मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

सुभाष वशिष्ठ जी के नवगीत और अनामिका सिंह की टीप

~।।वागर्थ।। ~
              में आज प्रस्तुत हैं आदरणीय सुभाष वसिष्ठ जी के नवगीत 

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   बहुआयामी व्यक्तित्व सुभाष वसिष्ठ जी की संवेदनशील क़ल़म ने आखरों से चेतना बोयी है , हमारे इस कथन से उनके नवगीतों का पाठक भी इत्तिफ़ाक़ रखेगा। लिखने को तो बहुत लोग लिख  रहे हैं लेकिन लेखन वही समर्थ व सार्थक , जो समय की आँख में आँख डालकर बात कर सके , वंचित की पीर को स्वर दे , गलत का विरोध कर सके ,सच के साथ काँधे से काँधा मिलाकर खड़ा हो सके ।
    हम खूब टटके बिम्ब ले आयें , मुहावरेदार भाषा के रजत वर्क में रम्य  गीत रच दें ऐसा सृजन  पाठक को पल भर सोचने को विवश न करे तो उस लेखन का क्या अर्थ और क्या अभीष्ट ! 
      भले ही हम उस लेखन को सोशल मीडिया के विभिन्न  मंचों पर कितना ही सराहें किन्तु जब बात मूल्यांकन की हो तब कहना न होगा कि क्या ऐसा सृजन वर्तमान व भविष्य के साथ न्याय कर सकेगा!
      हमें यह कहने में कतयी गुरेज नहीं कि स्वभाव से अति विनम्र व शिष्ट  सुभाष वसिष्ठ जी ने अपने नवगीतों  में समय की विसंगतियों , दोमुँही नीतियों  व प्रवंचनाओं को कथ्य बनाया है , जोकि आवश्यक , अनुकरणीय व श्लाघनीय है ।
       संदेशप्रद व सार्थक नवगीत सृजन हेतु वागर्थ आपको बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।

                            समूह वागर्थ के लिये 
                        ~ अनामिका सिंह 

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(१)
सच न बहरा है
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जी नहीं पाते हमेशा के लिए  
सूत्र सतही दृष्टिकोणों में पगे 

औपचारिकता तहत 
ख़ामोशियों का क्रम 
एक हद होगी  ! 
मात्र दिखने को  
अपर से लोक की ख़ातिर 
हम नहीं योगी 

चीत दो चहरे मठों के इस क़दर 
फिर न कोई बिन्दु  
ख़ुद तक से ठगे ! 

जीतने या हारने का हर प्रतिष्ठा-प्रश्न  
सिर्फ़ अ-धरा है  
सूर्य होने  
लाख करवाओ निरन्तर घोषणा  
सच 
न बहरा है  

काट दो शातिर रिवाजों को लिये  
तार 
ठण्डी आग वाले जाल के ! 

(२)

सत्ता ने चाहा... 
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सत्ता ने चाहा है अंधकार राज करे 
ताकि सदा लुटे रहें हम ! 
सहमे उनवान की कसम 
लुटते इन्सान  की कसम  

रमुआ की जिनगी तो  
लाला की  बही  में गयी  
फूल सी बहनिया भी  
ब्याज लिखी सही में गयी  

लाला ने चाहा है करजदार ब्याज मरे  
ताकि सदा लुटे रहें हम  
बहना के मान की कसम 
रमुआ की जान की कसम 

गठी देह सुरसतिया  
बिन सिँदूर भाल क्या हुई  
सामन्ती आँखों से  
फूटी, लो, दया  की  नदी  

सामन्ती चाह यही माथे-भर गाज गिरे 
ताकि सदा लुटे रहें हम 
डिगते  ईमान  की कसम 
जालिम श्रीमान की कसम  

पन्ना  पन्ना  आखर  
ज्यों ही कुछ बोलने लगा  
दमन लिप्त मौसम का  
सिंहासन  डोलने  लगा  

मौसम ने चाहा है कुंठित आवाज करे  
ताकि सदा लुटे रहें हम  
टूटे अरमान  की  कसम 
अंधे भगवान  की  कसम   

सत्ता ने चाहा है अंधकार राज करे  
ताकि  सदा लुटे रहें हम ! ...... सच में ...... !

(३)

मैं फँसा टुकड़ा हवा का
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चक्र है गतिमान टेढ़ा 
और उसमें 
मैं फँसा टुकड़ा हवा का ! 

हैं दबावों के नियोजन
ढोंग की निर्लज कथाएँ 
धूर्तता का चलन हावी
संग्रहालय  में  ऋचाएँ 

चित हुआ बीमार ऐसा 
फिरे दर-दर 
ढूँढ़ता पुर्ज़ा दवा का !

मैं फँसा टुकड़ा हवा का! 

हो रहा भवितव्य धूमिल 
युग-निराली-चाल शातिर 
अकारण ही पात्र शापित 
सृजनधर्मी  हो  गया थिर 

पड़ गयीं नीली शिराएँ 
अग्नि प्रश्नित
हाल है ठण्डा अवाँ का ! 

मैं फँसा टुकड़ा हवा का! ।

(४)

नदी ने बुरा माना  -
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फिर हुईं उद्दाम लहरें  
फिर नदी ने बुरा माना  
गुम हुए अस्तित्व तट के  
ढूँढते  कोई  ठिकाना  

हुईं शाखें छिन्न-भिन्ना 
पत्र थर-थर काँपते से  
वृक्ष डटने के प्रयासी  
समय के पल भाँपते से

एक हलचल का उदय है  
ताल लय का बिगड़ जाना  

फिर नदी ने बुरा माना  

जल थपेड़ों पर हवा है
या हवा पर जल थपेड़े
फेन की विक्षिप्त रचना
रुद्र ध्वनि के विकट बेड़े

कण उठें हर बार गिरने  
प्रकृति का ताना न बाना  

फिर नदी ने बुरा माना  

शिला-खण्डों का उछलना
टूट कर  आकाश  में  है 
जल-सतह पर धम्म गिरना  
दृश्य  आँखों  से  परे  है  

तीव्र गति की धार पर,सच, 
कब  हुआ  है  पार  पाना  

फिर नदी ने बुरा माना  

जलाप्लावित पूर्ण घाटी
डरी बहकी यों प्रवाहित
चाबुकी   दण्डाधिकारी 
करे निर्मम ज्यों प्रताड़ित

शून्य की नियमावली को  
जान कर भी नहीं जाना ! 

फिर हुईं उद्दाम लहरें  
फिर नदी ने बुरा माना !

(५)

पंख का नुचना 
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एक चिड़िया 
झेलती है 
पंख का नुचना 

गिद्ध लिये वहशीपन 
घेरते 
खुली चोंच पर
जिह्वा फेरते 

चीख धाड़ें 
विरचती हैं 
चीख का घुटना  

एक चिड़िया 
झेलती है 
पंख का नुचना 

पंजों को जकड़ 
खींच आवरण 
जीवित ही देते 
उसको मरण 

भरी आँखें 
देखती हैं 
स्वयं का लुटना 

एक चिड़िया 
झेलती है
पंख का नुचना

(६)
नम्र होने का नहीं मतलब बनो कमजोर-
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नम्र होने का नहीं मतलब 
बनो कमज़ोर 
या तमस के हाथ में ख़ुद 
सौंप दो तुम भोर !

छिपे उसके
किटकिटाते दाँत होते हैं 
सिलसिले जड़ कालिमा के पाँत होते हैं 

लिये उनचस पवन 
शातिर 
ताँसता घनघोर  

नम्र होने का नहीं मतलब 
बनो कमज़ोर !

चाल शतरंजी रगों में 
भरम पैदा कर 
कुछ वज़ीरों,ऊँट,घोड़ों 
से नपा कर घर 

मारता है निरे पैदल,दाब,
जुमलाखोर 

नम्र होने का नहीं मतलब 
बनो कमज़ोर !

शब्द में तिरते इरादों से 
बचे रहना 
'अन्ततः' के लक्ष्य ख़ातिर 
'तुरत' को सहना 

साथ है आँसू ढले 
आवाज़-बिन,का,शोर !

नम्र होने का नहीं मतलब 
बनो कमज़ोर  !

(७)

सूरजमुखी सहते रहे
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स्याह पंजों की जकड़ का
दर्द
सूरजमुखी सहते रहे
उस पड़ोसी ताल की
लहर तक से बे-कहे

पत्तियाँ आकाश
हवा यों बिथुरी
दो ध्रुवों को नाप आई
गन्ध में, उपराग में
कौंधती बिजुरी

सख़्त धरी में
बचा कुछ भुरभुरापन
प्राणों से गहे
सूरजमुखी सहते रहे
स्याह पंजों की जकड़ का
दर्द

(८)

जहरीला  परिवेश हो गया 
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लाएँ क्या गीतों में ढूँढ़कर नया ?
ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया !

चिकने-चुपड़े से कुछ शब्दों में
अँकुराए तिरस्कार बीज
सार्वभौम सत्य का बखान करें
जिन्हें नहीं झूठ की तमीज़

धुएँ की हवाओं में, कौन, कब जिया !

कहने को सतरंगी चादर है
पर, भीतर बहु पानीहीन
आसमान छू लेने को तत्पर
बिन देखे पाँव की ज़मीन

प्रतिभा के हक़ में क्या सिर्फ़ मर्सिया ?!!

(९)

धूप की ग़ज़ल
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शुरू हुई
दिन की हलचल
गए सभी
लोहे में ढल

देह दृष्टि
लिपट गई
ताज़े अख़बारों से
शब्द झुण्ड
निकल पड़े
खुलते बाज़ारों से

गुनता मन
धूप की ग़ज़ल

एक उम्र और घटी
तयशुदा सवालों की
बाँझ हुई सीपियाँ
टीसते उजालों की

चौराहा : माथे पर बल !

(१०)

पारा कसमसाता है -
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साँस ही मुश्किल
नियत आन्दोलनों
आबद्ध
पारा कसमसाता है
धुन्ध के आग़ोश में
जकड़ा
ठिठुरता गीत
अग्नि ले
मुस्कराता है

हर हवा का तर्क अपना
और उसकी पुष्टि में
जेबित
सहस्रों हाथ
एक सहमा
चिड़ा नन्हा
खोजता
चोरी गए
जो क़लम औ’ दावात

मुक्ति क्रम में
पाँव कीलित
मृत्युभोगी चीख़ लेकर
पंख रह-रह
फड़फड़ाता है ।

       ~ सुभाष वसिष्ठ 

परिचय~

परिचय -जन्म ४नवंबर १९४६
जन्मस्थान - सिकन्दरपुर काकोड़ी ,हापुड़ ,उत्तर प्रदेश
प्रकाशित कृतियाँ -बना रह ज़ख्म तू ताजा (नवगीत संग्रह )

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