बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

विष्णु विराट जी पर एक टीप





विष्णु विराट चतुर्वेदी जी के दो गीतों के बहाने गीत/नवगीत के सामयिक संदर्भ पर :चर्चा
टिप्पणी
मनोज जैन
106 विट्ठल नगर
गुफा मन्दिर रोड़
लालघाटी
भोपाल
462030
                                    फेसबुक पर पिछले कुछ वर्षों से,विशेषकर नवगीतकारों की पोस्ट पर चस्पा टिप्पणियों की बात करें तो,मेरे देखने में यह आया कि आयातित विशेष विचारधारा से प्रभावित लोग जब नवगीतकारों के रचनाकर्म में सांस्कृतिकबोध के कुछ शब्दों को देखते हैं, तो ऐसे,बिदक जाते हैं मानों किसी ने साँड़ को लाल कपडा दिखा दिया हो,बात केवल यहीं तक हो तो भी ठीक,कि साँड़ थोड़ी देर बिदक कर स्वतः शांत हो जाएगा पर अपनी छद्ममान्यताओं के चलते ऐसे का-पुरुष वैचारिक हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।और वह यह भी नहीं देखते कि उनकी स्वयं की टिप्पणियों से वे स्वयं को, सामाजिक समरसता के सम्बन्धों से,काटते चले जा रहे हैं,और बजाय मानुषी प्रकृति के अपने अंदर एक निरंकुश पशु को फलने फूलने का अवसर दे रहे हैं जो समाज के साथ साथ स्वयं के लिए सबसे ज्यादा घातक है।
            नवगीत को सही सही समझने के लिए मैने यहाँ  गाजियाबाद के ख्यात नवगीतकार डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा जी के एक लघु आलेख का सहारा लिया है।जिसमें वह कहते हैं कि विचारधारा के स्तर पर,किसी भी रचनाकार को,किसी भी अन्य रचनाकार से,किसी भी किस्म की, कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। और ऐसा तभी होगा जब आपका दृष्टिकोण विराट होगा। जैसा कि हम सभी को विदित है कि एकांगी दृष्टिकोण के मूल में हमेशा कट्टरता होती है और जहाँ कट्टरता है,वहाँ हिंसा है,फिर वह विचारों की ही क्यों न हो!
                         आज की नवगीत प्रस्तुति में प्रस्तुत हैं कीर्तिशेष विष्णु विराट चतुर्वेदी जी के दो नवगीत,जिनमें सांस्कृतिकबोध के बहुतेरे शब्द हैं,जिन्हें देखकर बहुत से लोगों का हाइपर होना स्वाभाविक है पर मेरे लिए उनके गीत इस टिप्पणी और परिभाषा के साथ पढ़वाने का मजा ही कुछ और है !
      1,जनवरी 46 आगरा उत्तरप्रदेश  में जन्में बिष्णु विराट चतुर्वेदी  जी के आत्म कथ्य पर यदि नवगीत के सन्दर्भ में विचार करें तो नवगीत उनके लिए बुद्धि विलासी आमोद नहीं है बल्कि नवगीत में राग,रंग,लय, ताल,छन्द,रस और लोकाग्रही रुझान की आत्मीयता भी है ,जो अन्यत्र नहीं है,इसीलिए आम आदमी के बीच जिंदा हैं,लोक इन्हें गुनगुना रहा है,इन्हें जी रहा है और आत्मसात भी कर रहा है।
        कीर्तिशेष विष्णु विराट जी के यहाँ दो गीत प्रस्तुत हैं पहले गीत में मिथकीय सन्दर्भ के सहारे वे राजा युधिष्ठिर के मिस व्याप्त विसंगतियों को उकरते हैं और उनके स्थायी निदान के लिए वह आम आदमी में छिपे पौरुष को ललकारते हैं कुल मिलाकर गीतकार अपने कौशल से पूरे मिथक को व्यवस्था से जोड़कर सामयिक सन्दर्भ में मिथक को बड़ी खूबसूरती से जोड़ देता है।
            अब आते हैं दूसरे गीत पर गीत में सुमरिणी शब्द पर मेरा ध्यान गया पूरे गीत को अनेक कोणों से पढ़ने पर मुझे लगा गीतकार विष्णु विराट जी ने सुमरिणी को यहां बिम्ब के रूप में रखा जिसमें हमें हमारी पूरी सांस्कृतिक विरासत और संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।
                 लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति ने भारतीय सांस्कृतिक संस्कारों की जड़ों में मठ्ठा डालने का काम किया परिणाम स्वरूप हम संस्कारों के अभाव में मनुष्य से कब पशु होते चले इसका पता ही नहीं चला! 
दोनों नवगीत अद्भुत और अनुपमेय हैं।

                       यह बात तो हुई विराट जी की,साथ ही यह रहा नवगीतकार डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा जी द्वारा लिखा पारिभाषिक लघु आलेख जिसे नवगीत के साधकों को और रचनाकारों को न केवल पढ़ना चाहिए बल्कि इसे आत्मसात कर गहरे भी उतारना चाहिए।
बकौल योगेन्द्र दत्त शर्मा"नवगीत विधा छह दशक पुरानी हो चुकी है। पिछले कुछ दिनों से यह विधा चर्चा का विषय बनी हुई है। नवगीत की सीमाओं और संभावनाएं विमर्श के केन्द्र में हैं। लोग अपनी-अपनी मान्यताएं और अवधारणाएं प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन कोई निश्चित स्वरूप सामने नहीं आ पा रहा।
नवगीत का संसार बहुत विशाल है। उसमें आज का युग यथार्थ, आम आदमी कासंघर्ष,सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिकविसंगतियों-विडंबनाओं से लेकर प्रेम-प्रकृति-परंपरा-इतिहास-संस्कृति-उच्चतर मानव मूल्य... सब कुछ समाहित हो सकता है। नवगीत का फलक अपनी शुरुआत से ही व्यापक रहा है। इसके शुरुआती दौर में केदारनाथ अग्रवाल, शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, नईम, देवेन्द्र शर्मा इंद्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, विद्यानंदन राजीव, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, गुलाब सिंह, ओम प्रभाकर, रमेश रंजक, नचिकेता, कुमार रवीन्द्र,शांति सुमन, राजकुमारी रश्मि, राम सेंगर, विनोद निगम आदि वरिष्ठ रचनाकारों का अपनी-अपनी तौर से योगदान रहा है।
ये सभी रचनाकार एक ही विचारधारा के नहीं थे, फिर भी सबने नवगीत को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान किया और महत्वपूर्ण बात यह है कि विचारधारा के स्तर पर किसी भी रचनाकार को किसी अन्य रचनाकार से किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं थी। इनमें से कुछ रचनाकार नवगीत के सांचे में स्वयं को सहज अनुभव नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने जनगीत नाम से एक अलग काव्य विधा का आंदोलन खड़ा किया और उसके अंतर्गत रचनाएं प्रस्तुत करते रहे। हालांकि अंततः जनगीत भी नवगीत का ही हिस्सा बन गया।
नवगीत का फलक इतना व्यापक और विस्तृत है कि उसमें लगभग हर समकालीन संवेदना समा सकती है। ऐसे में किसी भी विषय को नवगीत के लिए हेय, त्याज्य, निषिद्ध ,अस्पृश्य अथवा अप्रासंगिक समझना उसके विस्तार को संकुचित करके उसके साथ अन्याय करना होगा। सौभाग्यवश नवगीत की शुरुआती पीढ़ी के कई रचनाकार अभी हमारे बीच मौजूद हैं और कई तो ,अभी भी सक्रिय हैं। इस संदर्भ में उनके विचारों से भी लाभान्वित हुआ जा सकता है।
नवगीत का मूल्यांकन करते समय उसकी व्यापकता वाले आयाम को ध्यान में रखने पर ही उसका समग्र मूल्यांकन उचित होगा। सीमाबद्ध होकर हम उसे समझ सकने में पूर्णतया सफल नहीं हो सकते। तब तो 'हाथी और चार अंधे' वाली कहानी ही चरितार्थ होगी। सीमित अथवा संकीर्ण दृष्टि से किया गया कोई भी समीक्षात्मक, समालोचनात्मक या मूल्यांकनपरक कार्य रचना ही नहीं, नवगीत विधा के प्रति भी अन्याय ही होगा।"



विष्णु विराट जी के दो नवगीत
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राजा युधिष्ठिर!  

यक्ष-प्रश्नों का 
जहाँ पहरा कड़ा हो 
जिस सरोवर के किनारे भय खड़ा हो 
उस जलाशय का न पानी पीजिए 
राजा युधिष्ठिर! 

बन्द-पानी में
बड़ा आक्रोश होता 
पी अगर ले आदमी बेहोश होता  
प्यास आख़िर प्यास है 
सह लीजिए 
राजा युधिष्ठिर!  

जो विकारी वासनाएँ 
कस न पाये 
मुश्किलों में जो कभी भी 
हँस न पाये 
कामनाओं को तिलांजलि दीजिए 
राजा युधिष्ठिर!  

प्यास, जब सातों, समन्दर 
लाँघ जाये 
यक्ष, किन्नर, देव, नर सबको हराये 
का-पुरुष बनकर जिये तो क्या जिये 
राजा युधिष्ठिर?  

पी गयी यह प्यास
शोणित की नदी को 
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बे-तुकी को
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर!

मंत्र है यह  
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मंत्र है यह, भजन है यह, प्रार्थना है 
इसे दूषित हाथ से छूना मना है,  
यह प्रतिष्ठा है मेरे घर की  
यह सुमिरनी है पितामह की!

राम हैं इसमें, अवध है, जानकी है 
छबि इसी में कृष्ण की मुस्कान की है 
वेद इसमें, भागवत, गीता, रमायन  
आसुरी मन वृत्तियों का है पलायन  
गीत है, गोविन्द का गुनगान है ये  
भूमि से गोलोक तक, प्रस्थान है ये 
थाह है हर भ्रान्ति के तह की  
यह सुमिरनी है पितामह की! 

ज़िन्दगी भर एक निष्ठा पर रहे जो 
टूट जाना किन्तु झुकना मत- कहे जो 
प्रान है, इसमें पवन है, आग भी है ज्ञान है, 
वैराग्य है, अनुराग भी है  
अडिग है विश्वास, निष्ठा का समर्पन, 
व्यक्ति के सद्भाव का सम्पूर्ण दर्पन,  
यह बगीची याद की महकी, 
यह सुमिरनी है पितामह की!
लेखकीय सहयोग हेतु धन्यवाद
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