हर युग में नया है दोहा-
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रास्ता एक है। उस रास्ते पर चलने वाले पथिक अनेक होते हैं। हमसे पहले भी अनेक राहगीर उस रास्ते से होकर गुजरे होते हैं और हमारे बाद भी अनेक राहगीर उस रास्ते से होकर गुजरेंगे। अगर हम समकालिक की परिभाषा कुछ अन्य संदर्भों में ना गृहण करें तो वे सभी समकालिक हैं जो एक समान समय में जीवित है अथवा क्रियाशील है पर साहित्य मनीशीयों ने समकालिकता की परिभाषा अपने ढ़ग से गढ़ रखी है अथवा बना रखी है। मुझे किसी समकालिक रचनाकार से कोई कठिनाई नहीं हैं। एक ही मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक यात्री का लक्ष्य प्रथक हो सकता है, उद्वेश्य प्रथक हो सकता है, साधन और संसाधन प्रथक हो सकते हैं, अनुभव प्रथक हो सकते हैं, देश, काल, परिस्थितियां भी प्रथक हो सकती है पर इस सच्चाई से कौन इंकार कर सकता है कि वे सब एक ही पथ के पथिक हैं। भले ही वे पुरातनता के साथ चल रहे हों अथवा नवीनता और आधुनिकता को अपना कर अपनी एक विशिष्ट पहचान बना कर चल रहे हों। अंततः वे सभी एक ही मार्ग के राहगीर हैं।
यह बात मैं अपने अनुजतम मित्र मनोज जैन मधुर को लेकर कह रहा हूं। मैं उनके दोहों पर किये जा रहे सराहनीय कार्य की प्रशंसा कर रहा हूं। मेरी दृष्टि में मनोज जैन अपार सम्भावनाओं से भरे हुए एक वरिष्ठ रचनाकार है। उनकी तथा मेरी कोई तुलना नहीं है। मैं उन रचनाकारों में से हूं जो केवल आत्म-तुष्टी के लिए लिखते हैं। मुझ में किसी सम्भवना को तलाशना व्यर्थ होगा। इस लिए मैं मात्र नाम का अपेक्षित हूं। बहरहाल मैं बात मनोज जैन की कर रहा हूं। मुझे उनसे लगाव है। लगाव इस लिए है कि वे मेरे जिले शिवपुरी से संबंधित हैं। उन्होंने शिवपुरी जिले के एक छोटे से ग्राम बामोर-कलां (खनियाधाना) से उठ कर प्रदेश की राजधानी भोपाल में अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है और देश में उनकी अपनी ख्याति है। उनसे मेरा लगाव इस लिए भी है कि जिस ग्राम से वे संबंधित हैं वहां मेरे भी जीवन के महत्वपूर्ण तीन-चार साल व्यतीत हुए हैं। अपनी वाल्यावस्था में ही मैंने उस गांव की स्थितियों और परिस्थितियों को भोग लिया था।
आज ब्रह्ममहूर्त में मनोज जैन मधुर की समकालिक दोहाकारों की 15वी कड़ी पढ़ी। यह कड़ी श्री वीरेन्द्र आस्तिकजी के समकालीन दोहों पर केन्द्रित है। अभी तक आप क्रमश: देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, कैलाश गौतम, डाॅ उर्मिलेश, माणिक वर्मा, शिवबहादुरसिंह भदोरिया, .राधेश्याम शुक्ल, महेश अनघ, विश्वप्रकाश दीक्षित, यश मालवीय, दिनेश शुक्ला, भारतेंदू मिश्र, विनय मिश्र, जहीर कुर्रेसी, महेश्वर तिवारी और वीरेन्द्र आस्तिक के समकालिक दोहों को अपने पटल पर प्रस्तुत कर चुके हैं। प्रत्येक कड़ी में मनोज जैन की रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतत्व पर एक टिप्पणी भी होती है जो दोहों में समकालिकता के तत्वों को उजागर करती है। मैंने मनोज जैन की नवगीत को लेकर कोई पोस्ट पढ़ी हो अथवा ना पढ़ी हो पर दोहों को लेकर उनकी प्रत्येक पोस्ट को पढ़ा है। उसका कारण है-नवगीत सम्भवतः मैंने इस लिए नहीं पढ़े कि वे मैं लिखता नहीं। उन्हें समझ पाने और आत्मसात करने का सामर्थ तथा ज्ञान शायद मेरे पास नहीं हैं। दोहों में मेरी रुचि है, इस लिए मैंने उन्हें पढ़ा है। दोहे मैंने लिखे भी हैं। मेरे लिखे दोहों की संख्या दो-तीन हजार भी हो सकती है पर उनमें कितने समकालिकता की कसोटी पर खरे उतरेंगे, यह मैं कह नहीं सकता। मैंने दर-असल कभी भी, कुछ भी किसी भी कसोटी पर खरे उतरने के लिए लिखा भी नहीं है। जो हृदय में भाव उभरे उन्हें कागज पर उतार दिया। मेरी प्रतिबद्धता लेखन के साथ है किसी विशेष काव्यगत आंदोलन अथवा विचारधारा के साथ नहीं। सच्चाई तो यह है कि जब मुझे यह अनुभव में आया कि अनेक काव्यगत आंदोलन या वाद मात्र अपने आप को स्थापित करने के लिए ही खड़े किए गये मेरी इन काव्यगत-आंदोलनों से आस्था जाती रही। हिन्दी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में जो 1857 के बाद प्रारम्भ होता है उसमें भारतेंदू, महावीरप्रसाद द्विवेदी, छायावाद, रहष्यवाद, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद की बात को थोड़ा अलग करके देखें तो बाद के जितने भी वाद हैं वे केवल वादविवाद के लिए अथवा अपने आपको स्थापित करने के लिए खड़े किए गये हैं। इन वादों की गणना करना अगर असम्भव नही ंतो कठिन अवश्य है। छन्द मुक्त कविता, रबड़ छन्द की कविता, अकविता, नई कविता, समकालिक कविता, जनवादी कविता, प्रगतिवादी कविता, आमआदमी की कविता, दलित विमर्श नारी विमर्श की कविता, प्रपद्यवादी कविता, नकेनवादी कविता, नवगीत, अगीत, प्रगीत, और नई गजल पता नहीं कितने काव्यगत आंदोलन खड़े किए गये। जिस आम-आदमी की बात कविता में की गई, उसी आम-आदमी से कविता कोसों दूर हो गई। अब तो हिन्दी कवि-सम्मेलन भी मात्र विदूशक सम्मेलन होकर रह गए हैं। दोहा किसी भी युग का क्यों न हो वह आम-आदमी से जुड़ा रहा, आज भी जुड़ा है। जीवन का ऐसा कौनसा क्षेत्र है जहां दोहे की प्रमुखता के साथ उपस्थिति नहीं हैं। हमारी दैनिक बोलचाल की भाषा या बोली में अनचाहे और अनजाने कोई दोहा बरबस फूट पड़ता है।
अच्छा है मनोज जैन ने दोहे के साथ ऐसा कुछ ऐसा विशेषण नहीं जोड़ा जो आज के दोहे को परम्परागत दोहे से अलग कर सके। समकालिकता से भी उनका आशय कथ्य और प्रतीकों तथा विम्बों की नवीनता के साथ है। समकालिकता से उनका आशय कथ्य की नवीनता से है। पर दोहे की प्राचीनता के साथ उनका कोई टकराव नहीं है। उन्होंने माना है कि दोहे की परम्परा अतिप्राचीन है। वैदिक ऋचाओं में भी दोहे के अंडाणु खोज लिए गए है पर उसे प्रतिष्ठा अपभ्रंश काल में मिली। अपभ्रंशकाल से दोहे का अस्तित्व लगातार बना रहा है। दोहा हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का छन्द है। दोहा वह पहला छन्द था जिसमें तुकों को मिलाने या जोड़ने का प्रयास पहली बार किया गया। प्राचीन सिद्ध कवियों, जैन कवियों ने अपने ग्रंथ दोहे,चैपाई व सोरठों में लिखे है। हिन्दी का प्रथम कवि पुष्य को माना गया है जिसका समय 770ईसवी के लगभग माना जाता है पर उसकी कोई रचना प्राप्त नहीं है। इस लिए सिद्ध कवि सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि मान लिया गया। हिन्दी का प्रथम गाथा ग्रंथ ‘‘ढोलामारूरादोहा‘‘ भी दोहों में लिखा गया है। सिद्ध कवियों में सरहपा के अलावा शबरपा, भूसुकुपा, लुइपा, विरूपा, डोम्भिपा, दारिकपा, गुंडरिपा, कुक्कुरिपा, कमरिपा, कणहपा, गोरक्षापा, तिलोपा, शान्तिपा ऐसे कितने रचनाकार है जिन्हांने अपभ्रंश में दोहे लिखे हैं। इसके बाद जैन कवि आते हैं। अपभ्रंशकाल के प्रमुख जैन कवि हैं-1.स्वयंभू देव, 2.आचार्य देवसेन सूरी, 3.श्रीमाइल्लधवल, 4. पुष्पदंत, 5.धनपाल, 6.मुनि रामसिंह, 7.अभयदेव सूरी, 8.चन्द्र मुनि, 9.कनकामर मुनि, 10.श्रीणयणंदि मुनि, 11.जिनवल्लभ सूरी, 12.जिनदत्त सूरी, 13.हेमचन्द्र सूरी, 14.हरीभद्र सूूरी, 15.शालिभद्र सूरी, 16.सोमप्रभ सूरी, 17.जिनपद्म सूरी, 18.विनयचन्द्र सूरी, 19.धर्मसूरी, 20.विजय सेन सूरी, 21.मेरुतुंग, 22.अम्बदेव सूरी, 23.राजशेखर सूरी, 24.असगू है। नाथ सम्प्रदाय के ग्रंथों में दोहों की संख्या कम या ना के बराबर है। इसी तरह वीरगाथा काल के रासों ग्रंथों में दोहों की रचनायें कम की गई हैं किन्तु इसके बाद तो दोहाकारों की सूची बहुत लम्बी है। भक्तिकाल में सगुण तथा निर्गुण धारा के कवियों में अनेक दोहाकार हुये हैं। राति-काल के रीतिबद्ध,रीतिसिद्ध,और रीतिमुक्त कवियों ने भी दोहे लिखे हैं। इसी काल में रहीम और बिहारी जैसे दोहाकार हुए। भारतेंदूकाल के कवियों ने भी दोहे लिखे हैं। बाद के समय में बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे इक्का-दुक्का दोहाकारों को छोड़ दिया जाये तो दोहे कम लिखे गए पर बाबा नार्गाजुन से लेकर काका हाथरसी आदि कवियों ने दोहों को अपनाया। वर्तमान में भी हिन्दी के अनेक रचनाकार दोहे रच रहे हैं और उन्होंने दोहे को नई गजल या नवगीत के सामान्तर लाकर खड़ा कर दिया है। दोहा कभी पुराना या जीर्ण-क्षीर्ण नहीं हुआ। वह हर युग और काल में पुर्ननवा होकर सामने आया है।
दोहा केवल हिन्दी की तमाम बोलियों में ही नहीं फूला-फला अपित सिक्खों के धर्मगुरुओं का प्रिय छन्द भी दोहा रहा। मराठी में अभंग लिखे गए। उर्दू वालों ने भी दोहे को कम महत्व नहीं दिया। सूफी संत परम्परा में कितने ही संत ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने संदेश देने के लिए दोहे को ही अपनाया है। भक्तिकाल के बाद रीतिकाल और अंत में आधुनिक काल-दोहा सच्चे अर्थों में अमरत्व का वरदान प्राप्त कर के आया है। आधुनिक तथाकथित प्रगतिशील रचनाकारों ने इसकी जड़ों में भरपूर मठा डाला पर यह अपने जन्म से आज तकं किसी न किसी रूप में जीवित रहा। मैं दोहे लिख कर एक तरह से अपने गुरु ऋण से मुक्त होने का प्रयास कर रहा हूं। मेरे गुरु प्रो.रामकुमार चतुर्वेदी चंचलजी ने ही पहलीबार शिवपुरी नगर के रचनाकारों से यह आग्रह किया था कि उन्हें हिन्दी के विलुप्त होते जा रहे छन्द-परम्परा पर काम करना चाहिए और उन्होंने लगभग आदेश दिया था कि अगली गोष्ठी में प्रत्येक रचनाकार कम से कम एक दोहा लिख कर लाये। उनकी इसी बात को बाद में हरि उपमन्यूजी और गीतकार हरीश चन्द्र भार्गवजी नेे भी अन्य अवसरों पर दोहराया। ये दोनों भी मेरे गुरु रहे हैं। एक तरह से दोहों पर काम करके मैंने इनके ही आदेश‌ का पालन किया है। ये बात और है कि इसे उर्दू गजल का विरोध मान कर एक उस्ताद शायर ने अपनी तलवार खींच ली और बात को व्यक्तिगत शत्रुता तक ले आये। उनका भेजा गया बकील का नोटिस मेरे पास आज तक सुरक्षित है। पर उनके इस नोटिस ने मुझेे दोहे को पढ़ने और समझने की ओर प्रेरित किया। वे ना होते तो सम्भवतः मुझे दोहों के बारे में इतना पढ़ने और जानने की अभिरुचि जाग्रत ना होती। आज ना तो गजल उर्दू बोलने वाले मुसलमानों की सम्पत्ति रह गई है और ना दोहों पर हिन्दी बोलने वाले हिन्दुओं का एकाधिकार है। मैं तो कहूंगा दोहा तो हमेशा से किसी भी साम्प्रदायिक सोच से ऊपर का छन्द रहा है ना माने तो भैया जरा इन निर्गुण सूफी संतो ंके नाम पढ़ लें जिन्होंने दोहों में ही अपनी बात कही है। ये इस्लाम के निराकार ईश्वर को मानने वाले सूफीसंत हैं और इनमें ऐसे कितने हैं जो दलित हैं, मुसलमान हैं और कितनी महिलायें हैं- धन्ना, पीपा, सेन, रैदास, कबीर, धर्मदास, मलूकदास, सुथरादास, दादूदयाल, वीरभान, धरणीधर, लालदास, बाबालाल,शेख फरीद, स्वामी प्राणनाथ, रज्जब, सुंदरदास, यारीसाहब, दरिया साहब (मारवाड़ वाले), दरिया साहब (बिहार वाले), बुल्लासाहब, गुलालसाहब, केशवदास, चरनदास, बालकृष्ण नायक, अक्षर आनन्य, भीखासाहब, गरीबदास, जगजीवनदास, रामचरण, दूलनदास, स्वामी नारायणसिंह, दयाबाई, सहजोबाई, रामस्वरूप, सहजानंद, तुलसीसाहब, पलटूदास, गाजीदास, जम्भनाथ, हरिदास निरंजनी, सींगा, जमाल, बाबरी साहिबा, प्रभूति, भीशन, वीरभान, निपट निरंजन, वाजिन्दजी, कमाल, वशना, हरिदास, शाह वरकतुल्ला, धरनीदास आदि।
कहने का आशय मात्र इतना ही है कि दोहा एक अति प्राचीन छन्द है। यह जितना हिन्दी का है उतना उर्दूवालों का भी है। जितना सगुण संतों का है उतना निर्गुण और निराकार ईश्वर को मानने वालों का भी है। यह दलितों और महिलाओं का छन्द है। यह लोक का छन्द है,साहित्य का छन्द है। यह दोह छन्द उस समय का छन्द है जब हमारी हिन्दी का जन्म भी नहीं हुआ था। उर्दू का भी तब नामोनिशान नहीं था। दोहा हमारे अतीत का छन्द है, हमारे वर्तमान का छन्द है और दोहा हमारे भविष्य का भी छन्द है। दोहा दोहा है-इसे किसी विशेषण या अलंकार की आवश्यकता नहीं है।
अंत में मनोज हो सकता है हम सहयात्री न हों पर एक ही रास्ते पर चलने वाले दो अलग-अलग राहगीर अवश्य हैं। तुम मुझसे बहुत आगे हो, बहुत आगे और मैं तुम्हारा अग्रज होते हुए भी तुम्हारे बहुत पीछे और इस बात पर मुझे कुंठा नहीं गर्व है। मैं सच्चे हृदय से यह मैं मानता हूं पर मैं तुम्हारे द्वारा दोहे को लेकर किये जा रहे कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं। ये बात और है कि मुझे आधुनिकता के साथ अपनी सनातन परम्परा की भी चिंता है-बस।
अरुण अपेक्षित
11 जून 2021
इंदौर