~।।वागर्थ।।~
में आज
प्रस्तुत हैं,शलभ श्रीराम सिंह के पाँच नवगीत
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प्रस्तुति
मनोज जैन
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शलभ श्रीराम सिंह जी के नवगीत
1 -- चंपा ने
चम्पा ने
जब पलाश को देखा
थोड़ी-सी और खिल गई!
एक की हथेली ने पोंछ लिया
दूजे के माथ का पसीना
सहसा आसान हो गया जीना
बिन खोजे राह मिल गई!
चम्पा ने
जब पलाश को देखा
थोड़ी-सी और खिल गई!
ईहा की बँधी हुई मुट्ठियाँ
जीवन के उठे हुए पाँव
देख--फर्क अपना खो बैठे हैं
जाड़ा-बरसात-- धूप-छाँव!
कुण्ठा की नींव हिल गई!
चम्पा ने
जब पलाश को देखा
थोड़ी-सी और खिल गई!
2-- जलकुंभी
जल कुम्भी गंगा में बह आई है!
यहाँ भला कैसे रह पाएगी हाय,
बँधे हुए जल में जो रह आई है!
जल कुम्भी
नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अक्सर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊंगी शायद--
घाट-घाट कह आई है!
जल कुम्भी
बरखा की बूँद हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज़्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दुख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है!
जल कुम्भी
3 --
ताल भर सूरज
ताल भर सूरज--
बहुत दिन के बाद
देखा आज हमने
और चुपके से
उठा लाए--
जाल भर सूरज!
दृष्टियों में बिम्ब भर आकाश--
छाती से लगाए
घाट
घास
पलाश!
तट पर खड़ी बेला
निर्वसन
चुपचाप
हाथों से झुकाए--
डाल भर सूरज!
ताल भर सूरज...!
4 -- दिन निकलता है
बहुत ही नन्हें-नरम दो हाथ
छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ
खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है!
दिन निकलता है!
खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी
रैक-टेबिल खाट पर बिखरी
सीढ़ियों-सड़कों-दुराहों पर
जिसे ओढ़े बिलबिलाता नगर चलता है!
आख़िरी क़तरा लहू का : शाम!
एक बदसूरत अंधेरा : व्यस्तता का
व्यवस्थित परिणाम
टूटने को नसें खिंचती हैं
धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है!
दिन निकलता है!
5 -- स्वतंत्र्योत्तर भारत
बादल तो आ गए
पानी बरसा गए
लेकिन यह क्या हुआ? धानों के--
खिले हुए मुखड़े मुरझा गए!
हवा चली--शाखों से अनगिन पत्ते बिछुड़े!
बैठे बगुले उड़े।
लेकिन यह क्या हुआ? पोखर तीरे आकर--
डैने छितरा गए!
बादल तो आ गए...!
दूब हुलस कर विहँसी--जलने के दिन गए!
सूरज की आँख बचा--ईंट की ओट में
निकलने के दिन गए!
लेकिन यह क्या हुआ? पानी को छूते ही
अँखुए पियरा गए...!
निरवहिनों ने समझा--गीतों के दिन हुए!
पेंगों के पल हुए--कजरी के छिन हुए!
लेकिन यह क्या हुआ? आपस में
सब के सब झूले टकरा गए!
बादल तो आ गए...।
परिचय
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"शलभ से हिन्दी कविता का एक नया गोत्र प्रारम्भ होता है | उन्हें किसी मठ में शरण लेने की आवश्यकता नहीं है |" ---नागार्जुन
नाम : शलभ श्रीराम सिंह
पिता : श्री राम खेलावन सिंह
माता : श्रीमती वासुदेवी सिंह
जन्म : ५-११-१९३८
जन्म स्थान :
ग्राम मसोदा, जलालपुर, जिला फ़ैजाबाद (आंबेडकर नगर), उ.प्र.
रचना की मूल प्रेरणा :
युयुत्सा | हिन्दी नवगीत को जन-बोध का धरातल प्रदान करने वाले प्रथम कवि | युयुत्सा कविता के पुरस्कर्ता और युयुत्सावाद के प्रवक्ता
प्रकाशन :
कल सुबह होने के पहिले (१९६६), इन द फ़ाइनल फेज (अंगरेजी अनुवाद १९७४), अतिरिक्त पुरुष (१९७६), घुमंत दरा जॉय कड़ा नाडार शब्द (बांग्ला) (१९७६), त्रयी-२ में संकलित (१९७७), राहे-हयात (१९८२), निगाह-दर-निगाह (१९८३), नागरिक नामा (१९८३), कब्रिस्तान में सावधान-सत्यजित रे के उपन्यास का अनुवाद (१९८३), अपराधी स्वयं (१९८५), पृथ्वी का प्रेम गीत (१९९१), ध्वंस का स्वर्ग (१९९१), उन हाथों से परिचित हूँ मैं (१९९३)
सम्पादन :
अनागता, परम्परा, रूपाम्बरा, निराला, गल्प-भारती, युयुत्सा, अप्रत्याशित, नया विकल्प, कर्बला, सेवा संसार, अनुगामिनी (दैनिक), दिगंत (दैनिक)
अप्रकाशित :
उंगली में बंधी हुई नदियां (नवगीत संकलन), एक गीत देश (काव्य), कारक (कहानी संग्रह), काबेरी (नाटक), शाम-ए-सफ़र (उर्दू कविता), उत्तर-संवाद (युयत्सावादी काव्य दर्शन कि व्याख्या), प्यार की तरफ जाते हुए (काव्य), दूसरे वृक्ष पर (काव्य), जीवन बचा है अभी (काव्य), फिलहाल इतना ही (काव्य)
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