कीर्तिशेष कवि डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी का एक गीत नदी का बहना मुझमें हो के बहाने:
गीत पर चर्चा छोटी सी चर्चा
मनोज जैन
दावा तो नही करता पर जहां तक मुझे याद है मैंने कीर्तिशेष कवि डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी के सन्दर्भित गीत को सबसे पहले लखनऊ से निकलने वालीअनियत कालीन पत्रिका उत्तरायण में पढ़ा था।जो मुझे आज भी जस का तस कंठस्थ है।उत्तरायण के कुछ अंक मेरे पास अब भी सुरक्षित हैं।कन्टेंट से लेकर कव्हर पेज तक पत्रिका को रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करने के मामले में कुशल संपादक श्रीयुत निर्मल शुक्ल जी का आज भी कोई सानी नहीं है।
इसी गीत को पुनः पढ़ने का सौभाग्य डॉ.शम्भूनाथ सिंह जी के संपादन में प्रकाशित अत्यधिक चर्चित नवगीत दशक में मिला जिसका प्रकाशन वर्ष 1982 था,दशक की तर्ज़ पर अनेक सम्पादकों ने अपनी समझ से नवगीत के इस महायज्ञ में सृजन की समिधाएं समर्पित की लेकिन दशक जैसा यश और ख्याति किसी के हिस्से में नहीं आई।
हाँ,कानपुर के ख्यात नवगीत समालोचक और यशस्वी कवि वीरेंद्र आस्तिक जी का नवगीत पर किया गया जरूरी काम धार पर हम भाग 1 -2 चर्चा में इसलिए रहा कि उनके काम के मूल में निजी स्थापना का कहीं कोई निहित स्वार्थ न होकर हिंदी पट्टी के उन नवगीतकारों को चर्चा में लाना रहा जो नवगीत के अध्याय में अपनी ओर से निरन्तर नया जोड़ रहे थे।
यहीं,लालगंज से एक ऐसा ही जरूरी प्रयास और हुआ पर उस प्रयास के मूल में स्वयं की स्थापना की लोकेषणा निहित होने के चलते अच्छा खासा काम दीवाली की रात में फोड़े गए अनार की तरह क्षणिक प्रकाश फैला कर हमेशा के लिए बिखर कर रह गया।
ग़ाज़ियाबाद से नवगीत पर हुए एक शोधपरक और अति महत्वपूर्ण कार्य का उल्लेख किए बगैर चर्चा अधूरी ही रहेगी।नवगीत के कीर्ति-स्तम्भ पं वीरेंद्र मिश्र,डॉ घनश्याम अस्थाना,श्री उमाकांत मालवीय,श्री नईम एवं श्री विष्णु विराट की पीढ़ी को समर्पित यह अति महत्वपूर्ण संकलन 'गीत सिंदूरी गंध कपूरी'खण्ड 1 और खण्ड 2 जिसमें अपने समय के चर्चित लगभग सभी 48 नवगीतकारों को जरूरी स्थान मिला है ,अपनी स्थायी जगह नवगीतकारों के मध्य नवगीत पर साफ सुथरे कन्टेंट के कारण बना पाया और खासा चर्चा में रहा ।
इसका कुशल संपादन प्रख्यात नवगीतकार डॉ योगेंद्र दत्त शर्मा जी डॉक्टर Yogendra Datt Sharma जी ने 2016 में किया।नवगीतपर शोध कर रहे शोधार्थियों को यह चारों संकलन नवगीत दशक के बाद बेहद जरूरी सामग्री उपलब्ध कराते हैं।साहित्यानुरागियों के मध्य लालगंज तो आज भी चर्चा के विषय में रहता है पर चर्चा केंद्र में कीर्तिशेष डॉ शिव बहादुर सिंह भदौरिया जी ही रहते हैं।
नवगीत दशक के पृष्ठ क्रमांक 103 पर 'नदी का बहना मुझमें हो' शीर्षक से छपे उनके एक गीत ने मेरे मन मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव छोड़ा जिसकी अमिट छाप कभी मिटी ही नहीं।सृजन के उन अंतरंग क्षणों के बारे में जब कभी ध्यान से सोचता हूँ तो मुझे जैन कवि वृंदावन दास जी द्वारा छन्द चौबोला में रचित जिन पूजन का एक पद मुनि-मन शब्द युग्म के कारण बरबस याद आ जाता है।
मुनि मन-सम उज्ज्वल नीर/प्रासुक गंध भरा/भरि कनक-कटोरी क्षीर/दीनी धार धरा/
चौबीसों श्री जिनचंद/आंनद कंद सही/पद जजत हरत भव फंद/पावत मोक्ष मही/
तीन अंतरों वाले इस साधारण से गीत में जो जीवन की असाधारण व्याख्याएं कविवर डॉ शिव बहादुर सिंह भदौरिया जी,ने प्रकृति को आधार बनाकर प्रस्तुत की हैं,सृजन के उन पावन पलों में कवि का मन निश्चित रूप से मुनि के मन जैसा निर्मल और पावन जरूर रहा होगा,जो अपने आप में ही स्तुत्य और वंदनीय है।पूरे गीत में कवि ने अपने आपको कविता की एक ऐसी परिभाषा में बाँधने की कोशिश की है,जो अपने भीतर के मनुष्य की शिनाख्त करती है।साथ ही यह भी रेखांकित करने योग्य है कि किसी भी अन्तरे में कवि ने श्रेष्ठ होते हुए भी अपने श्रेष्ठता बोध का प्रदर्शन नहीं किया।
भदौरिया जी ने अपनी प्रकृति के अनुरूप गीत में प्रयुक्त प्रतीकों और बिंबों का चयन प्रकृति और पर्यावरण से किया।कवि अपने उदय से लेकर अस्त तक की एक पूरी यात्रा,एक नदी को प्रतीक बनाकर उसे अपने आप में समाहित कर उसके उद्गम से लेकर समागम तक के सारे जीवनानुभवों,जो मनुष्य की संवेदनाओं को बेहतर बनाती हैं,के माध्यम से सकारात्मक जीवन सन्देश सम्प्रेषित किया हैं।
गीत के रचनात्मक तानें-बानें में कवि को स्वभाव से दुष्ट प्रकृति होने पर भी मच्छ, मगर,घड़ियाल,वाघ जैसे जीव- जंतु भी जरूरी लगते हैं,समरसता का यह चरम अन्यत्र दुर्लभ है।संवेदना का यह सूचकांक ही मनुष्य को कवि निर्धारित करता है।देवताओं के कल्याण और असुरों के वध के लिए जैसे ऋषि दधीचि ने अपनी अस्थियों का सहर्ष दानकर दिया था,वैसे ही कवि अपने नदी रूपी शरीर को काटकर बंजर में हरीतिमा के स्वागत के लिए समर्पित करने का आह्वान गीत में करता है।
कवि के दर्शन का सौभाग्य भले ही न मिला हो पर उनके यशस्वी पुत्र DrVinay Bhadauria जी ने उनसे दूरभाष पर वार्ता का अवसर जरूर जुटाया था।इस प्रसंग के चलते ही सही,कहीं न कहीं मुझे उनका आशीर्वाद जरूर मिला,जो आज भी मेरे साथ है।
कालजयी गीत के रचियेता कवि को नमन।
पढ़ते हैं एक गीत
मनोज जैन
मेरी कोशिश है कि
नदी का बहना मुझमें हो
तट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मन्दिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तने हों
मीड़ मूर्च्छनाओं का
उठना-गिरना मुझमें हो
जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये खाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी
मच्छ, मगर, घड़ियाल
सभी का रहना मुझमें हो
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें
ले जायें पानी ऊसर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझमें हो
- डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें