रविवार, 6 जून 2021

लक्ष्मी नारायण पयोधि जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ समूह

समूह वागर्थ प्रस्तुत करता है राजधानी भोपाल के चर्चित वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मी नारायण पयोधि जी के नवगीत
           
            कुछ दिनों पहले भास्कर के एक मोटिवेशनल कॉलम अनंत ऊर्जा में रतन टाटा को पढ़ रहा था। लेख के अंत में उन्होंने लिखा था कि एक नोबल प्राइज विनर स्वयं अपने आप से कभी भी यह नहीं कहेगा कि उसे नोबल प्राइज मिला है। 
              उसकी चर्चा आपसे हमेशा दूसरे लोग ही करेंगे। इस कथन की गम्भीरता पर वागर्थ में प्रस्तुत आज के कवि लक्ष्मी नारायण पयोधि जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सौ फीसदी खरी उतरती है। बहुभाषी और बहुआयामी पयोधि जी आज के इस विज्ञापनी युग में स्वयं भले ही कम बोलते हों परन्तु जब भी बोलता है तो सिर्फ उनका काम। 
            'एक्शन स्पीक्स लाउडर दैन वर्डस' में पढ़ते हैं उनके कुछ चुनिंदा नवगीत
      समूह को सामग्री उपलब्ध कराने के लिए हम आपके आभारी हैं।
   ______________________________________
     

प्रस्तुति 
वागर्थ 
संपादक मण्डल
____________

लक्ष्मीनारायण पयोधि के गीत

(1)

गीतघट छलकायें

हृदय मादल-ढोल
साँसें बाँसुरी
           हो जायें।
शब्द
वनवासी युवक-से
बाँधकर
पाँवों में घुँघरू
गीतघट छलकायें।

फुनगियों के कंठ में
यों धूप के
        गहने पड़े हैं।
ज्यों नदी की रेत पर
बगुले
  कतारों में खड़े हैं।
डूबतीं-तिरतीं
नयन के पोखरों में 
स्वप्न बनकर
मछलियाँ बहलायें।

गाँव की 
पगडंडियों पर
धूल का
     आकाश होता।
फूल महुए के
खिले तो
उम्र का
    अहसास होता।
खिलखिलातीं-
     गुनगुनातीं
डालकर गलबाँह
सखियाँ
गंध-मधु बिखरायें।

ताम्रवर्णी आम्रतरु में
झूमते हैं
         स्वर्ण झूमर।
महकतीं साँसें
हवा में घुल गये
         कर्पूर-केसर।
गिलहरी के
चपल मन के घाव
    गहरे कौन देखे?
चलो,हम सहलायें।
 गीतघट छलकायें।

(2)

*याद आता गाँव*

याद आता गाँव।
नदी-तट पर
 साधना रत
वृद्ध वट की छाँव।

उनींदे बुझते
अलावों में
जागते थे स्वप्न
           उत्सव के।
ढोल मादल बाँसुरी
रेला१
बोल मीठे
     उत्स वैभव के।
पूर्णिमा के
चाँद का उल्लास
        मन के घाव।
   याद आता गाँव।

वन्यफूलों की
सुगंधों में
नहाकर आती
       हवा हर दिन।
टोकना भर 
     धूप लेकर ज्यों
लौटती घर
शाम को माड़िन२।
पसीने के
मोल का
वो साहुकारी भाव।
   याद आता गाँव।
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१.गोण्ड स्त्रियों के गीत (रेलापाटा...रे-रेला...रेला) 
२. माड़िया जनजाति की स्त्री।

(3)

*फिर नदी की देह भीजी*

फिर उफनतीं भावनाएँ,
कामना निर्बंध रीझी।
फिर नदी की देह भीजी।

आज ऋतु ने
   वस्त्र बदले,
आज तुलसी
 फिर नहायी।
जागतीं 
साधें अपरिचित
फिर ख़ुशी की
    गंध छायी।
स्वप्न का 
उत्सव मनेगा,
रात तिनकों पर पसीजी।

उल्लसित हैं
वनस्पतियाँ,
पंछियों ने गीत गाये।
धूप वाले मेघ बरसे,
इन्द्रधनु
फिर खिलखिलाये।
सृष्टि का अनुराग
बिखरा,
दृष्टि क्यों अनमनी-खीजी।
  फिर नदी की देह भीजी।

(4)

भीतर-भीतर बहती

एक नदी
करती कोलाहल
भीतर-भीतर बहती।
क्षण-क्षण चोटें
चट्टानों की
अंतस्तल में सहती।

कभी भावना-सी
उद्दाम
तोड़ती तटबंधों को।
और उदास-निढाल
कभी
भूली जीवन-छंदों को।
कभी दौड़ जाती
समतल में
कभी शिखर से ढहती।

उमड़-घुमड़कर
साँसों में
आँसूजल बनकर
                  छलके।
निखर उठी
कुछ और वेदना
शब्दों में फिर ढल के।

करुणा की
अंत:पयस्विनी
  मनोभूमि में रहती।
भीतर-भीतर बहती।

(5)

कुछ मुझे कहना नहीं है

आज क्यों मेरे हृदय में
एक ज्वालामुखी जागा?
भावनाओं का 
       निरंतर गर्म लावा।

शब्द साधे
ज़िन्दगी के अर्थ की
       गहराइयों तक,
वेदना को बेचना
      लेकिन न आया।
डूबकर जो लिखे मैंने
जागरण के गीत थोड़े,
नींद के बदले
महज़ इतना कमाया।

दिशाओं में कभी गूँजे
तो सृजन यह
              जी उठेगा।
कुछ मुझे कहना नहीं
        इसके अलावा।

है यही कोशिश
कि मैं इंसानियत के
             बीज बोऊँ,
बहुत मुश्क़िल
पर कलम का 
           हल चलाना।
कामना है,
फ़सल लहके,
स्नेह के दाने बिखेरे,
क्या कठिन,
दो बोल से
        अपना बनाना?

शुद्ध मन की सुगंधों से
रूप आत्मा का खिलेगा,
क्यों निरर्थक हम करें,
             कोई दिखावा।
कुछ मुझे कहना नहीं,
            इसके अलावा।

(6)

ओ तपस्वी मन

ओ तपस्वी मन!
साधना की आँच में
कितना तपा जीवन?

शब्द बोये हैं
कलम का
   हल चलाकर।
मुग्ध है 
संवेदना की
  फ़सल पाकर।
मूक पीड़ा 
भोगते रहते
 सृजन के क्षण।
ओ तपस्वी मन!

वेदना के अतल में
    जो रत्न पाया।
वेणु के
कोमल स्वरों में
          उसे गाया।
स्वप्न-बिरवे
याद करते हैं
       सदा बचपन।
   ओ तपस्वी मन!

आरती के थाल में
     अक्षर सजाये।
धूप गंधित
कुमकुमी
     श्रमगीत गाये।
क्यों करूँ
नैवेद्य-अक्षत
    या करूँ चंदन?
  ओ तपस्वी मन!

(7)

शब्द मौसम का प्रवक्ता

आदतों से बाज आओ!
हर जगह 
        मत मुँह बजाओ!
शब्द ताकत हैं,
ज़रूरत के लिये 
           इनको बचाओ!

शब्द 
अन्वेषण समय का,
शब्द में 
अनुभव निहित है।
शब्द  
पुरखों की विरासत,
संपदा 
 सबको विदित है।

शब्द ने 
भाषा गढ़ी,
तासीर 
   भाषा की बढ़ाओ!

शब्द   
मर्यादा मनुज की,
शब्द ही  
       संस्कार भी है।
शब्द से  
इज़हार नफ़रत,
शब्द से   
       मनुहार भी है।

शब्द 
मौसम का प्रवक्ता,
शब्द में 
    उल्फ़त जगाओ!

(8)

व्याकुल प्रार्थनाएँ

हर कथन के पार
अनगिन
अर्थ की संभावनाएँ।
चुप्पियों के बीच
कुछ होतीं
   मुखर अंतर्कथाएँ।

देह की भाषा सरल,
आसान
मन का व्याकरण है।
नेह के मकरंद से
सुरभित
सुमन का आचरण है।
वर्जनाओं से
निडर हैं
    पारदर्शी कामनाएँ।

हैं परिंदों पर
 लगीं घातें
शिकारी कौन लेकिन?
प्रश्न संसद में खड़ा,
उत्तर हमेशा
            मौन लेकिन।
हो रहीं निष्फल-
निरर्थक, भ्राँत
     व्याकुल प्रार्थनाएँ।
चुप्पियों के बीच
कुछ होतीं
     मुखर अंतर्कथाएँ।

(9)

ठगे हुए हैं

किसे पड़ी है?
मेरे मन की कौन सुनेगा?
सब अपने गुनतारे में ही
                  लगे हुए हैं!

जो अपने थे,
धीरे-धीरे हुए पराये।
मुसीबतें
घर आयीं अक्सर
         बिना बताये।

क्या अफ़सोस 
करें अब 
   होना है जो होगा!
सभी जानते,
हम तो केवल
            ठगे हुए हैं!

हालचाल फिर
पूछ रहा,
     कोई मतलब है।
बिना स्वार्थ के
उसने ली
    मेरी सुध कब है?

बड़ी कुशलता से
वह कोई जाल बुनेगा,
काम निकलने तक
हम उसके
              सगे हुए हैं!
सभी जानते,
हम तो केवल
              ठगे हुए हैं!

(10)

पाँखुरी की मौन भाषा

कामना की इन्द्रधनुषी
एक तितली डोलती है।
स्वप्न का संसार रचती,
  उम्र में रस घोलती है।

फूल की आत्मा सुगंधित,
     हैं अधर पर अर्चनाएँ।
एक दुख हो तो कहे मन,
     अनगिनत हैं वेदनाएँ।
पाँखुरी की मौन भाषा
      भेद सारे खोलती है।

ज़हर तो पीता समंदर,
भोगते परिणाम सारे।
तुम कहो प्रारब्ध,लेकिन
दुख सभी अर्जित हमारे।
ज्वार-भाटे के क्षणों में
  लहर कोई बोलती है।
कामना की इन्द्रधनुषी
एक तितली डोलती है।

(11)

करे मदहोश फागुन को

हवा की पालकी में बैठकर
उड़ती फिरे चंचल
सुकन्या गंध महुए की
करे मदहोश फागुन को।

हुलसकर झूमते पल्लव,
सुमुख रक्तिम पलाशों के।
खनकतीं बौर किंकिणियाँ,
       जुटे मेले सुवासों के।
सृजन तल्लीन है जंगल,
सुनो,उस बाँसुरी-धुन को।

मनाते पेड़ फिर उत्सव,
     बयारें हैं उमंगों की।
खिले हैं इन्द्रधनु कितने?
  गगन से वृष्टि रंगों की।
रिझाती कोकिला मन से,
किसी अनजान पाहुन को।
   करे मदहोश फागुन को।

(12)

एक सत्य का अमृत क्षण हो

अपनों  जैसा अपनापन हो!
सपनों जैसा औघड़ मन हो!

दुविधाओं के अंतरिक्ष में
शापित अँधियारों का रोदन।
सुविधाओं का मोह न छूटा,
       छूट गया पीछे संवेदन।
उत्कर्षों के संधिकाल में
एक सत्य का अमृत क्षण हो!

समझौतों में उलझा जीवन,
      संघर्षों का ताना-बाना।
पगडण्डी से टूटा नाता,
   राजपथों से आना-जाना।
रहे भरोसा संबंधों में
नहीं स्वार्थ का कोई कण हो!
एक सत्य का अमृत क्षण हो!

(13)

तुमने बदली हर परिभाषा

जब जी चाहा,
जैसा चाहा,
तुमने बदली हर परिभाषा!

हो सदैव अपने अनुकूल
परिस्थिति
      क्या ऐसा संभव है?
मानो तो 
हर घटना प्रतिपल 
जीवन का
      अभिनव उत्सव है!
सोच-विचार
बदल जाये तो
बदले हर अवसर अभिलाषा!

बिना लक्ष्य के किसे 
कब मिली,
किस प्रयास में पूर्ण सफलता?
निश्चय दृढ़ हो तो यह सच है,
काम न कोई कल पर टलता।
संकल्पों से ही पूरी 
हो पाती है मन की हर आशा!
    तुमने बदली हर परिभाषा!

(14)

खेतों में फ़सल गाने चला

है बहुत आसान
करना सूर्य की आलोचना,
क्या नज़र उससे
मिलाने का तुम्हें है हौसला?

तुम अँधेरे के ज़हर को
     पी सकोगे तो कहो!
रोशनी के दूत बनकर
    जी सकोगे तो कहो!

बादलों की साज़िशों को,
तोड़कर सारे ग्रहण,
यातनाओं का सफ़र तुम
   कर सकोगे क्या भला?

वह किरण का गीत बनकर
           जगाता संसार को।
इन्द्रधनुषी रंग,
फूलों में सुगंधित प्यार को।

बाँटकर मेहनतकशों को
शक्ति संचित चेतना,
मंदिरों में मंत्र,
खेतों में फ़सल गाने चला।
क्या नज़र उससे
मिलाने का तुम्हें है हौसला?

(15)

गीत सब अधूरे हैं

अभी कहाँ पूरे हैं?
गीत सब अधूरे हैं!
दुख का 
अवसान अभी बाक़ी है!
जीवन का 
      गान अभी बाक़ी है!

भावों से शब्दों का  
          जोड़ नहीं।
अनुभव का 
अर्थ में निचोड़ नहीं।
सच का  
संधान अभी बाक़ी है!
जीवन का  
   गान अभी बाक़ी है!

कुछ सपने  
ज़िद करके आये हैं।
कुछ अपने   
     हो गये पराये हैं।
कुछ का 
आह्वान अभी बाक़ी है!
जीवन का  
     गान अभी बाक़ी है!

लक्ष्मीनारायण पयोधि
________________

23 मार्च 1957 को महाराष्ट्र में जन्मे लक्ष्मीनारायण पयोधि आदिवासी अंचल बस्तर (छत्तीसगढ़) में पले-बढ़े।

18 काव्य संकलनों सहित कुल 41 पुस्तकें प्रकाशित।

आदिवासी संस्कृति और संघर्ष पर केन्द्रित काव्यकृति 'सोमारू' का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद।कुछ कविताएँ-कहानियाँ तेलुगू में अनूदित-प्रकाशित।

आदिवासी भावलोक पर आधारित काव्यकृति 'लमझना' चर्चित।नाट्य रूपांतरण भी।

जनजातीय जीवन,संस्कृति और भाषाओं में विशेष रुचि।
गोण्डी,भीली,कोरकू आदिवासी भाषाओं के शब्दकोशों के अलावा जनजातीय संस्कृति और कलाओं पर पाँच शोधग्रंथ और अनेक शोध-आलेख प्रकाशित।

सन् 1910 (बस्तर) के आदिवासी विद्रोह भूमकाल पर आधारित काव्यनाटक 'गुण्डाधूर' और जनजातीय मान्यताओं पर आधारित काव्यनाटक 'जमोला का लमझना' के अनेक मंचन।

जनजातीय जीवन-संस्कृति पर केन्द्रित विभिन्न डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के लिये शोध-आलेख।

अनेक पुरस्कार-सम्मानों से अलंकृत।

पिछले 31 वर्षों से मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में निवास।

मध्यप्रदेश शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग की विभिन्न संस्थाओं में अकादमिक (संपादन-अनुसंधान) दायित्वों का निर्वाह।
सेवा निवृत्ति के बाद कुछ समय तक विशेषज्ञ सलाहकार की जिम्मेदारी भी।

वर्तमान में स्वतंत्र लेखन।

संपर्क : मो.नं. 8319163206
ई मेल : payodhiln@gmail.com

लक्ष्मीनारायण पयोधि
A-1, लोटस रो,स्प्रिंगवैली,
कटारा हिल्स,बाग़मुगालिया,
भोपाल-462043(मध्यप्रदेश)
मो.नं. 8319163206
Email : payodhiln@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर भावों को आपने सृजन कुशलता से शब्दों में पिरोया🙏🙏

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  2. हार्दिक आभार आदरणीया जया केतकी जी

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