रविवार, 28 फ़रवरी 2021

नरेश सक्सेना जी के नवगीत और टीप प्रस्तुति : वागर्थ

वागर्थ में आज 
नई कविता के सुप्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना जी के नवगीत
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 वागर्थ का आज का अंक नई कविता के शीर्ष कवि नरेश सक्सेना जी के गीतों पर केन्दित है समूह वागर्थ उन्हें ससम्मान यहाँ जोड़कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा है।इन नवगीतों को प्रस्तुत करते हुए एक टीस जो रह रह कर उभरती है वह यह कि नई कविता ने एक नवगीतकार को छीन लिया।
          विशेष आभार वागर्थ सम्पादन टीम के अनिल जनविजय जी का जिन्होंने सहर्ष वागर्थ के पाठकों को यह सामग्री कविता कोश के सौजन्य से यहाँ जोड़ने में हमारी सहायता की आगे भी हम नवगीत की विभिन्न शैलियों और रूपाकारों से अपने पाठकों को परिचित कराते रहेंगे।
 प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादन मण्डल
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प्रस्तुति
समूह वागर्थ

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 फूले फूल बबूल बबूल कौन सुख
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फूले फूल बबूल कौन सुख,अनफूले कचनार ।

वही शाम पीले पत्तों की
गुमसुम और उदास
वही रोज़ का मन का कुछ-
खो जाने का एहसास
टाँग रही है मन को एक नुकीले खालीपन से
बहुत दूर चिड़ियों की कोई उड़ती हुई कतार ।
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।

जाने; कैसी-कैसी बातें
सुना रहे सन्नाटे
सुन कर सचमुच अंग-अंग में
उग आते हैं काँटें
बदहवास, गिरती-पड़ती-सी; लगीं दौड़ने मन में-
अजब-अजब विकृतियाँ अपने वस्त्र उतार-उतार
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।

2

साँझ की विदा के क्षण
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साँझ की विदा के क्षण अनजाने
आ बिखरा जाते हैं सिरहाने
            पोर-पोर कँपती उँगलियों से
            थे अन्तिम बार के प्रणाम।

छत ऊपर लौट चुकी होंगी अब
बगुलों की सितबरनी पातें
छिन अबेर आँगन में चिड़ियों की
चुक जाएँगी सारी बातें
फिर ख़ालीपन की ध्वनियाँ विचित्र
सिरजेंगी अजब-अजब अर्थ-चित्र
            खिड़की में उलझी रह जाएगी
            सिर्फ़ एक तारे की शाम।

द्वार पार से निर्वासित प्रकाश
देहरी पर रोपेगा छाँहें
कमरे भर जलता एकान्त लिए
उठेंगी अन्धेरे की बाँहें
रात गए पच्छिम का वह कोना
तन-मन पर कर जाएगा टोना
            आकाशे उगेगा तुम्हारे—
            लिए एक प्यारा-सा नाम।

3
रह रहकर आज साँझ मन टूटे
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रह-रह कर आज साँझ मन टूटे-
काँचों पर गिरी हुई किरणों-सा बिछला है
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है ।

प्रश्नों के अन्तहीन घेरों में
बँध कर भी चुप-चुप ही रह लेना
सारे आकाश के अँधेरों को
अपनी ही पलकों पर सह लेना
आओ, उस मौन को दिशा दे दें
जो अपने होठों पर अलग-अलग पिघला है ।

अनजाने किसी गीत की लय पर
हाथ से मुंडेरों को थपकाना
मुख टिका हथेली पर अनायास
डूब रही पलकों का झपकाना
सारा का सारा चुक जाएगा
अनदेखा करने का ऋण जितना पिछला है ।

तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है ।

4
सूनी सँझा, झाँके चाँद
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सूनी सँझा, झाँके चाँद
मुँडेर पकड़ कर आँगना
हमें, कसम से, नहीं सुहाता-
रात-रात भर जागना ।

रह-रह हवा सनाका मारे
यहाँ-वहाँ से बदन उघारे
पिछवारे का पीपल जाने-
कैसे-कैसे वचन उचारे
जाने कब तक नीम पड़ेगा-
'घी मिसरी' में पागना ।

कैसे मन की करूँ चिरौरी
खाली-खाली बाखर-पौरी
ऐसे मौसम तुम बाहर हो
आँगन टपके परी निबौरी
जैसे हैम अपने, वैसे हों-
दुश्मन के भी भाग ना ।

हमें, कसम से, नहीं सुहाता-
रात-रात भर जागना ।

5
साँकल खनकाएगा कौन

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दिन भर की अलसाई बाहों का मौन,
बाहों में भर-भर कर तोड़ेगा कौन,
बेला जब भली लगेगी।

आज चली पुरवा, कल डूबेंगे ताल,
द्वारे पर सहजन की फूलेगी डाल,
ऊँची हर डाल को झुकाएगा कौन
चौथे दिन फली लगेगी।

दिन-दिन भर अनदेखा, अनबोली रात
आँखों की सूने से बरजोरी बात,
साँझ ढले साँकल खनकाएगा कौन,
कितनी बेकली लगेगी।

6

बैठे हैं दो टीले-
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तनिक देर और आसपास रहें
चुप रहें, उदास रहें,
जाने फिर कैसी हो जाए यह शाम ।

एक-एक कर पीले पत्तों का
टूटते चले जाना, इतने चुपचाप,
और तुम्हारा पलकें झपकाकर
प्रश्नों को लौटा लेना अपने आप ।

दूर-दूर सड़क के किनारे पर
सूखे पत्तों के धुँधुआते से ढेर,
एक तरफ बैठे हैं दो टीले
गुमसुम-से पीठ फेर-फेर ।

डूब रहा सभी कुछ अँधेरे में
चुप्पी के घेरे में
पेड़ों पर चिड़ियों ने डाला कुहराम ।

परिचय
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नरेश सक्सेना / परिचय
नरेश सक्सेना की रचनाएँ
जीवन
जन्म : १६ जनवरी १९३९ ग्वालियर, म. प्र. में।

शिक्षा : एम. ई।

सम्प्रति : उत्तर प्रदेश जल निगम में एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर टैक्नोलाजी मिशन। गंगा आई. सी. डी. पी. में पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य। कविताओं के अतिरिक्त नाटक, फिल्मों और संपादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य। सम्मिलित रूप से आरंभ, वर्ष और छायानट साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन।

पहली कविता १९५८ में ज्ञानोदय में प्रकाशित तदुपरांत कल्पना, ज्ञानोदय, धर्मयुग, साक्षात्कार, पहल, वसुधा, प्रयोजन, तद्भव आदि हिन्दी की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित। हिन्दी के अनेक प्रतिष्ठित संकलनों में चयनित एवं प्रकाशित।

विविध
ग्वालियर में जन्मे नरेश सक्सेना हिंदी कविता के उन चुनिन्दा ख़ामोश लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं की अग्रिम पंक्ति में हैं, जिनके बिना समकालीन हिंदी कविता का वृत्त पूरा नहीं होता। वे विलक्षण कवि हैं और कविताओं की गहन पड़ताल में विश्वास रखते हैं, इसका एक सबूत ये है कि 2001 में वे `समुद्र पर हो रही है बारिश´ के साथ पहली बार साहिब ए -किताब बने और 70 की उम्र में अब तक उनके नाम पर बस वही एक किताब दर्ज़ है - इस पहलू से देखें तो वे आलोकधन्वा और मनमोहन की बिरादरी में खड़े नज़र आयेंगे। वे पेशे से इंजीनियर रहे और विज्ञान तथा तकनीक की ये पढ़ाई उनकी कविता में भी समाई दीखती है। वे अपनी कविता में लगातार राजनीतिक बयान देते हैं और अपने तौर पर लगातार एक साम्यवादी सत्य खोजने का प्रयास करते हैं। कविता के लिए उनकी बेहद ईमानदार चिन्ता और वैचारिक उधेड़बुन का ही परिणाम है कि कई पत्रिकाओं के सम्पादक पत्रिका के लिए सार्थक कविताओं की खोज का काम उन्हें सौंपते हैं। कविता के अलावा उनकी सक्रियता के अनेक क्षेत्र हैं। उन्होंने टेलीविज़न और रंगमंच के लिए लेखन किया है। उनका एक नाटक `आदमी का आ´ देश की कई भाषाओं में पाँच हज़ार से ज़्यादा बार प्रदर्शित हुआ है। साहित्य के लिए उन्हें 2000 का पहल सम्मान मिला तथा निर्देशन के लिए 1992 में राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार। संपर्क: नरेश सक्सेना ; विवेक खण्ड, 25-गोमती नगर, लखनऊ-226010 ; मो. 09450390241

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