।
देश के वरिष्ठ गीतकारों ने उनके गीतों को सराहा ।स्नेही जी के गीतों में प्रकृति और परंपराओं का अद्भुत समन्वय पाया जाता है ।वे प्रकृति के सुंदर दृश्यों को अपने गीतों में क़ैद करते रहे । ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने प्रकृति के बहुत क़रीब पहुंच कर अपनी रचनाओं को सार्थक किया।

एक कली का और किरण का अपना नाता है।
नील गगन में जब वह श्यामल छाया छा जाती 
वसुंधरा की युग की प्यासी आशा लहराती ।रिमझिम के स्वर में तब पावस यह ही गाता है 
एक पपीहे का पयोद का अपना नाता है ।
एक कली का और किरण का अपना नाता है।

एक कवि के दर्द को कवि ही समझ सकता है ।स्नेही जी उस दर्द को बखूबी समझते थे। उन्होंने अपना जीवन संघर्षों में गुज़ारा।नागदा में पर्णकुटी में रहते हुए उनका कई क्रांतिकारियों से भी संपर्क हुआ। वे उस दौर में लिखना और लिखने पर पेश होने वाले ख़तरों से वाकिफ थे।  वे जानते थे कि लिखना बहुत ज़रूरी है और सच लिखना ख़तरनाक भी , इसलिए वे कवि के दर्द को समझते हुए उस के पक्ष में भी रचना लिखते रहे। इन रचनाओं ने कवियों को ताक़त तो दी ही ,साथ ही क्रांतिकारी रचनाकारों में भी चेतना का संचार किया।

कविता सहज नहीं बन जाती ।
था देवत्व विफल अपना उद्धार कराने में 
परवश था अमरत्व मरण के मुख में जाने में
पारिजात की स्निग्ध सुरभि थी आहों में बदली 
तब दधीचि की प्रखर तपस्या का वर पाने में 
बहुत पसीना आया पवि को 
जय श्री सहज नहीं मिल जाती ।
मसि की काली बूंदों को नवनीत बनाने में 
प्राणों की नीरव भाषा को गीत बनाने में 
टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के सम्मोहन द्वारा 
जड़ की जड़ता को मानव का मीत बनाने में ।
बहुत पसीना आया कवि को 
कविता सहज नहीं बन जाती।

स्नेही जी जीवन के कवि थे । उनकी रचनाओं में सांसे मौजूद रहती थी ।उनके शब्दों में धड़कन रहती थी।  वे स्वप्नलोक में विचरण करने वाले रचनाकार नहीं थे। स्नेही जी का जीवन हक़ीक़त से रूबरू होता रहा  जीवन की मुश्किलों ने उन्हें काफी परिपक्व भी किया।
उनके गीत जिस मुखरता से अभिव्यक्त हुए हैं वे यह बताते हैं कि जीवन की मुश्किलों को खुली आंखों से ही देखा जा सकता है। सपनों में कल्पनाओं को साकार करने के बजाए हक़ीक़त में हर मुश्किल का सामना किया जाना चाहिए। वे सुविधाओं की सेज पर सोने के बजाय विपन्नता की वीथिकाओं में भटकना पसंद करते थे। सुविधाओं के लिए उन्होंने कभी हाथ नहीं पसारा और कलम को कभी कमतर नहीं होने दिया।

ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा न सकें।
नहीं हमारी भूख कभी ललचायी मोती पर 
प्यास कभी पानी को छोड़ न पीने गई सुधा 
आशा ने उद्यान लगाया नहीं कभी नभ में 
रही प्राण आधार हमारी सस्यमयी वसुधा ।
ऐसे किसी सुमन से सज्जित पथ पर गया न मन
जिन पर चलते हुए कल्पनाओं के चरण थकें।
ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा न सकें।

 
स्नेही जी के यहां अपनी मिट्टी से अद्भुत प्रेम दिखाई देता है। उस दौर में अपने वतन से और अपने देश की मिट्टी से प्रेम करना गर्व की बात हुआ करती थी ।हर रचनाकार की तमन्ना यही होती थी कि वह अपनी मिट्टी से जुड़कर कुछ लिखे। स्नेही जी के गीतों में भी अपने देश के प्रति ,अपनी मिट्टी के प्रति अद्भुत समर्पण दिखाई पड़ता है ।
वे मिट्टी से जुड़े और मिट्टी में ही रचे-बसे रचनाकार थे ।उनकी रचनाओं में कोई गर्व या अहम दिखाई नहीं देता। जिस तरह की सादा ज़िंदगी उन्होंने व्यतीत की, वैसी ही सादगी उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होती है।


सपने बोया करते हैं हम अपने खेतों में 
लहराते हैं जो कि सस्य की श्यामलता बनकर 
सपने गूंथा करते हैं हम ममता की माला में 
दिग दिगंत को देते हैं जो सरस सुरभि से भर ,
हमने सीचे स्वप्न फली फूली डाली डाली 
आश्रय लेने जहां कि पथिकों की आंखें अटकें।
ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा ना सके।

आज हम यह कहते हैं कि नफ़रत ने मोहब्बत को पीछे धकेल दिया है । झूठ सच्चाई पर हावी हो रहा है। सच को बोलने नहीं दिया जा रहा है ।लोगों के होठों पर ताले लगा दिए गए हैं। कहीं बेहतर वातावरण नहीं दिखाई दे रहा है ।स्नेही जी ने इन बातों की अभिव्यक्ति उस दौर में ही कर दी थी ।
रचनाकार वही महत्वपूर्ण होता है जो अपने समय से आगे बढ़कर लिखे। यक़ीनन उस दौर में भी ऐसी परिस्थितियां रही होंगी, मगर स्नेही जी ने जो कुछ लिखा वह आज भी जीवंत प्रतीत होता है ।यह उनकी रचनाशीलता की सार्थकता है।

प्रेम के पथ पर चरण बढ़ता नहीं कोई 
सत्य सुनने के लिए हर कान बहरा है ,
क्षीरसागर में नहीं अब बूंद भी पय की  
मनुज के मन का लवणनिधि अतल गहरा है ।
घिर गया आलोक का अभिमन्यु घेरे में 
लगा अन्याय का कुरुक्षेत्र में दुर्भेद्य डेरा है ।
आज तो हर दीप के दृग में अंधेरा है ।

श्री नटवरलाल 'स्नेही' के गीतों में प्रकृति का अद्भुत चित्रण है ।वे प्राकृतिक दृश्यों को अपने गीतों में जीवंतता के साथ उभारते रहे। उन पर छायावादी कवियों का प्रभाव भी परिलक्षित होता है ।छायावादी कवियों से प्रेरित होकर उन्होंने कई गीत लिखे । ये गीत हमें प्रकृति के क़रीब तो ले ही जाते हैं ,साथ ही प्राकृतिक सौंदर्य और उसमें गीतात्मकता के प्रभाव को भी अभिव्यक्त करते हैं।

घुमड़ते हुए व्योम के वारिदों की 
हुई लेखनी आज  ऋणी है ।
नदी ग्रीष्म की ज्यों कि गति गीत होना 
युगों से पड़ी मौन थी कल्पनाएं 
मुरलिका, न जिसको छुआ हो अधर ने 
विनिद्रित,विमूर्छित मनोकामनाएं ।
थिरकते हुए मेघ के यान पर चढ़ 
हुई आज कविता गजगामिनी है ।


स्नेही जी जिन क्रांतिकारियों के प्रभाव में रहे उन क्रांतिकारियों से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। खासतौर से देश प्रेम की भावना उनमें वहीं से जागृत हुई ।अपने बड़े भाई से वे काफी प्रेरित रहे। उनके साथ जिन क्रांतिकारी साथियों ने क़दम बढ़ाए उसका प्रभाव उनके गीतों में भी देखने को मिलता है ।अपने देश के प्रति प्यार और समर्पण की भावना उनके यहां काफी शिद्दत से दिखाई पड़ती है।
मेरा स्वर्ग यही धरती हो।
इसी धरा पर नर जीवन की 
कल्पलता लहराने पाए 
कामधेनु भी हरे-हरे तृण 
इसी धरा पर चरने आए 
इंद्रधनुष की सुषमा मेरे 
खेतों में विचरण करती हो ।
मेरा स्वर्ग यही धरती हो ।

यह दुर्भाग्य रहा कि स्नेही जी को जीवन में वह सब कुछ नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे ।एक शिक्षक के जीवन में आने वाली बाधाओं को उन्होंने सहा। इतने विपुल साहित्य का सृजन किया ।उसे अपने प्रयासों से प्रकाशित करवाया। उस साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इन सारे प्रयासों में वे बीमारियों से ग्रसित होते गए। उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता चला गया। उन्हें आर्थिक अभाव का भी सामना करना पड़ा। मगर इसके बाद भी अपने पथ से डिगे नहीं । उन्होंने कभी अपनी सक्रियता को कम नहीं की । साहित्य स्रृजन में जुटे रहे । उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक बेहतर साहित्य की रचना की ।उन्होंने कभी धन, मान ,सम्मान ,पुरस्कार के लिए किसी की याचना नहीं की । जिस हाल में थे, उसी में मस्त रहे और हिंदी साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध करते रहे।
मुझे न मोती की अभिलाषा 
क्षुधा तृप्त हो दो दानों की 
मुझे न भाती सपनों वाली 
स्वर्ण-प्रभाएं अनुमानों की 
नहीं किसी दृग से आंसू की 
सुख की निर्झरिणी झरती हो ।
मेरा स्वर्ग यही धरती हो।

श्री नटवरलाल 'स्नेही' के गीतों में आम आदमी की पीड़ा और दर्द भी अभिव्यक्त हुआ है । वे भले ही प्रकृति और देश भक्ति के रंग में रंगे थे मगर आमजन की पीड़ा और दुःख को वे बखूबी समझते थे ।उन्होंने अपने गीतों में आमजन की पीड़ा को व्यक्त किया है ।
उनकी इच्छा सबकी आंखों से आंसू पहुंचने की रही । उनकी पर्णकुटी में समाजवादी विचारों के लोगों का आना-जाना भी रहा ।उनके विचारों में भी समाजवादी समाज की स्थापना और हर व्यक्ति को उसके हक़ मिल सके इसकी चिंता रही। उन्होंने अपने गीतों के जरिए आम आदमी की आंखों से बहते आंसू पोंछने के जतन किए।


गगन में उड़ते पंछी के 
नयन में नीर बसा रहता ।
बीन के आंचल में खग की 
प्रणय-रागिनियां पलती है 
प्रिया के मन को वीणा की 
मधुर झंकृतियां पलती है 
नीड का आमंत्रण ,नभ के 
मलय की लहरों में बहता । 
वे जानते थे कि जब तक आम आदमी के दुःख- दर्द कम नहीं होंगे तब तक एक बेहतर समाज की स्थापना नहीं की जा सकती। उन्होंने आज़ादी के पूर्व का दौर भी देखा और आज़ादी के बाद का दौर भी।  उनके मन में यह पीड़ा अवश्य थी कि जिस आज़ादी के लिए लोगों ने संघर्ष किया वैसी आज़ादी हमें नहीं मिल पाई । आज़ादी के बाद भी करोड़ों लोगों के ज़िंदगी में अंधेरा है ।अंधेरे का दायरा लगातार फैलता जा रहा है ।रोशनी की किरण कहीं दिखाई नहीं दे रही । जिस भेदभाव की समाप्ति की कामना नए भारत में की गई थी उसमें कहीं ना कहीं हम चूक रहे हैं। उन्होंने अपनी इस पीड़ा को भी अपनी रचनाओं के जरिए आवाज़ दी।

एक चंद्र पर्याप्त तिमिर हरने को 
संख्याएं मत गिनो बहुत हैं तारे।
अनगिन शून्यों के संग्रह से क्या है 
एक अंक का अंक न यदि वे पाए 
इठलाती है व्यर्थ सिंधु की लहरें 
जिन पर प्यासे प्राण नहीं ललचाए 
भला धधकता हुआ एक अंगारा 
व्यर्थ शवों के हैं शत कोटि सहारे ।

स्नेही जी के गीत और विभिन्न रचनाएं नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम भी कर सकती है ।उन्होंने अपने गीतों में जिस अनसुनी बात को सुनने का प्रयास किया था, जिस अनगुनी को गुनने का प्रयास किया था ,उससे जो चादर बनी थी उसे आज फिर से फैलाने की ज़रूरत है।

मैंने गीत सुना 
अमृतमय मैंने गीत सुना ।
पावन प्राणों को पुकार से 
निश्वासों के दृढ़ाधार से 
सांसों के रेशमी तार से 
आशा वसन बुना 
प्रेम ने आशा वसन बुना।

श्री नटवरलाल 'स्नेही' मालवा माटी के ऐसे रचनाकार रहे जिन्हें अपने जीवन काल में भी संघर्षों का सामना करना पड़ा और  जीवन  समाप्ति के उपरांत भी उनका पर्याप्त मूल्यांकन नहीं हो पाया । हमारे प्रदेश की एक अमूल्य धरोहर स्नेही जी का साहित्य है। इस साहित्य को हिंदी जगत के मर्मज्ञ समझते हैं और इसके महत्व को भी रेखांकित करते हैं ।आवश्यकता इस बात की है कि उनके साहित्य को जन-जन तक पहुंचाया जाए। उस साहित्य के जरिए नई पीढ़ी को अपनी धरोहर से परिचित करवाया जाए। स्नेही जी के साहित्य की सार्थकता तभी होगी जब वह हमारी आज की पीढ़ी के जरिए आने वाली पीढ़ी तक सफर करे।

 12/2,कोमल नगर
 बरबड़ रोड़
 रतलाम-457001
 मो. 9827084966

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 _श्री नटवरलाल'स्नेही' के कुछ गीत_




एक कली का और किरण का अपना नाता है।

नील गगन में जब वह श्यामल छाया छा जाती 
वसुंधरा की युग की प्यासी आशा लहराती ।रिमझिम के स्वर में तब पावस यह ही गाता है 
एक पपीहे का पयोद का अपना नाता है ।
एक कली का और किरण का अपना नाता है।

 द्रुम-द्रुम पर जब अंकुर बनकर है वसंत छाता 
डाल- डाल पर जब नवयौवन झूम-झूम जाता
सुरभित,मदिर,मलय तब यह ही कह-कह जाता है।
एक कोकिला का मधुबन का अपना नाता है ।
एक कली का और किरण का अपना नाता है ।

प्रातः मंद पवन जब मानस मुझको सहलाता 
अंत:स्थल का हर्ष कली बन उभर-उभर आता 
तेरा स्पर्श सुकोमल सुख में मधु भर जाता है ।
एक कली का और किरण का अपना नाता है।



कविता सहज नहीं बन जाती ।

था देवत्व विफल अपना उद्धार कराने में 
परवश था अमरत्व मरण के मुख में जाने में
 पारिजात की स्निग्ध सुरभि थी आहों में बदली 
तब दधीचि की प्रखर तपस्या का वर पाने में 
बहुत पसीना आया पवि को 
जय श्री सहज नहीं मिल जाती ।
प्यासे अधरों पर फूलों का हास खिलाने में 
तृप्त धरा की उजड़ी आशा को लहराने में 
जो कि अतल पीड़ाओं का उपनाम कहाता है 
खारे सागर को पावस का अमृत बनाने में ।
बहुत पसीना आया रवि को 
सुषमा सहज नहीं मुसकाती।
 मसि की काली बूंदों को नवनीत बनाने में 
प्राणों की नीरव भाषा को गीत बनाने में 
टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के सम्मोहन द्वारा 
जड़ की जड़ता को मानव का मीत बनाने में ।
बहुत पसीना आया कवि को 
कविता सहज नहीं बन जाती।


ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा न सकें।

 नहीं हमारी भूख कभी ललचायी मोती पर 
प्यास कभी पानी को छोड़ न पीने गई सुधा 
आशा ने उद्यान लगाया नहीं कभी नभ में 
रही प्राण आधार हमारी सस्यमयी वसुधा ।
ऐसे किसी सुमन से सज्जित पथ पर गया न मन
जिन पर चलते हुए कल्पनाओं के चरण थकें।
ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा न सकें।

 लहरों पर न कभी प्रासाद बनाए हैं हमने 
ओंसकणों से झिलमिल मालाएं न बनाई है 
शशि की स्नेहिल किरणों ने है भले छुआ मन को
किरणों को सहलाने अंगुलियां न उठाई हैं।
दामिनियों की दमक थिरकती रहती है द्रृग में 
भर लेने को अंग न पागल हुई कभी पलकें।
ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा ना सकें।

सपने बोया करते हैं हम अपने खेतों में 
लहराते हैं जो कि सस्य की श्यामलता बनकर 
सपने गूंथा करते हैं हम ममता की माला में 
दिग दिगंत को देते हैं जो सरस सुरभि से भर ,
हमने सीचे स्वप्न फली फूली डाली डाली 
आश्रय लेने जहां कि पथिकों की आंखें अटकें।
ऐसे सपने नहीं संजोया करते हम दिन में 
रातों की पलकों में भी जो देखे जा ना सके।


किस दिशा के द्वार से कोई किरण आए 
आज तो हर दीप के दृग में अंधेरा है ।

प्रेम के पथ पर चरण बढ़ता नहीं कोई 
सत्य सुनने के लिए हर कान बहरा है ,
क्षीरसागर में नहीं अब बूंद भी पय की  
मनुज के मन का लवणनिधि अतल गहरा है ।
घिर गया आलोक का अभिमन्यु घेरे में 
लगा अन्याय का कुरुक्षेत्र में दुर्भेद्य डेरा है ।
आज तो हर दीप के दृग में अंधेरा है ।

आज अधरों पर माता मंत्र ममता का 
स्वार्थ की संपूर्ति के सब शब्द जपते हैं 
ह्रदय की नवनीत-सी मृदु उर्वरा भू पर 
बेर के विष- विद्रुमों के वन पनपते हैं ।
मुकुल की मकरंद भीगी मधुर स्मृतियों पर 
रक्त की प्यासी पिपासा का बसेरा है ।
आज तो हर दीप के दृग में अंधेरा है ।

अभ्युदय की कामनाओं का विहंगम दल 
आज बसने को न कोई नीड़ पाता है 
प्रेम पथिकों को मिले मंदिर सभी सूने 
प्रणति के दृग में न कोई देव आता है।
 स्नेह का स्वर मात्र सूखे कंठ से आता 
आज तृष्णा ने सुधा का स्त्रोत घेरा है ।
आज तो हर दीप के दृग में अंधेरा है।



मैंने गीत सुना 
अमृतमय मैंने गीत सुना ।
नर्तित जो न किन्हीं अधरों पर 
जो नीख, नि:शब्द, निरंतर 
नि:स्वर हो कर भी जो मधुतर 
मधु से कोटि गुना 
अनाहत मैंने गीत सुना ।
जो अज, अजर ,अवश्यद, अव्यय 
रागद्वेष रहित, ममतामय 
जो कल्पांत प्रलय में अविकय 
अक्षय मीत चुना 
ह्रदय ने अक्षय मीत चुना ।
पावन प्राणों को पुकार से 
निश्वासों के दृढ़ाधार से 
सांसों के रेशमी तार से 
आशा वसन बुना 
प्रेम ने आशा वसन बुना।



घुमड़ते हुए व्योम के वारिदों की 
हुई लेखनी आज  ऋणी है ।
नदी ग्रीष्म की ज्यों कि गति गीत होना 
युगों से पड़ी मौन थी कल्पनाएं 
मुरलिका, न जिसको छुआ हो अधर ने 
विनिद्रित,विमूर्छित मनोकामनाएं ।
थिरकते हुए मेघ के यान पर चढ़ 
हुई आज कविता गजगामिनी है ।
घुमड़ते हुए व्योम के वारिदों की 
हुई लेखनी आज  ऋणी है । 
उठा खेत में लहलहा नव्य जीवन 
उठी लहलहा वाटिका दग्ध मन की 
हुई सस्य का श्याम परिधान धारे 
प्रकट, संपदा सिंधुजा के अयन की ।
भरा मेगघ ने पात्र मसि का सुधा से 
हुई लेखनी आज बड़भागिनी है ।
घुमड़ते हुए व्योम के वारिदों की 
हुई लेखनी आज  ऋणी है ।



मेरा स्वर्ग यही धरती हो।
 इसी धरा पर नर जीवन की 
कल्पलता लहराने पाए 
कामधेनु भी हरे हरे तृण 
इसी धरा पर चरने आए 
इंद्रधनुष की सुषमा मेरे 
खेतों में विचरण करती हो ।
मेरा स्वर्ग यही धरती हो ।
सद्भावों के देव प्रतिष्ठि 
जन-जन के उर हों देवालय 
सुरपुर के महलों से बढ़कर 
हो टूटी कुटिया महिमामय 
इस ही धरती के सुमनों से 
कविता सुरस- कलश भरती हो।
 मेरा स्वर्ग यही धरती हो ।
मुझे न मोती की अभिलाषा 
क्षुधा तृप्त हो दो दानों की 
मुझे न भाती सपनों वाली 
स्वर्ण-प्रभाएं अनुमानों की 
नहीं किसी दृग से आंसू की 
सुख की निर्झरिणी झरती हो ।
मेरा स्वर्ग यही धरती हो।


गगन में उड़ते पंछी के 
नयन में नीर बसा रहता ।
बीन के आंचल में खग की 
प्रणय-रागिनियां पलती है 
प्रिया के मन को वीणा की 
मधुर झंकृतियां पलती है 
नीड का आमंत्रण ,नभ के 
मलाई की लहरों में बहता ।
गगन में उड़ते पंछी के 
नयन में नीड़ वसा रहता।
 नीड़ में खग के जीवन की 
किलकती रहती है आशा 
छलकती प्राणों की ममता 
महकती प्राणों की भाषा ।
नीड का संवेदन कविता 
व्योम तो अर्थ मात्र कहता ।
गगन में उड़ते पंछी के 
नयन में नीड़ बसा रहता।


एक चंद्र पर्याप्त तिमिर हरने को 
संख्याएं मत गिनो बहुत हैं तारे।
अनगिन शून्यों के संग्रह से क्या है 
एक अंक का अंक न यदि वे पाए 
इठलाती है व्यर्थ सिंधु की लहरें 
जिन पर प्यासे प्राण नहीं ललचाए 
भला धधकता हुआ एक अंगारा 
व्यर्थ शवों के हैं शत कोटि सहारे ।
संख्याएं मत गिनो बहुत हैं तारे ।
जहां यामिनी जकड़ी अंधियारे से 
दृष्टि मंत्र से कीलित नागिन जैसी 
सुस्मृतियां हो गईं बंद कारा में 
नलिनी श्रीहत  हुई अभागिन जैसी ।
एक सूरज संजीवन लेकर आया 
भागीरथ ने साठ सहस्त्र उबारे ।
संख्याएं मत गिनो, बहुत हैं तारे।

परिचय
आशीष दशोत्तर




नाम - आशीष दशोत्तर
जन्म - 05 अक्टूबर 1972 को रतलाम में
शिक्षा - 1. एम.एस-सी. (भौतिक शास्त्र)
2. एम.ए. (हिन्दी)
3. एल-एल.बी.
4. बी.एड
5. बी.जे.एम.सी.
प्रकाशन -      1 मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा काव्य संग्रह' खुशियाँ कैद नहीं होतीं।'
                    2 ग़ज़ल संग्रह 'लकीरें'।
                     3 भगतसिंह की पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक 'समर में शब्द'
                     4 नवसाक्षर लेखन के तहत पांच कहानी पुस्तकें प्रकाशित। आठ वृत्तचित्रों में संवाद  
                  लेखन एवं पाश्र्व स्वर।
                     5. कहानी संग्रह 'चे पा और टिहिया'।
                     6. व्यंग्य संग्रह 'मोरे अवगुन चित में धरो' 
                      7. कहानी संग्रह ' अंधेरे-उजाले' ई-बुक।
                      8. गीत- नवगीत प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार -     1. साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा युवा लेखन पुरस्कार।
                   2. साहित्य अमृत द्वारा युवा व्यंग्य लेखन पुरस्कार।
                    3. म.प्र. शासन द्वारा आयोजित अस्पृश्यता निवारणार्थ गीत लेखन


3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!आशीष जी आपने देश के मूर्धन्य साहित्यकार स्नेही जी के साहित्य और उनके जीवन पर क्या सुंदर आलेख लिखा है। इस आलेख से आपकी साहित्य की गहरी समझ और रुचि स्पष्ट दिखाई देती है। आपको देखकर स्नेही जी की युवावस्था याद आ रही है। वर्तमान परिदृश्य में हिंदी साहित्य और साहित्यकारों के प्रति आपका लगाव प्रशंसनीय है। आप हिन्दी का गौरव हैं।

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  2. आशिषजी आपका परम आदरणीय स्नेही के सम्बध मे जानकारी एकत्र कर समाज क्षके लिए व हमारे सभी के लिये अनुपम योगदान दिया है।हम आपके आभारी है ।
    मै चाहता हूं कि आप सहमत हो तो स्नेही की याद व योगदान के लिए एक आयोजन रखें मैरा मोबाइल न 9425350174है दिनेश शर्मा इंदौर

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  3. कवि श्री नटवरलाल स्नेही के व्यक्तित्व कृतित्व को आपने बखूबी समेटा है । स्नेही जी भारत की स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के धनी रहे है । उनकी रचनाओं में छायावादी शैली के दर्शन होते है । नटवरलाल स्नेही का मूल्यांकन नहीहो पाया है । इस स्तुत्य कार्य के लिए श्री आशीष दशोत्तर जी को बधाई ।

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