शुक्रवार, 4 जून 2021

डॉ राम स्नेही लाल यायावर जी के समकालीन दोहे


युगबोधसम्पन्न दोहे
-------------------------
        1
है  अभाव  महँगी बिके , अधरों  की मुस्कान।
चलो शहर में खोल लें , चलकर एक  दुकान।।

कॉफी में डूबी  सुबह , थकी-थकी सी शाम ।
भूल गए हम शहर में , आकर  अपना  नाम।।

आँख  सुपर  बाजार में , रखे सड़क पर पाँव।
दफ्तर में सिर रख चले , हम सपनों के  गाँव।।

'मर्डर' करके शील का , 'हवस' हुई  स्वच्छंद।
सिर्फ 'जिस्म' ही नाचता , घर-बाहर निर्द्वन्द ।।

दिखा  रहा  है  देश  में, खुशहाली  के चित्र।
दर्पण  ने  सच  बोलना , छोड़ दिया क्या मित्र।।

है  घायल  पर प्राण में , क्रांति  हुई  आबाद।
दर्पण ने डटकर किया , पत्थर   से   संवाद।।

चेहरे  पर  चेहरे   कई , उस पर पर्दे सात।
राजनीति ने  मुकुर को बतला दी औकात।।

मन  के  दफ्तर में रहा , सदा दर्द  आबाद।
हम   बैठे   करते   रहे, आँसू का  अनुवाद।।

मेरा मन चलकर गया , बाल दिवस के पास।
पथ में ढाबे पर मिला , सपना एक उदास।

उस  दिन  सत्ता ने दिया , घर   त्यौहारी   भोज।
झुका चरण में कलम का, स्वाभिमान जिस रोज।

ज्ञान , ध्यान , संयम भला , कैसे    रहें   स्वतंत्र।
अब  फागुन  पढ़ने  लगा , सम्मोहन  के  मन्त्र।।

महाकाव्य   सी  दोपहर , गजल सरीखी प्रात।
मुक्तक  जैसी   शाम  है,  खण्ड काव्य सी रात।।

तपे  दुपहरी  सास  सी , सुबह  बहू  सी  मौन।
शाम ननद सी चुलबुली, गर्म  जेठ  की  पौन।।
            
सावन -  भादौं  बरसकर , हरें हृदय  का चैन।
ज्यों -ज्यों टपके झोंपड़ी , त्यों-त्यों टपके नैन।।
            
पथहारे  को  पथ  मिला , विरहिन को प्रिय संग।
सूर्यकिरन दिन को मिली , खिले    शरद के रंग।।
             
छूते      मैली      होरही  , ऐसा   उजला   रूप।
फुदक  श्वेत  खरगोश सी , रही  चंचला   धूप।।

ठिठुरन , सिहरन , कम्प ले , और शीत का डंक।
अत्याचारी     शिशिर    ने, फैलाया       आतंक।।

हम सरिता के तट खड़े , लिए पीठ पर भार।
हँसते--हँसते जिंदगी , निकल गयी उस पार।।

पाँव प्रीति के जल गए , झुलस गया अनुराग।
कौन सिरफिरा बो गया , घर-आँगन में आग।।

कुछ दोहे (व्यक्तिपरक)
     1 कबीरदास
शेख , पुरोहित , मौलवी  , सन्त , महंत , फकीर।
वहाँ न पहुँचा एक भी  , पहुँचा    जहाँ    कबीर।।
         2 कुम्भनदास
जिसने तुझको पा लिया , छोड़  दिया  संसार।
क्या अकबर की सीकरी , क्या दिल्ली दरबार।।
         3  राम
तन -निषाद  टेरे  तुम्हें , मन--सुतीक्ष्ण अविराम।
पल -पल यह शबरी-तृषा , रटे  तुम्हारा    नाम।।
        4
साँसें सरयू सी बहें , तन-मन तट निष्काम।
प्राणों के साकेत में , अब  तो  आओ राम।।
           5 जनक
भाव  भक्ति-रस में सना , कर्म रहा निष्काम।
यों  ही  नहीं  विदेह   के, घर तक आये राम।।
            6 भरत
चट्टानों।  पर   चाँदनी , लिखती थी उस शाम।
सदियाँ  वीतीं अब पढा , लिखा भरत का नाम
             7 कौशल्या
सूर्यवंश -वट बीज का , लिए  उदर   में   भार।
भटके  मेरी   जानकी , राम! तुझे   धिक्कार।।
              8शूर्पणखा
विधवा करता एक है , दूजा अपयश धाम।
नारी को सब एक से , रावण हो या राम।।
           9 रामसेतु
विनय न मानी सिंधु ने , रहा न अन्य विकल्प।
गरज उठा तब राम में , जन-जन का सनलप
            10 रावण
सम्मोहन जब स्वर्ण का , कर देता  उद्भ्रांत।
मन बनता है कुटिल तब , दशकंधर विभ्रान्त।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें