सोमवार, 21 जून 2021

मनोज जैन के एक नवगीत "हम जड़ों से कट गये" पर चर्चित नवगीतकार राघवेन्द्र तिवारी जी का एक आलेख प्रस्तुति समूह वागर्थ

वागर्थ 
आज  समालोचना कॉलम में चर्चित नवगीतकार  राघवेन्द्र तिवारी जी का एक आलेख जोड़ने जा रहा है यह आलेख नए रचनाकारों सहित उन सभी नवगीतकारों को उपयोगी है जो नवगीत रचना और समालोचना से जुड़े हैं।
यद्धपि आलेख तकरीबन आठ या नौ साल पुराना है लेकिन लेखक की दृष्टि सम्पन्नता का कमाल यह है कि आप इसे जितने कोणों से पढ़ेंगे उतने ही नवीन अर्थ एक साथ खुलते हैं।
नवगीतकार मूलतः अपनी आलोचना सुनना नहीं चाहते और मैं ऐसे अवसरों को छोड़ना नहीं चाहता लेख के बहाने मैं आपकी अदालत में प्रस्तुत हूँ।
प्रस्तुति
वागर्थ 
संपादक मण्डल

सन्दर्भ : नवगीत हम जड़ों से कट गए
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अंततः का संभवतः होना  :  राघवेंद्र तिवारी 

             कितनी भी अच्छी शुरुआत के साथ हम पारदर्शी बनने की फिराक में रहें और स्वच्छता की अनुगूंज नवगीतों में लेकर चलें परन्तु जहाँ इसको नकारने समकालीन कविता की एक तकनीकी भीड़ सामने दिखाई देती है वहीं इस कोलाहल से दूर कारपोरेट दुनिया को धता बताता नवगीत अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौजूद है और ऐसे तमाम लोगों पर धीरे-धीरे अपनी प्रतिष्ठा की कलाई चढ़ाता नजर आता है , जो वाजिब है और जरूरी भी ।
        मनोज जैन मधुर 'का नवगीत " हम जड़ों से कट गये" जहाँ मनुष्य की वर्तमान खस्ता हालत जिंदगी और... उससे जुड़े रिश्तों को समझने की ईमानदार पहल है वहीं , कवि की सजगता, जुटे रहने की कोशिश और सपाट बयानी (यह सब समकालीन कविता ने अपनी बपौती मान रखा है) से पृथक वह कहने की कोशिश है जो मनुष्य से सीधा सरोकार रखती है । मनोज इस तरह सर्व ग्राह्य एवं सर्व स्वीकार्य नवगीतकार के रूप में सामने आते हैं । नवगीत के लिए उनका जन प्रबंधन तथा गीत-कथन में मेल न खाते हुए भी उनकी रचना - प्रक्रिया और सबसे से परिचित करते हुए ब कुछ पुराने प्रतीकों की और शब्द चयन से परिचित करते हुए कुछ पुराने प्रतीकों अवश्य ले जाता है किन्तु  यथार्थ कथन और गीत के चेहरे पर शिकन न लाना उनकी योग्यतम कोशिश कही जा सकती है , जिसके आधार में उनकी ग्रामीण पृष्ठ भूमि  तथा व्यक्तिमात्र ( मनुष्य मात्र के प्रति ) ईमानदारी ही कही जा सकती है । उन्हें गाँव छोड़ने और शहर में आ बसने की जो पीड़ा है वह दस्तावेज के रूप में , "हम जड़ों से कट गये हैं" में सामने आती है ।
            गीत में जहां काव्य जड़ता को दूर करता हुआ " हम जड़ों से कट गए हैं " कहा गया है वहीं कुछ शब्दों का चयन बढ़ा नागवार है , यथा जब हम जड़ों से कट गए हैं - कवि कह रहा है कि उसे परिस्थितियों या उक्त वजहों से उसके मूल  से पृथक कर दिया गया है वहीं अगली पँक्ति  में मनोज कहते हैं - " नेह के वाताश  की हमने कलाई मोड़ दी ", जब हम जड़ों से टहनियों या पत्तियों और फूल फल तक जड़ों तक पहूँचना चाहिए था किन्तु वे वाताश तक पहुँच गए ,जबकि अगली तुकांत पंक्ति में भी प्यार की छांव की बात करते हैं , अब प्रश्न है कि कभी पेड़ की छाँव छोड़कर प्यार की छाँव की बात करने क्यों लग गया जबकि ऊपर की पंक्ति में वह वाताश  (की नेह का) बाँह मरोड़ने जैसा पवित्र कार्य करने में गीत लेखन धर्म निभा रहा है और अगर ऐसा है तो हम जड़ों से कट गए हैं न लिखकर अपने परिवार से यों पृथक होकर , "खा रहे हैं यहां पर बेवजह ठोकर "जैसा कुछ होना चाहिए था । परंतु गीत का लालित्य मनोज ने इसमें बचा रखा है जो एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण स्थिति है । गीत लिखना अपने आप में चुनौती से कम नहीं है और बहुत कम लोग इसमें निष्णात होते हैं जिसमें मनोज की मेधा को कम बता कर नहीं आंका जा सकता है। कभी संकेत में, कभी आभाष देता हुआ और कभी अनुभव के बिना , पर  संकेत की भी सूक्ष्मावस्था, गीत में देखी जा सकती है, मनोज ने इसका निर्वाहन भी किया है, किंतु जब समकालीन कविता जैसा सबल और सत्ता पोषित कवि कर्म का प्रतिद्वंदी सतर्कता के साथ विद्यमान हो तब हमें अधिक समर्थ होने की तथा जागरूक दृष्टि की जरूरत है। मनोज इसे कैसे भी प्रबंधित ( मैनेज ) करते हुए इस कविता में नजर आते हैं । दरअसल जिस शहर और जिस पृष्ठभूमि से वे अभी हैं , वहाँ पर नवगीत कवि तो क्या न्यूनाघिक सभी गीत कवि हैं या छन्दवाही कवि हैं और वो भी मंचीय , जो गले को अधिक तराशते नजर आते हैं अपनी कविता किंवा नवगीत के स्थान पर  ।
उनमें अधिकांश तबका ऐसे लोगों का है जो अत्यल्प पढ़े लिखे हैं तथा लिपिकीय पृष्ठभूमि से आये हैं तिसपर तुर्रा यह कि एक दूसरे की विमुखता का ही नहीं अपितु छंदशास्त्र की व्याकरण का भी उन्हें बोध नही,और मंचीय वाह - वाही के बीच उनके परस्पर,सस्वर पाठ के आग्रह ही नवगीत के प्राण हरण के लिए पर्याप्त है , वहीं वे सम्पूर्ण रूप से स्वयं को नवगीत के प्रतिमानों तक नहीं पहुँचने देते। इसीबीच में धार पर हम-1 तथा 2, नवगीत के नये प्रतिमान  नवगीत नई दस्तकें तथा शब्दायन ने कई गीति कवियों को एक साथ प्रकाशित कर नवगीत की सफल हत्या करने का जो सारस्वत प्रयत्न किया है , उसने , मनोज के समीपवर्ती उन सभी नवगीत कवियों (?) को काव्य वारुणी में आकण्ठ डुबो दिया है , ऐसे में मनोज सहित इन सभी लोगों को अगर कोई अगर कोई सदपंथ दिखा सकता था तो वह था  नवगीत का कोई समर्थ आलोचक,जो कि  आने वाले तकरीबन , 10 वर्षों तक संभव नहीं! तथा जो वर्तमान में आलोचक (? )हैं वे अजीब से भाषा संस्कारों वाले , विरुदावली गायक मात्र हैं, ऐसे में मनोज जैन मधुर जैसे प्रभृत नवगीतकारों को सही मार्ग-दर्शन देने वाला कोई नहीं ।और अगर संदेश या भ्रम के आधार पर इस हिंदी भाषी प्रदेश में एकाध गीत कवि को लें तो यथार्थतः वो गीत के ही कवि हैं नवगीत के नहीं इसलिए भी मनोज जैन मधुर के नवगीत नवगीत की नहीं गीत की ही ध्वनि अधिक देते हैं । हाँ , फिलबक्त जो एक फैशन है यहाँ या यों कहें कि मनोज के परिवेश में चल रही है, उसे हम कह सकते है कि  नवगीत की बागडोर ऐसे हाथों में है जिन्हें ठीक से तलवार पकड़ना न आती हो और महासमर के वे ठेकेदार बना दिये जायें।
किन्तु मनोज जैन मधुर अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ लिख रहे हैं यही महत्वपूर्ण है।यहाँ यह बता दूँ कि नवगीत के कुछ भेदों का पता भी उसे ही चल पाता है जो यह जानकर लिखता है कि जिंदगी कहीं भी खत्म होने वाली चीज नहीं है अपितु निरंतर है और यह निरंतरता नवगीत की रवानी है । विवेकशील गीतकार पहले नवगीत में की गई गलती को उस अगले गीत में सुधारते हैं । नवगीत लेखन के लिए अध्ययन सबसे महत्वपूर्ण शर्त है, जो आज के नव गीतकार में बिल्कुल भी नहीं ,मनोज ,जैसा कि मैं पाता हूँ अध्ययन से ना तो पूर्णता जुड़े हैं और न ही पूर्णतः पृथक अगर वे अपने अध्ययन को  निरन्तर  रखते हैं तब ही वे  नवगीत की सफलता की ओर बढ़ सकते हैं।उनके साथ के लोग छान्दसिक हैं किन्तु ना तो उन्हें छन्द शास्त्र का बारीकी का ज्ञान है और न ही समुचित अध्ययन एक और बहुत बड़ी कमी छन्द कवि में तब आती है जब उम्रदराजी की ओर बढ़ने लगता है और प्राचीन काल में प्रचलित परंपरा अनुसार स्वयं में सुधार न करते हुए अपने पठ्ठों  को जरूरी निर्देशों के साथ अपने गीत जगत का सेनापति नियुक्त करने मे वक़्त जाया करता है और इस अधूरे प्रजातंत्र  का वह घोषित नायक यह सोच ही नहीं पाता कि गलती कहॉं हो रही है।
वह एक काली दीवार से चारों तरफ से घिर जाता है, जिससे निकलने की कोई भी गली उसे नहीं सूझती। इसी बीच वह अपने अपरिपक्व लेखन को, जन-प्रबंधन के आधार पर प्रचारित -प्रसारित कर लेता है किंतु उसमें रचनात्मक दृढ़ता तथा काव्य स्थायित्व तो कहीं भी नहीं आ पाता और फल स्वरूप कोई भी कालजयी  रचना निकलकर नहीं आ पाती। ऐसा कभी मंचीय धुरंधर बनकर,कुछ कागज खराब कर , इस दुनियाये फ़ानी से  बिना शोरगुल के कूच कर जाता है । छान्दस  कविता के ये  तथाकथित दादा , समय-समय पर फतवे भी जारी करते हैं , जैसे जो लोग नवगीत / गीत के साथ अन्य विधाओं में लेखन कर रहे हैं ,वे हमारे शत्रु हैं - ऐसे फतवे उक्त कथन के कवि की अपनी ( स्वयं ) की अक्षमता को बताते हैं वही व्यक्तिगत अयोग्यता को भी उजागर करते हैं, जो कि आज के आम किंवा मंचीय कवि की मजबूरी के सदृश्य या उम्र बढ़ने पर किसी यौन कमी की हताशा के समान है। आलोच्य नवगीत मनोज जैन मधुर के सद्य संग्रह " एक बूँद हम " से अभीष्ट है । नवगीत पर कुछ कहने से पूर्व मुझे नवगीतकार से एक और शिकायत है और वह यह कि मनोज जब अपने आप में एक बहुत ही सुन्दर नाम है फिर इसके आगे मधुर लगाने की इन्हें क्या जरूरत आन पड़ी । इनका हमनाम साहित्य में भी       कोई नहीं था , फिर भी । मनोज जैन नाम अपने आप में शाब्दिक घंटिया बजाता नजर आता  है , परन्तु लोग अपनी पहचान अपनी तरह से बनाना घाहते हैं , हो       सकता है उनका यह इसी दिशा में निरंतरता का प्रयास हो । पुराने समय में लोग अपने पुत्रों के नाम ऐसे प्रेमवश या नजर न लग जाए वश खराब से खराब रखते थे - यथा नाथूराम , कालूराम , कन्देदी लाल , घसीटेराम आदि । ऐसे नामों की कुरूपता छिपाने  तत्कालीन कवि  एक अच्छा सा उपनाम रख लेते थे , जिससे नामकरण की कमी को  भली भाँति ढका जा सकता था और कुछ -कुछ तब इस तरह की फैशन भी थी किन्तु समझ नहीं आता कि मनोज को ऐसा हीनता बोध नाम से क्यों था जो नाम के आगे मधुर लगाने की जरूरत अनुभव हुई । अब गीत में आगे बढ़ें तो पूरे बंध में विरोधाभास देखिए ।

नेह के वाताश की हमने /
कलाई मोड़ दी/
प्यार वाली छाँव हमने /
गाँव में ही छोड़ दी ।

पहली पंक्ति दूसरी पंक्ति से सर्वथा असम्बद्ध है । जब जड़ों से हम कट गए हैं और जब जड़ें ही नहीं हैं तो छाँव फिर किस चीज की ? यही अगर परिवार को छाँव का प्रतीक मान लिया जाए और ' वाताश ' अपने किसी परिजन को मान लें तो जब हम उसकी बाँह मरोड़ने पर आमादा हैं तो वो बेचारा परिवार रूपी पेड़ को कैसे सहेज पाएगा । कुल मिलाकर गीत में बड़ा और प्राकृतिक घालमेल है , स्थाई की टेक में तुक मिलाने , उपजना चाहिए था  चमत्कार किंतु वह एक शाब्दिक विपत्ति बनकर सामने आता है , यथा मन लगा महसूसने हम दो धड़ों में बँट गए ।  यह नवगीत पढ़ने और तुक जोड़ने में श्रेष्ठ सा प्रतीत होता है किन्तु नवगीत के तर्क सिद्धांत से यह बेहद पृथक सा नजर आता है । 
    जड़ से कटने पर दो धड़ों में बँटना श्रेयस्कर प्रतीत नहीं होता है  हाँ , मनोज ने , ( गीत के संप्रेष्ठ को अगर छोड़ दें तो इसका निर्वहन ठीक-ठीक किया है ) 
      यह सँभवतः मनोज के प्रारंभिक गीतों में से एक हो सकता है , जहाँ उनकी बौद्धिक प्रतिभा तुक के चक्कर में श्रेष्ठ और अभीष्ट देने में डगमगा गई हो किन्तु नवगीत अपने धरातल पर कसा हुआ प्रतीत होता है  
    नवगीत के अर्थशास्त्र में मनोज के पास शब्दों की जमा पूँजी उतनी प्रभावी तो नहीं किन्तु उन्हें पढ़ते हुए अनुभव किया जा सकता है कि शिव कुमार शर्मा का संतूर किशोरी अमोलकर के गले से होकर गुजर रहा है  , आहिस्ता और थमी हुई लय और मंद्र सप्तक के साथ । मनोज का गीत एक फ्लाई ओवर है और पाठक कार में बैठा वह मस्तिष्क है जो अपनी पूरी मस्ती में ड्राइव करते हुए अर्थ के उस पार ठहरे गाँव में उतर जाना चाहता है ।   दरअसल मनोज अपने गीतों को किसी उत्पाद के मानिंद तैयार नहीं करतेक्ष, अपितु उनकी सर्जना , पारिवारिक , संस्कृति की वह प्रस्तुति है जिसमें किसी परिवार का सम्पूर्ण बायोडाटा उसकी प्रतिबद्धता के साथ प्रस्तुत होता है । भले ही उसमें वह परिपक्वता प्रकटतः नही आ पाई हो किन्तु लेखन के प्रति निष्ठा और समर्पण तो जाहिर है ही ।  मनोज का परिवेश के प्रति सहज किन्तु विनम्र दृष्टिकोणों में अन्य नवगीत कवियों से इसलिए भी पृथक करता है कि उनमें मंचीय दुराग्रह नहीं है और न ही गीत कवियों सा दम्भ और यही मनोज की जमा पूँजी कही जा सकती है ।  अब अगले बंध में देखें .....

डोर रिश्तों की नई/ वातावरण सी हो गई /
थामने वाली जमीं /हमसे कहीं पर खो गई /

   जबकि इसे होना यह चाहिए था ( यहाँ जड़ से कटना गीत की मुख्य थीम है )  तो _ 

  डोर रिश्तों की यथावत /पौध जैसी हो गई /
रोंप दे किसमें जमीं / हमसे कहीं पर खो गई /

     जिस तरह किसी पेड़ की स्थापना के लिए जरूरत उस पेड़ की पौध की होती है वह पौध मनोज उगाते तो हैं परन्तु जहाँ वह पौध रोपी जानी थी वह जमीन खो गई है या कवि के मालिकाना अधिकार को उससे वंचित कर दिया है और यही कवि की मूल पीड़ा है जिसमें कवि बहुत गहरे तक अनुभव कर रहा है कि वह जड़ों से कट गया है और उसकी यह पीड़ा सभी सुने , यथा - 

पेड़ की खाता बही में/
गए रोपे , मिट गए /

  उपरोक्त लिपि गीत में मनोज की पंक्ति है ,.

भीड़ की खाता बही में /
कर्ज से हम पट गए /

जबकि यह ऊपर जैसी मैंने संशोधित की है , उपरोक्त पंक्तियाँ होतीं तो गीत ज्यादा सार्थक और दमदार हो जाता ।
   यह भीड़ की खाता बही और उसका कर्ज जैसा पटना एक बहुत बड़ी बहस को जन्म देता है ।  मैं यहाँ अनावश्यक रूप से " कर्ज " और " भीड़ " तथा कर्ज के पटने को ज्यादा तूल नहीं देते हुए यही कहना चाहता हूँ कि उपरोक्त पंक्तियाँ गीत में बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा करतीं इसीलिए मैंने उनका संशोधित वर्जन पहले ही प्रस्तुत कर दिया किन्तु मनोज फिर भी ट्रैक पर बने रहे । अन्य नवगीतकार जिन्हें ताजा-ताजा गीत लेखन का शौक चर्राया है वे तो न जाने कहाँ -कहाँ की यात्रा अपने एक गीत में करा देते हैं उनका गरुण माडल नवगीत की दुर्गति के लिए इसीलिए जिम्मेदार है ।
     यहाँ मैं समकालीन कविता जो आपको अछांदस तो लगती है परन्तु वह ऐसे नवगीतों से ज्यादा अनुशासित होती है , समकालीन कविता की किसी एक पंक्ति / शब्द को इधर से उधर कर दें तो जहाँ उसके आवेग , संवेग , धरातल , रचना प्रक्रिया और अनुशासन छिन्न - भिन्न हो जाएँगे वहीं वह अर्थशून्य भी हो जाएगी ।

       मनोज के बहाने मैं शेष अन्य नवगीतकारों से विनम्रतापूर्वक.निवेदन करना चाहूँगा कि वे भी अपने रचनाकर्म में उपरोक्त अनुशासन को प्रभावी बनाएँ और फिर स्वयं देखें कि दरअसल नवगीत किसे कहते हैं और उनकी संप्रेषणीयता कितनी प्रखर और प्रभावी होती है ।
मनोज के इस गीत आखरी बन्ध है-
खोखले आदर्श के/
हमने मुकुट धारण किये/
बेचकर हम सभ्यता के  
कीमती गहने जिए।/
इसे होना याओँ चाहिये था-
खोखले -कोटर सभी/
हममें समाहित थे सभी/
हम अपाहिज सभ्यता थे/
स्वयं आहत थे कभी/

'खोखले आदर्श' और उसके 'मुकुट' हमें यहाँ  पर फिर  मुख्य थींम से भटकाते हैं और पेड़ अथवा जड़ों की संकल्पना से कटते हुए सभ्यता के कीमती गहने बेचने पर आमादा हो जाते हैं जो पुनः एक भटकाव की बात को पुष्ट करता नजर आता है ,इसलिए मैंने पेड़ के कोटर और खोखले होने की बात कर दी जो गीत की श्रेष्ठता के लिए आवश्यक है।अगर मनोज ऐसा कुछ कर पाते तो जाहिर है यह गीत एक कालजयी गीत होता हाँ, और इसकी आखरी पँक्ति 
कद भले अपने बड़े हों/
पर वजन में घट गए/
को मैं कहना चाहूँगा कि गीत की पूर्णता की उपरोक्त पँक्तियाँ इस प्रकार होनी चाहिए थीं,यथा
यों कभी थे हम बड़े/
पर,अब वनों से घट गए/
चलते-चलते जो मुझे बहुत जरूरी तौर पर कहना है वह यह कि क्रिटीसिज्म भले ही कोई कर ले परंतु उसे किसी भी कविता में हाथ लगाने की आवश्यकता नहीं सो, मैंने मनोज के गीत को आईना दिखाने की कोशिश की है, इसमें दो बातें हैं- एक तो मनोज मेरा छोटा भाई है ,दूसरे आने वाली नवगीत पीढ़ियाँ नवगीत लेखन  के प्रति सतर्क और जागृत रहें तथा अगर वे ऐसा करते हैं तो नवगीत अपनी संपूर्णता के साथ प्रकाश में आएंगे । एक बात यह भी है कि अन्य नवगीतकार भाई इसे पढ़कर आलोचना में अग्रसर हों।
 तो..... नवगीत से छेड़छाड़ के लिए भाई मनोज जैन मधुर से क्षमा माँगते हुए मैं उनसे आशा रखूँगा  कि भविष्यत नवगीत, कसौटी पर खरे उतरें और उनकी जाँच परख में पूरी ईमानदारी वरतें।  इस ऊसर समय में जहाँ कारपोरेट जगत,साहित्य जगत को पीछे धकेला जा रहा है तथा ,नव धनाढ्य परिवार जो विभिन्न जगहों पर अपनी आईपीएलीय (IPL'S) छवि भारतीय मानस पर थोपने में जुटे हैं, वहीं गीत के स्थायित्व के लिए प्रयत्नशील मनोज जैन मधुर तथा इसी शैली के लोगों का मैं आह्वान करूँगा  कि  वे सतत और एकजुट होकर लिखना जारी रखें ।
यह एक ऐसा युद्ध है जिसमें योद्धा रणक्षेत्र में जमकर दुनिया बदलने का साहस और सिर्फ कलम से कर सकता है और मैं बहुत आशान्वित हूँ मनोज प्रभृत नवगीतकारों से ।
कुल मिलाकर मनोज जैन मधुर का गीत "हम जड़ों से कट गए हैं" और भविष्य का  एक सफल गीत है और भविष्य का मनोज एक सफल सवाल  और जागृत  नवगीतकार के रूप में सामने आएगा  यही आशा है।
इत्यलम।

परिचय
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राघवेन्द्र तिवारी
जन्म : 30 जून 1953
शिक्षा : पत्रकारिता और जनसंचार तथा हिन्दी में स्नातकोत्तर एवं शोध
कृतियां : 1. 'बीजू की विजय' शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा सन 1971
2."भारत में जनसंचार और संप्रेषण के मूल सिद्धांत" सन 2009 
3."स्थापित होता है शब्द हर बार" ( समकालीन कविता संग्रह )सन 2021 
4."जहाँ दरक कर गिरा समय भी" नवगीत संकलन सन 2015 
सम्प्रति : इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में परामर्शदाता 
पता ई एम -33 , इण्डस टाउन राष्ट्रीय राजमार्ग भोपाल

1 टिप्पणी:

  1. बेहद घटिया लेख। इनसे पूछिए कि ये वाताश का क्या अर्थ ले रहे हैं?

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