शनिवार, 5 जून 2021

समकालीन दोहा की तेरहवीं कड़ी प्रस्तुति वागर्थ : समूह

समकालीन दोहे की तेरहवीं कड़ी : ज़हीर कुरैशी
     ____________________________________
समकालीन दोहे की दूसरे पड़ाव की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत हैं ज़हीर कुरैशी के दोहे

                       ज़हीर कुरैशी हिन्दी गजल का भले ही एक चर्चित नाम रहा हो परन्तु उन्होंने अपने आप को कभी भी किसी एक विधा से बाँधकर नहीं रखा।उन्होंने आरम्भ में नवगीत लिखे और साहित्य जगत में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए परन्तु गीत के मोहक अन्तरे उन्हें ज्यादा दिनों बांध नहीं सके, जल्द ही उनका नवगीतों और नवगीत विधा से मोहभंग हो गया। विषयांतर का निर्णय लिया और खूब कहानियाँ लिखीं, इसके बाद १९८५ -८६ के दौर में जब  खूब दोहे लिखे जा रहे थे तब उन्होंने दोहे रचे। अपनी उम्र और अनुभव के ताप से उन्होंने कुछ संस्मरण भी सिरजे यह बात और है उनके संस्मरणों वह बात आ न सकी जो बात वह लाना चाहते थे उनका संस्मरणकार कांति कुमार जैन और बच्चन से ज्यादा प्रभावित था।
                             ज़हीर कुरैशी जी को अपने लिखे हुए का उपयोग करना आता था उन्होंने बहुत सी विधाओं में लिखा और अपने लिखे हुए का भरपूर उपयोग किया। ज़हीर कुरैशी जी को दोहा काव्य रूप डेन्स पोइट्री फॉर्म्स कोटेविलिटी की कैपेबिलिटी के चलते ज्यादा पसन्द रहा। उनका मानना था कि उचित समय पर व्यक्ति लंबी बात करने की जगह इसी काव्य रूप ( दोहा ) को उद्धृत करना ज्यादा उपयुक्त समझता है। वे शे'र और दोहे की लोकप्रियता को इसी रूप में देखते थे। दोहों के मुकाबले उनकी हिन्दी गजलें ज्यादा प्रभावी लगी इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए मुझे उनके दोहा संग्रह से उस समय मदद मिली जब मुझे प्रस्तुति के लिए 25 दोहों का चयन करना था किन्तु मैं बड़ी मशक्कत के बाद केवल 15 के आँकड़े को छू सका।
                                  कुरैशी जी ने मुझे एक पुस्तक  'दोहों से दोहा- गज़लों तक ' आज से एक वर्ष पूर्व समीक्षार्थ भेंट की थी।  मैं इस पुस्तक पर तब तो ज्यादा कुछ न लिख सका पर अब उनके दोहे वागर्थ के प्रतिष्ठित मंच पर चर्चार्थ प्रस्तुत करके उनसे किए गए वादे को देर से ही सही पर  सादर निभा रहा हूँ।
           प्रस्तुत हैं तीन दशक पहले लिखे गए उनके कुछ दोहे जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। 
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मंडल
_____________
    
         लपटों में जलते नहीं
         ________________
सबको लड़ने ही पड़े, अपने-अपने युद्ध।
चाहे राजा राम हों,चाहे गौतम बुद्ध।।
यह कह कर बेटा करे, उल्टे सीधे काम।
है उसूल इस दौर में,किस चिड़िया का नाम।।
कौन छीन कर ले गया,जीवन से सुख चैन।
चिन्ताओं में दिन कटे, शंकाओं में रैन।।
मेरे कंधे पर रखी,तुमने भी बंदूक।
किन्तु निशाना इस तरह, होता नहीं अचूक ।।
अंधकार के बाद ही, उगती उजली भोर।
दीन-हीन पकड़े रहे,आशा का यह छोर।।
राजनीति में दोस्तो,कुछ भी नहीं विचित्र।
अनायास पानी बना, अंगारों का मित्र।।
अंधों के राजा बनें, अक्सर काने लोग।
राजनीति करती रही,ऐसे सफल प्रयोग।।
नारी को समझा गया,केवल गर्म शरीर
पौरुष ने समझी नहीं ,नारी मन की पीर।।
चुम्बक जैसा खींचता, सबको अपनी ओर।
चितचोरी को आ गया, फागुन का चितचोर।।
१०
वे ही देते हैं हवा,दंगों को दिन- रात।
लपटों में जलते नहीं, जिन लोगों के हाथ।।
११
जैसे ही उसको हुआ,ढाई आखर ज्ञान।
भाप सरीखा उड़ गया,भीतर से अभिमान।।
१२
धर्म अलग भाषा अलग, फिर भी हम सब एक।
विविध रंग करते नहीं, हमको कभी अनेक।
१३
काला धन करते रहे,मुक्त हस्त से दान।
ये कलयुग के कर्ण हैं, इनका कर सम्मान।।
१४
आजीवन बुनती रही, मकड़ी खुद ही जाल।
वो जाला ही बन गया,जीवन का जंजाल।।
१५
एक युद्ध,फिर दूसरा,ऐसे लड़े अनंत।
लड़ते-लड़ते हो गया,इस जीवन का अंत।।

ज़हीर कुरैशी
__________
पिछली कड़ी का लिंक
_________________

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें