शुक्रवार, 18 जून 2021

डॉ महेश मनमीत जी के समकालीन दोहे प्रस्तुति : वागर्थ

दूसरा पड़ाव 
सातवीं कड़ी 
महेश मनमीत
 

समकालीन दोहा का के दूसरे पड़ाव की सातवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं महेश मनमीत के समकालीन दोहे।
       
                      महेश मनमीत पेशे से सफल और कुशल चिकित्सक हैं और सैदापुर ,अकबरपुर ,अम्बेडकर नगर से आते हैं। वे दोहा नहीं लिखते बल्कि दोहा छन्द उनसे लिखवा लेता है।
           दोहा छन्द के वारे में यह तथ्य सर्वविदित है कि यह विधा प्राकृत से आरम्भ होकर हिन्दी मे बहुत लोकप्रिय हुई। विधा की लोकप्रियता के सन्दर्भ में अपनी ओर से यह बात जोड़ना चाहता हूँ। विधा कोई सी भी हो रचनाकार से समर्पण की माँग करती है और समर्पित रचनाकार ही विधा को अपना श्रेष्ठ देते आये हैं। फिर युग भले  कोई सा भी रहा हो !
          आज के युगीन सन्दर्भ कल के सन्दर्भो से मेल नहीं खाते ऐसे में स्वाभाविक है कि आज का दोहा कल के दोहों से अलग ही होगा समकालीन दोहा की कमान महेश मनमीत जैसे प्रातिभ समकालीन दोहाकारों के हाथ में है और सुरक्षित भी !
    महेश मनमीत जी तेरह ग्यारह की मात्राओं के फेर में ना पड़कर जिन जीवनानुभवों की सघन अनुभूतियों को कागज़ पर उकेरते हैं वह स्वतः दोहा बनकर उनके सामने आ जाता है। वे कभी भी निर्दिष्ट विषय या सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते इसीलिए उनके खाते में दोहे का कोई निजी संग्रह अभी तक नही जुड़ पाया है।
         महेश मनमीत ना तो सतसई के फेर में हैं और न ही छद्म दोहाचार्यो के इसीलिए उनके यहाँ एक भी दोहा भरती का ढूँढने से भी नहीं मिलता।
    प्रस्तुत हैं युवा समकालीन दोहाकार
महेश मनमीत के चार दर्जन दोहे
प्रस्तुति
वागर्थ
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1
बचने की मल्लाह ने,कोशिश की भरपूर।
मगर किनारा रह गया,उससे थोड़ी दूर।।
2
सबने  पीकर  वोदका सुलगाई सिगरेट।
नशामुक्ति पे रात भर चलती रही डिबेट।।
3
लिए चने की पोटली,निकला नंगे पांव।
मुझसे मेरी भूख ने,छीना मेरा गांव।
4
खून पसीना बेचकर,मिला यही ईनाम।
उनके हिस्से रोटियाँ,अपने हिस्से काम।। 
5
मण्डी और दलाल जब,तय करते हों रेट।
श्रमिक भला कैसे भरे,अपना पापी पेट।।
6
मिल जाएंगे आपको,जीवन के कुछ रंग।
खाकर देखें रोटियाँ,मज़दूरों के संग।।
7
यहां भूख पर नींद की,रंगत है भरपूर ।
सोता कितने चैन से,थका हुआ मज़दूर।।
8
 फुटपाथों की सर्दियाँ,लगीं मनाने ख़ैर।
लोग सटाकर सो गए,जब छाती से पैर।।
9
जाने ले जाए कहाँ,थोड़ा सा भटकाव।
तू इठलाती सी नदी,मैं कागज की नाव।।
10
बँटवारे का मामला, पहुँचा जब तहसील।
अपने से लगने लगे, मुंशी और वकील॥
11
संगत पर मुझको दिखा, जब दुनियावी रंग।
मैं दुनिया में आ गया, छोड़ सभी सत्संग॥
12
समझौते के नाम पर, थे ऐसे प्रस्ताव।
फिर से जिंदा हो गए, सभी पुराने घाव॥
13
मैं अक्सर इस बात पर, होता हूँ हैरान।
अब उनकी ही पूछ है, जिनके पूँछ न कान॥
14
होगा उस इंसान के, मन में कितना मैल।
बूचड़खाने को दिए, जिसने बूढ़े बैल॥
15
मेरे भी बहके कदम, उसने भी दी छूट।
और सब्र का बाँध फिर, गया एक दिन टूट॥
16
गूँजी, फिर गुम हो गई, सन्नाटे में चीख।
अबला अपनी लाज की, रही माँगती भीख॥
17
ताकतवर कमजोर का, करते रहते खून।
शायद होता है यही, जंगल का कानून॥
18
दौड़ी पूरे गाँव में, कुछ ऐसी अफवाह।
होते-होते रह गया, फिर विधवा का ब्याह॥
19
बूढ़ी आँखें देखतीं, आते-जाते पाँव।
शहर गए बेटा बहू, कब लौटेंगे गाँव॥
20
दुनिया के हर देश में, होगा खूनी खेल।
अगर नहीं काटी गई, आतंकी विष-बेल॥
21
बस सूरत को छोड़कर, हैं गुणधर्म समान।
यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं, बिना पूँछ के श्वान॥
22
खड़ा सरोवर-नीर में, साधे रहता मौन।
बगुले जैसी साधना, कर सकता है कौन॥
23
पीछे मुड़ कर देखिये, हुई कहाँ पर चूक।
केसर वाले खेत में, उग आई बंदूक॥
24
आया है बाजार में, क्या सुंदर बदलाव।
गोबर भी बिकने लगा, देखो गुड़ के भाव॥
25
जब बदले की भावना, लेती है प्रतिशोध।
कब रहता इंसान को, सही गलत का बोध॥
26
बड़भागी है लोग वो जिनके ऐसे मित्र।
रखते हैं जो एक सा, चेहरा और चरित्र॥
27
घर-बाहर दिखती नहीं, बहनें जब महफूज।
कैसा राखी बाँधना, कैसा भैया दूज॥
28
तभी मौत से जिंदगी, अक्सर जाती हार।
सस्ती है बीमारियाँ, महँगा है उपचार॥
29
समझौतों की मेज पर, कूटनीति के दाँव।
रोज गोलियाँ झेलते, सीमावर्ती गाँव॥
30
नई बहू ने बोल दी, जाने कैसी बात।
माँ दिनभर भूखी रही, रोई सारी रात॥
31
साबित करता है यही, मरा-मरा का जाप।
श्रद्धा सच्ची हो अगर, धुल जाते हैं पाप॥
32
गंगाजल रखता नहीं, किंचित मन में बैर।
ज्ञानी करते आचमन, मूरख धोते पैर।।
33
दुनिया की इस भीड़ में, बनता वही नजीर।
लिखता अपने हाथ से, जो अपनी तकदीर॥
34
कलतक जो थे ढूँढते, सबके अंदर खोट।
उनकी हालत आजकल, जैसे जाली नोट॥
35
करना क्या था, क्या किया, चेत सके तो चेत।
समय निकलता जा रहा, ज्यों मुट्ठी से रेत॥
36
गिरा शाख से टूटकर, सूखा पत्ता एक।
जीवन की गति देखकर, चिंतित हुआ विवेक॥
37
नए दौर का आदमी, बदले ऐसे रंग।
काबिलियत को देखकर, गिरगिट भी है दंग॥
38
अफसर को बँगला मिला, नेताजी को ताज।
जनता के हिस्से पड़ा, ढाई किलो अनाज॥
39
हे अर्जुन! रणभूमि में, यही तुम्हारा धर्म।
पूरी निष्ठा से करो, केवल अपना कर्म॥
40
लरकोरी सखियाँ हुईं, घूमें पिय के साथ।
बाबुल अबकी फाग में, कर दो पीले हाथ॥
41
देख दशा इस दौर की,कालचक्र है मौन।
जो ख़ुद चाहे डूबना,उसे उबारे कौन।।
42
तू छोटा मैं हूँ बड़ा,ये कोरी बकवास।
आख़िर में हर कब्र पर,उग जाती है घास।।
43
गिरा शाख से टूटकर,ताज़ा पत्ता एक।
जीवन की गति देखकर,चिंतित हुआ विवेक।।
44
ये मत पूछो हौसला,होती है क्या चीज़।
बंजर धरती फोड़कर,उग जाते हैं बीज।।
45
मुझको बिछड़े आपसे,हुआ ज़रा सा वक़्त। 
और ज़िन्दगी हो गई,जाने कितनी सख़्त।।
46
किसके मन में चोर हो,किसके मन में पाप।
दरवाजे को खोलकर,क्यों सोते हैं आप।।
47
दुनिया की इस भीड़ में, बनता वही नज़ीर।
लिखता अपने हाथ से,जो अपनी तक़दीर।।

डॉ महेश मनमीत
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1 टिप्पणी:

  1. वागार्थ पटल पर आज चार दर्जन दोहों की ऐसी प्रस्तुति है जो दोहों की समकालीनता, मानकता, और भावपक्ष एवं शिल्प सौंदर्य का प्रमाणिक खजाना है। भाषा ऐसी जैसे मेरी तेरी पीर घनीभूत होकर अधरों से शब्दों के परिधान पहन कर उतरी है। और प्यार से नये साल का गिफ्ट थमाकर धीरे से अंतस में शिफ्ट हो जाती है। हालांकि साहित्य में ये सब सौंपने के लिए रचनाकार को कितना परिश्रम करना पड़ा है यह इन पंक्तियों से स्वयं प्रमाणित हो गया है-उर्वर होने में सदा है सबका कल्याण, मिट्टी होने के लिए,घिस जाता पाषाण। समय की शिला पर अंतस की उष्मा से सेंकते हुए जब भावना के तंदुल सामाजिक सरोकारों के रस में पकते हैं तो जो खुशबू आती है वहीं महक आज डॉ महेश मनमीत जी के दोहों ने पटल पर बिखेरी है। मनोज मधुर, महेश मनमीत जी की कलम से जब रसमय परिपाक बनेगा तो"सबकरहित,सुरसरिसम होई "क्यों नहीं होगा। जिंदगी की अन्तर्व्यथा, हौसले की बुलंदी,विवेक की जागृति,और हर कब्र पर उग आने वाली घास की स्थिति में जीवन की परिणिति हो,ये सब भाव कवि की अभिव्यक्ति से बच नहीं सके हैं। वास्तव में दोहों को लिखना और दोहों को जीना , दोनों में बहुत अंतर है, आज का दोहाकार दोहों को जीता है,वो व्याकरण की शास्त्रीयता में न पड़कर,भाव और कहन के प्रति समर्पित रहा है,शायद उसका यही वैशिष्ट्य आमजन के मानस में अपना स्थान बनाने में सहायक रहा है। अपने युग बोध को समेटे कवि जब उपलब्धि गिनाता है तो हर वर्ग को उसमें अपना चेहरा दिखाई दे जाता है-अफसर को बंगला मिला, नेता जी को ताज, जनता के हिस्से पड़ा,ढाई किलो अनाज। बदलते परिवेश और आदमियों की फितरत का दिग्दर्शन इससे बेहतर और क्या होगा,आप भी देखिए- नये दौर में आदमी,बदले ऐसे रंग। काबिलियत को देखकर गिरगिट भी है दंग। कवि छिद्रान्वेषी मनुष्य की दुर्गति को जाली नोट की संज्ञा देकर उसके अस्तित्व की समाप्ति तक की घोषणा कर डालता है-कलतक जो थे ढूंढ़ते,सबके अंदर खोट, उनकी हालत आजकल, जैसे जाली नोट। जीवन में खुशियां और दुःख व्यक्ति के सोच, और व्यवहार से निर्धारित होते हैं, पदार्थ कभी भेदभाव नहीं करता, सुखी जीवन का सूत्र वाक्य बताते हुए कवि कह देता है-- गंगा जल रखता नहीं, किंचित मन में बैर। ज्ञानी करते आचमन,मूरख धोते पैर।
    पारिवारिक स्नेहधारा के छिन्न-भिन्न होने की बात हो या राजनैतिक कूटनीति के कुचक्र, भाई के नाम पर रिश्तों की मर्यादा खोते संबंध हों या चाल चरित्र और चेहरे की एकरूपता के अनुबंध, दोहाकार ने अपने सृजन कौशल से अभिव्यक्ति को संप्रेषणीय तो बनाया ही है साथ ही अनुकरणीय भी। कुल मिलाकर रचनाकार का रचनाकर्म स्वयं बोल रहा है,।
    चूंकि महेश जी स्वयं चिकित्सक हैं इसलिए वे समय की नब्ज टटोलने में माहिर हैं और समाज में फैली कुरीतियों, और व्यवस्थाओं की सर्जरी करना बखूबी जानते हैं। और उन्होंने ऐसा किया भी है। उनकी लेखनी निरंतर सृजन रत रहे यही शुभेच्छा है। भाई मनोज मधुर को धन्यवाद देना चाहूंगा कि वे ऐसे कोहीनूर से परिचित कराने के भागीरथी प्रयास करते रहते हैं।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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