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दोहाकार : वीरेन्द्र आस्तिक जी
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ऐसा नहीं है कि सिर्फ इन दिनों ही दोहा और दोहाकार चर्चा में हैं। किसी मित्र के दोहा संग्रह की भूमिका में दोहा छंद की परम्परा और प्रासंगिकता के सम्बंध में मधुकर अष्ठाना जी ने दोहा छंद की उपस्थिति और व्याप्ति की चर्चा ऋग्वैदिक काल से लेकर अब तक याने की सामयिक सन्दर्भ तक की है।

आज दोहे के सामने अपनी अस्मिता की पहचान का आसन्न संकट है। पारम्परिक और समकालीन दोहे में अन्तर की बारीक सी विभाजन रेखा को पहचान पाना आज के दोहाकार के सामने एक बड़ी चुनौती है आज के दोहा में कहीं न कहीं सूक्ष्म नवसंवेदनाएँ हैं तभी वह अपने सामाजिक सरोकारों से जुड़कर अपने समय का प्रतिनिधित्व करता है और समय को नूतन अभिव्यक्ति देता यही नवता इसे नया दोहा बनाती है।

वरेण्य नवगीतकार वीरेन्द्र आस्तिक जी के प्रस्तुत समकालीन दोहे अर्थ की सम्प्रेषणीयता के साथ रस की तत्काल निष्पत्ति में पूरी तरह सक्षम हैं। दोहों की कथन भंगिमा पाठक को अपने से जोड़ लेती है।

पढ़ते हैं दादा आस्तिक जी के समकालीन दोहे

प्रस्तुति
वागर्थ
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अस्त्र बना कर जाति को, करते रहे प्रयोग
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आम्रवनी गदरा गई, मधुवन टपके नूर
पीपल के उतरे वसन, खोले पंख मयूर

वर्षा भी क्या चीज़ है, नरम नरम तासीर
नदिया है उन्मादिनी, सागर है गम्भीर

जन्मदिवस पर पत्र से कैसी मिली मिठास
बहुत दूर रहते हुए, बहुत लगे तुम पास

उजला चंदन माथ पर,हृदय भरा है कीच
फूल झर रहे बात में,कर्म कर रहे नीच

जनता की सरकार को,चला रहे धनवान
जनता टुक-टुक देखती, मँहगी है दूकान

अस्त्र बना कर जाति को, करते रहे प्रयोग
इसीलिए तो जाति के ऊपर उठे न लोग

मजदूरों की हाट में,खड़ा गनेशीलाल
दाता के दर्शन नहीं, चूल्हे की हड़ताल

सड़कों सड़कों जल रहे, नरमेधी श्मशान
राजधर्म ने यग्य के बदल दिए प्रतिमान

सत्ता, साहू,सेठ कब सुनते हैं फरियाद
बन्द दिहाड़ी, बन्द मिल,करे न कोई बात

मेहनत अपना धर्म है,हाथ-पाँव औजार
बन्दी में सब पर लगी जंग हुये बेकार

चित्र सभी फीके लगे,उपमाएं उन्नीस
मृगनयनी भी बीस है, तुम सबसे इक्कीस

पर्त प्रदूषण की छटी,निर्मल बहा समीर
निर्मल गंगा में बहे, मीठा मीठा नीर

तुमने पूछा किस तरह,काट रहे हम वक्त
लिखते, गाते गीत को, रहते हैं हम व्यस्त

नारी के अपमान का, संविधान हो सख्त
रेप' जघन अपराध है, फाँसी का हो तख्त

हिन्दी तेरे सामने, क्या है ये सरकार
अपने हक़ के वास्ते, संसद को ललकार

ध्यान रहे हिन्दी नहीं, है केवल बाजार
विपुल ग्यान-विग्यान का,हिन्दी कोषागार

शब्दों के ध्वन्यार्थ से,हुआ कथ्य विस्तार
समा गया है गीत में एक कथा का सार

बात कहे कैसे यही चलता रहा विमर्श
कवि के जीवन में रहा, भाषा का संघर्ष
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वीरेन्द्र आस्तिक
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