सोमवार, 7 जून 2021

समकालीन दोहा की चौदहवीं कड़ी में माहेश्वर तिवारी जी के दोहे प्रस्तुति मनोज जैन

समकालीन दोहा चौदहवीं कड़ी

दादा माहेश्वर तिवारी 
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समकालीन दोहा में आज दूसरे पड़ाव की चौथी कड़ी में प्रस्तुत हैं प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के चुनिन्दा दोहे
 
            बहुत कम लोग ऐसे होते हैं  जिनकी लेखनी का परस पाकर सृजन सोने में बदल जाता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी उनमें से एक हैं, जिनका सारा सृजन चमकदार है। चाहे नवगीत हों या दोहे उनके यहाँ क़्वान्टिटी की बजाय क़्वालिटी वर्क ज्यादा है।
                                      प्रस्तुत समकालीन दोहे भी आज के लिखे नहीं हैं परन्तु आज जो लिखा जा रहा है उन दोहाकारों को, अपने सृजन को मापने का पैमाना जरूर हैं। अस्सी के दशक में दोहा कितनी ऊँचाईयों पर था इसका अंदाजा कम से कम इन दोहों को पढ़कर लगाया जा सकता है।
दादा माहेश्वर तिवारी जी अपने आपको मूलतः गीत कवि ही मानते हैं और इस बात को लेकर स्वधर्मे निधनं श्रेयः की हद तक प्रतिबद्धता उनके यहाँ देखी जा सकती है।
हाँ, यदि उन्हें आस्वाद परिवर्तन के लिए गीत के अलावा कुछ लिखना भी तो वे स्तर से कम्प्रोमाइज बिल्कुल भी नहीं करते। हम सब उनकी इस प्रस्तुति से यही प्रेरणा ले सकते हैं।
              दोहा छन्द को लेकर यश मालवीय जी के कथन को  दोहराना समीचीन होगा वे कहते हैं कि " दो पंक्तियों में बड़ी बात कहना छोटे फ्रेम में आसमान मढ़ने जैसा है "।
 आइए पढ़ते हैं दो पंक्तियों के कैनवास में सुरमई आसमान जड़े दोहे।

   प्रस्तुति
   वागर्थ
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    उधर साजिशों के नये बुने जा रहे जाल
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वस्त्र पहनकर गेरुआ, साधू सन्त फकीर ।
नये मुकदमों की पढ़ें, रोज नयी तहरीर।।

परिवर्तन के नाम पर, बदली क्या सरकार ।
रफ्ता रफ्ता हो रहा ,पूरा देश बिहार ।।

चिन्तित हैं शहनाइयाँ, गायब हुई मिठास ।
बिस्मिल्ला के होंठ की,पहले जैसी प्यास ।।

रिश्तों  के बदले हुए, दिखते सभी उसूल ।
भैया कड़वे नीम- से,दादी हुई बबूल ।।

आँखों में दाना लिये, पंखों में आकाश ।
जाल उठाए उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास ।।

दाने -दाने के लिए,चिड़िया है बेहाल ।
उधर  साजिशों के नये ,बुने जा रहे जाल ।।

मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान ।
सूरज बाँटे रेवड़ी,चाँद चबाये पान।।

क्या सपने क्या लोरियाँ,खाली-खाली पेज ।
जिनकी नींदों को मिली,फुटपाथों की सेज ।।

लाकर पटका समय ने, कैसे औघट घाट।
अनुभव तो गहरे हुए, कविता हुई सपाट।।

शामें लौटीं शहर की,अंग लपेटे धूल।
सिरहाने रख सो गयीं, कुछ मुरझाये फूल।।

कैसे कैसे लोग हैं,कैसे कैसे काम ।
जाकर कुंज-करील में, ढूँढ रहे हैं आम।।

खुश है रचकर सीकरी,नया -नया इतिहास।
हैं उसके दरबार में,हाज़िर नाभादास।।

भोग रहे इतिहास का,हैं अब तक दुर्योग।
तक्षशिला को जा रहे,नालन्दा के लोग।।

पुल की बाँहों में नदी,मछली-सी बेचैन।
अनहोनी के साथ सब ,दे बैठी सुख-चैन।।

बरगद से लिपटी पड़ी, है बादल की छाँव।
घेरे बूढ़े बाप को, ज्यों बेटे की बाँह।।

तन की प्रत्यंचा खिंची, चले नज़र के तीर।
बच पाया केवल वही,मन से रहा फकीर।।

लाक्षागृह सबके अलग,क्या अर्जुन क्या कर्ण।
आग नहीं पहचानती,पिछड़ा दलित सवर्ण।।

सारंगी हर साँस में, मन में झाँझ मृदंग।
फागुन आते ही हुए, साज हमारे अंग।।

एक आँख तकती रही, दूजी रही उदास।
इन दोनों में ही बँटा, जीवन का इतिहास।।

खुली पीठ से बेंत का ,ऐसा हुआ लगाव।
लिये सुमरनी हाथ हम,गिनते कल के घाव।।

माहेश्वर तिवारी
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