बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के दस नवगीत प्रस्तुति: वागर्थ

योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के दस नवगीत
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                        नवगीत प्रेमियों के मध्य कम समय में चर्चा में आये समूह वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं कवि योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के दस नवगीत ।
                     योगेन्द्रदत्त शर्मा जी की सुदीर्घ साधना की बानगी उनके नवगीतों में देखने को मिलती है।पिछले चार दशकों से नवगीत के अध्याय में निरन्तर नया जोड़ने के मामले में योगेन्द्रदत्त शर्मा जी अपने समकालीन रचनाकारों में अग्रणी हैं।शर्मा जी के बारे में एक बात और जगजाहिर है जिसे यहाँ जोड़ना मुझे जरूरी लगा वह यह कि योगेन्द्रदत्त शर्मा जी अपने दैनंदिन में कम और नवगीतों में ज्यादा बोलते हैं।
                            यद्धपि आपने अपने बहुआयामी सृजन में गीत यहाँ तक की पारम्परिक गीत भी लिखे परन्तु आप की पक्षधरता मूलतः नवगीत में ही है।

प्रस्तुति
वागर्थ संपादन मण्डल
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1
तेवर बदले हैं
..................

यह क्या हुआ
समय को आखिर
स्वर बदले, तेवर बदले हैं !

विदा हुई सौम्यता, सरलता
हावी है बस आक्रामकता
सच्चाई को झुठलाती है
मोहक, मादक-सी भ्रामकता
     तथ्य सिसकते हैं कोने में
     कथ्यों के अक्षर बदले हैं !

चपल जुगनुओं की बस्ती में
कहीं खो गया है ध्रुवतारा
नक्कारों के घमासान में
शोक मनाता है इकतारा
     बदल गई भंगिमा गगन की
     हर पंछी ने पर बदले हैं !

पांव नहीं टिकते धरती पर
लगा रहे हैं बड़ी छलांगें
चुका मनोबल, पूरी करते
निष्ठुर, धृष्ट समय की मांगें
     बड़े जतन से हाथ लगे जो
     वे स्वर्णिम अवसर बदले हैं !

सरस, सुवासित गली-मुहल्ले
बदले नीरस कालोनी में
स्वस्तिक, शुभता, सगुन, सुमंगल
बदल गये हैं अनहोनी में
     उपवन की हरियाली बदली
     नदी, ताल, निर्झर बदले हैं !
               देवमूर्ति बनना था जिनको
               वे पावन प्रस्तर बदले हैं !                 
2

और आगे बढ़ रहा है
............................

एक कवि है
यातनाओं के शिविर में सड़ रहा है !
एक कवि है
जो न चक्कर में किसी के पड़ रहा है !
बस निरंतर
कीर्ति के प्रतिमान नूतन गढ़ रहा है !

कर रहा है प्राणपण से
वह अमरता को सुनिश्चित
हां, किसी भी मूल्य पर
यश चाहिये उसको अभीप्सित
     फेसबुक पर हो उपस्थित
     गीत सस्वर पढ़ रहा है !

है सकल साहित्य उसके लिए
केवल एक उत्सव
सभ्यता ढोये भले ही
नित्य संस्कृति के नये शव
     सफलता के नित नये सोपान 
     प्रतिपल चढ़ रहा है !

एषणाओं, कामनाओं की
कहीं सीमा नहीं है
वेग उसका है प्रगति पर
हो रहा धीमा नहीं है
     और आगे.... और आगे...
     और आगे बढ़ रहा है !

सामने उसके नये
संभावनाओं के क्षितिज हैं
रत्न के भंडार, मणियां हैं
स्फटिक, मुक्ता, खनिज हैं
     मोरपंखी लेखनी पर
     स्वर्ण परतें मढ़ रहा है !
                    और भी कितने न जाने
                    वह नगीने जड़ रहा है !              
3

दर्द ही तो है
...............

दर्द ही तो है
उमड़ता है
आंख से भी चू पड़ा होगा !
अन्यथा मन की गुफाओं में
भित्तिचित्रों-सा जड़ा होगा !

कौन कब तक रख सका आखिर
दर्द को चुपचाप सीने में
घुमड़ता रहता निरंतर ही
अनकहा संताप सीने में
     जो सहेजे है उसे, उसका
     आत्मबल कितना कड़ा होगा !
      वह नियंत्रण के लिए भीतर
      स्वयं से कितना लड़ा होगा !

हादसों की मौन गूंजैं का
सिलसिला भीतर मचलता है
धमनियों कै कोंचता पल-पल
दर्द ही करवट बदलता है
     क्या असंभव, हादसा कोई
     कील-सा मन में गड़ा होगा !
     समूचा अस्तित्व भहराकर
     बस पलस्तर-सा झड़ा होगा !

ज्वार था, आवेग था कोई
जो कि सहसा ही छलक आया
रोकने की, की बहुत कोशिश
लांघ दी सीमा, न रुक पाया
     गहरती संवेदना का क्षण
     वेदना से भी बड़ा होगा !
     निकल आने के लिए बाहर
     बेतरह जिद पर अड़ा होगा !
               दर्द है, जितना दबायेंगे
              .एक दिन वह उठ खड़ा होगा !               

4
संकट में मज्झिम निकाय है
...................................

कपिलवस्तु से श्रावस्ती तक
हाट, वीथिका से बस्ती तक
सहमा-सहमा नीति-न्याय है
जनसाधारण निस्सहाय है !

पाटलिपुत्र ताकता रहता
गुमसुम चेहरा वैशाली का
बिम्बिसार के राजमहल में
टूटा स्वप्न आम्रपाली का
     राजतंत्र में आत्ममुग्धता
     हुई सुजाता है परित्यक्ता
     मग्न राजसिंहासन खुद में
     कुछ न सूझता जनहिताय है !

फूलीं-फलीं रंगशालाएं
ऊंघ रही हैं विद्वत् परिषद
ढाक शिखर पर होते शोभित
गया रसातल में हर बरगद
     मर्यादा का होता वध है
     समारोह में लिप्त मगध है
     हर वेला है उत्सव-वेला
     जो कुछ है, स्वांतःसुखाय है !

पानी उतरा चैतवनों का
प्यासे लौट रहे अभ्यागत
बोधिसत्व के नीचे आकर
बैठ गये उद्विग्न तथागत
     सोच रहे बैठे समाधि में
     घिरे दीनजन घोर व्याधि में
     कैसे होगा कष्ट-निवारण
     क्षुधा-शांति का क्या उपाय है !

संयम, शील पराजित, पल-पल
सीमाओं के अतिक्रमण हैं
भद्रलोक में शेष न कोई
निर्वासित हो चुके श्रमण हैं
     मृगदावों में आग भयानक
     ठिठुरे जातककथा-कथानक
     बर्फ इधर है, आग उधर है 
     संकट में मज्झिम निकाय है !
5

यह दुष्क्रम बदलेगा
..........................

परिवर्तनशील प्रकृति/ कुछ न चिरस्थायी है
यह विपदा, यह व्यतिक्रम/ सब कुछ अस्थायी है
आगत परिदृश्य, समय, यह दुष्क्रम बदलेगा !
बदलेगा, एक दिवस यह मौसम बदलेगा !

भीतर के हंसा की आस्था, विश्वास प्रबल
परिवर्तन शाश्वत है, परिवर्तन सत्य अटल
तम बुहारकर, तन-मन सोनकिरन परसेंगी
रश्मियां दिशाओं से लगातार बरसेंगी
     छिपा हुआ सूर्य जब गुफाओं से निकलेगा !
     क्षीण मनोबल, सशक्त होकर फिर संभलेगा !

यह धरा उदार, न टिक पायेगी दीनता
शुभ उदात्तता में लय होगी हर हीनता
मुरझाये फूलों पर आभा फिर आयेगी
रंग खिलेंगे, खुशबू हर दिशि लहरायेगी
     दंभ श्रेष्ठताओं का शिखरों से फिसलेगा !
     हिममंडित जड़ीभूत शिलाखंड पिघलेगा !

होगा अवसाद विगत, ताजगी दुलारेगी
पशुता अपदस्थ कर, मनुष्यता पुकारेगी
ग्रंथियां शिथिल होंगी, सिमटेगा अंधकार
संपुट से मुक्त, प्रकट होगा फिर सहस्रार
     कातरता छीजेगी, उष्ण रक्त उबलेगा !
     वैश्वानर श्लथ पड़ी शिराओं में मचलेगा !

कुंठा, विद्वेष, घृणा, वैमनस्य छितरेंगे
मन को दूषित करते हीन भाव निथरेंगे
क्षुद्रता विदीर्ण, समादृत होगी शुभ्रता
सौम्यता समर्थ, प्रतिष्ठित होगी भव्यता
     हर नकार भाव को सकार भाव निगलेगा ! 
     सहज, सरल, मुक्त मन तरंगित-सा उछलेगा !  
6

हंसा गवाह है
..................

गुजर रही है महात्रासदी
भीतर का हंसा गवाह है !

उमड़ रहे भावातिरेक में
नीर-क्षीर वाले विवेक में
निष्प्रभ चेहरों पर उदासियां
अंतस् में उठती कराह है !

शिथिल हो गई हर हलचल है
मन में बेबस उथल-पुथल है
सतत यातना की चक्की में
पिसा जा रहा बेगुनाह है !

भूल गये हम जीवन जीना
याद न अब घावों को सींना
ओझल मरहम, दवा न कोई
मंद पड़ा सारा उछाह है !

मृदुल भावनाएं हैं आहत
मिलती नहीं कहीं से राहत
अवसादों की दीर्घ शृंखला
घुमड़ रहा सागर अथाह है !

बिसरे सब संदर्भ पुरातन
सूख गई है धार सनातन
तीक्ष्ण गंध है ठहरे जल में 
रुका हुआ निर्मल प्रवाह है !

छल-छद्मों से उगे सुभाषित
निश्छलता लगती निर्वासित
दूर कहीं है क्षीण रोशनी
टिकी हुई जिस पर निगाह है !

हम साक्षी, हम भोक्ता भी हैं
दुख के प्रथम प्रयोक्ता भी हैं
लय-छंदों में व्यक्त हो रहा
महाकाव्य का विकल दाह है !                       

7
आंख में ठहरी नमी है
धुंध चेहरे पर जमी है
अनमना यह आदमी है इस सदी का !
दर्द  जिसका  चीर  कोई  द्रौपदी का !

दिन कहीं खोये सुनहरे
दे गये कुछ घाव गहरे
क्या इबारत मौन चेहरे पर लिखी है
कुछ इतर, कुछ अन्यथा के
चिन्ह  हैं  भूली  कथा  के
छटपटाती-सी व्यथा केवल दिखी है
     अनकहे दुख में समोई
     आग-सी लगती पिरोई
     जम रहा हिमखंड कोई त्रासदी का !

फूल मन का है न खिलता
भरी  अंगों  में  शिथिलता
किन्तु नभ का छोर मिलता ही नहीं है
बांधकर दुख का पुलिन्दा
उड़  रहा  घायल  परिन्दा
जी रहा है और जिन्दा भी नहीं है
     गड़ रहे नाखून पैने
     छिल रहे मासूम डैने
     यह अजब संसार है नेकी-बदी का !

एक बिसरी याद-सा कुछ
अनहुए  संवाद-सा  कुछ
घिर रहा अवसाद-सा कुछ धमनियों में
कहे किससे बात मन की
घुटन अंदर की चुभन की
छीलती जाती छुअन की सिसकियों में
     छीजता ही जा रहा स्वर
     हो रहा अवसन्न, कातर
     है कहीं ठहराव भीतर हिमनदी का !

8
                                             
ढलने लगा चौथा पहर !

दिन  की  थकन  ढोती  हुई
सोने     चलीं     पगडंडियां
सूरज   गया,  दिखला  रही
यह  शाम   काली   झंडियां
     कोई नहीं  कुछ  बोलता
     चुपचाप है  सारा शहर !

होने    लगा   है       बैंजनी
परिदृश्य को यह क्या हुआ
अभिशप्त-से    एकांत    में
है    ऊंघता   अंधा    कुआ
     निर्वस्त्र   बूढ़े   नीम   की
     हर शाख पर टूटा कहर !

आकाश   की    मीनार   से
खरगोश-सा दिन  गिर  गया
खामोशियों   के   जाल   में
हर स्वर हिरन-सा घिर  गया
     सोई   नदी  के  बीच  से
     कोई  नहीं  उठती  लहर !

उत्सव   मनाकर   धूप   को
सौगात  में   आखिर   मिला
ठंडी    उदासी     से     बंधा
उकताहटों  का   सिलसिला
     चटके   गिलासों  में  थमा
     अवसाद का नीला जहर !

9
                         संभ्रम के पात्र रहे
त्रस्त अहोरात्र रहे
गाथा, आख्यानों में 
हम क्षेपक मात्र रहे
हमें उपकथाओं की भीड़ में न खोना था
किसी महागाथा में मुख्य कथा होना था !

धंस गये रसातल में
रिश्तों के ऊर्ध्व शिखर
हर माला टूट गई 
सब दाने गये बिखर
कोमल थे तंतु, कहीं पिन नहीं चुभोना था
दानों को हमें एक सूत्र में पिरोना था !

संघर्षों के पथ पर
अग्रणी रहे अक्सर
छोड़ते रहे लेकिन
हाथ जो लगे अवसर
वृत्त, परिधि, त्रिज्या का भार नहीं ढोना था
केन्द्र से हटे खुद ही, चुना एक कोना था !

बेहद अनियंत्रित था 
लहरों का क्रुद्ध ज्वार
सिरफिरे बवंडर का
ओर-छोर भी अपार
वह प्रचंड ज्वार तरल धार में डुबोना था
लहराता सिन्धु हमें बिन्दु में समोना था !

यह किसका शाप फला
यह किसकी रही भूल
औचक ही गुड़हल की
डाली से झरा फूल
वह ताजा फूल हमें ओस में भिगोना था
हौले से छूना था, प्यार से संजोना था !

मटमैला आसमान
धुंधलाया इंद्रधनुष
धरती के चेहरे पर
किसने मल दिया कलुष
तांत्रिक का इंद्रजाल या जादू-टोना था
हमें अतल और सतह से कल्मष धोना था !

10

गनीमत है
.............

लगता है, अभी कहीं
शेष आदमीयत है !
न्याय है अभी जिन्दा
यह बड़ी गनीमत है !

झूठ मंच पर खुलकर
आने से बचता है
पर्दे के पीछे ही
वह प्रपंच रचता है
     तिस पर भी हो जाती
     झूठ की फजीहत है !

सत्य स्वयं को करता
इस तरह उजागर है
गरज-गरजकर जैसे
लहराता सागर है
     उसकी निर्भयता ही
     तथ्य की हकीकत है !

वक़्त छद्म को अक्सर
वह सबक सिखाता है
देर से सही, लेकिन
आइना दिखाता है
     ठहरता वही, जिसकी
     रही साफ नीयत है !

साजिश-षडयंत्रों का
हो जाता खेल विफल
आखिर थम ही जाती
दुरभिसंधि की हलचल
     सत्य की विजय होती
     यह खुली वसीयत है !

                    11                                    

कल की सोचो
...................

यों न आज का गला दबोचो
आने वाले कल की सोचो
पूछेगी जब अगली पीढ़ी
बंधु! कहो, क्या उत्तर दोगे ?

कल पूछेंगे लोग कि तुमने 
असहनीय को सहा भला क्यों
अपनी विद्रोही आत्मा को 
अपने पैरों से कुचला क्यों
    जैसे अब हो, क्या वैसे ही
    तब भी बस खामोश रहोगे ?

पूछेंगे वे, हर अनीति को 
तुमने चुप स्वीकार किया क्यों 
स्वर नउठाया क्यों विरोध में
कभीनहीं प्रतिकार किया क्यों
     उनके प्रश्नों के उत्तर में
     तब भी क्या चुप्पी साधोगे ?

प्रश्न उठेंगे, घटनाक्रम में 
तुमने क्या भूमिका निभाई
कहां-कहां तुम रहे उपस्थित
कहां-कहां पर आग बुझाई
     तर्क अकर्मकता का, आखिर
     किस-किसको तुम समझाओगे ?

सच जब लहूलुहान पड़ा था
क्या मरहम का लेप किया था
छोड़ नपुंसक तटस्थता को 
क्या कुछ हस्तक्षेप किया था
     प्रश्नों से टकराओगे या
    कतराकर बगलें झांकोगे ?

कल जब न्यायालय में होंगी 
मौन सफेदी, मुखर सियाही
किसके प्रबल पक्ष में दोगे 
तुम अपनी निष्पक्ष गवाही
     चट्टानों-से अडिग रहोगे
     या कि हवा के साथ बहोगे ?

अभी सोच लो, समय न करता 
कभी किसी की,कहीं प्रतीक्षा
सही-गलत के निर्णय में 
वह करता है बेबाक समीक्षा
     आज अगर तुम संभल न पाये
      तो फिर कल कैसे संभलोगे ?         

जीवन परिचय
_____________
            
               योगेन्द्र दत्त शर्मा
            ________________

जन्मतिथि : 30 अगस्त 1950
शिक्षा :     एम.ए.(हिन्दी), एम.एससी.(गणित), पीएच.डी.
              'साठोत्तर हिन्दी गीतिकाव्य में संवेदना और   
               शिल्प' विषय (प्रकारांतर से नवगीत) पर शोध
कृतियां :   नवगीत संग्रह :'खुशबुओं के दंश', 'परछाइयों के      
               के पुल', 'दिवस की फुनगियों पर थरथराहट',  
               'पीली धुंध नीली बस्तियों पर', 'बच रहेंगे शब्द' 
               'छुआ मैंने आग को', 'खोजता हूं सदानीरा', 'यह
               सन्नाटा बोल रहा है', 'भीतर का हंसा गवाह है',
               'खो गईं आदिम ऋचाएं' ;  
               ग़ज़ल संग्रह : 'नकाब का मौसम', 'यह तेरा
               किरदार न था' ;
               दोहा संग्रह : 'नीलकंठ बोले कहीं' ;
              खंडकाव्य : 'गवाक्ष'; काव्यनाटक : 'समय मंच';
              3 उपन्यास, 3 कहानी संग्रह, 2 बाल कविता 
              संग्रह तथा 1 बाल उपन्यास ;
              समवेत संकलन : 'नवगीत दशक-1', 'नवगीत
              अर्द्धशती', 'यात्रा में साथ-साथ', 'हरियर धान : 
              रुपहरे चावल', 'उत्तरायण', 'गीत वसुधा', 'नई   
              सदी के गीत', 'इक्कीसवीं सदी के गीत' आदि में 
              रचनाएं प्रकाशित।
'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'सारिका', 'कादंबिनी', 'नवनीत', 'शोधस्वर', 'गगनांचल', 'इंद्रप्रस्थ भारती', 'समयांतर' आदि लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, ग़ज़ल, कहानी, निबंध, आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण; साथ ही दूरदर्शन पर सुविख्यात ग़ज़लकार द्वारा लिया गया मेरा इंटरव्यू प्रसारित। 
सम्मान :  'कादंबिनी' द्वारा गीत व ग़ज़ल के लिए अलग-अलग आयोजित प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार, 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' द्वारा आयोजित प्रेमचंद कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित। ग़ज़ल संग्रह 'नकाब का मौसम' जगतराम आर्य स्मृति सम्मान से पुरस्कृत। भोपाल की संस्था 'अर्घ्य' द्वारा संपादन पुरस्कार से सम्मानित। 
संपादन : ' गीत सिंदूरी : गंध कपूरी' (नवगीत संकलन)
              ( 2 खंडों में), 'हिन्दी साहित्य के कीर्तिस्तंभ',
              '1857 की जनक्रांति : विविधआयाम', 'भारतीय
              जनजीवन : चिन्तन के दर्पण में', 'ज़ब्तशुदा
              कविताएं'; स्मृतिशेष गीत-ऋषि देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'
              तथा ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग' पर केन्द्रित दो 
              ग्रंथों– 'इदं इंद्राय' व 'राग और पराग'।
इसके अलावा अनेक वर्षों तक भारत सरकार की साहित्य, संस्कृति को समर्पित पत्रिका 'आजकल' का संपादन।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशन सहयोग।
संपर्क : ' कवि कुटीर', के.बी.47, कवि नगर, ग़ाज़ियाबाद 
            पिन कोड– 201002  (उ.प्र.)
मोबाइल नंबर : 9311953571 ; 9311953572
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