गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

दो प्रेम गीत प्रस्तुति: वागर्थ


रूठी तो भाव अबोला-सा आ धीरे से पुचकार गया
पैच-अप और ब्रेक-अप पर दो प्रेम गीत: 
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मनोज जैन

ठीक से तो याद नहीं है पर हाँ बहुत पहले किसी पत्रिका में प्रेम प्रसंग पर आधारित एक कहानी पढ़ी थी।कहानी किसकी और किस पत्रिका में थी यह भी नहीं पता। पर पैच-अप और ब्रेक-अप की अवचेतन में धुँधली छवियाँ जरूर रहीं उन्हीं छवियों को भावों की स्याही से कल्पना की तूलिका का सहारा लेकर शब्दों के रंग से गीतों के अंतरों को सुसज्जित किया है।
बहुत से मित्र विचारधारा के चलते प्रेम को लेखन का या गीत रचने का विषय नहीं स्वीकारते उन्हें ज्वलंत मुद्दे जैसे भूख बेरोजगारी या अन्य सामाजिक सरोकारों पर लिखना ही भाता है।
सवाल उठता है कि क्या यह तमाम मित्र प्रेम नहीं करते यदि करते हैं तो छिपाना कैसा?
       ऐसा नहीं है कि यह लोग प्रेम नहीं करते! और ऐसा भी नही कि इन्होंने अखण्ड वृह्मचर्य के पालन का व्रत लिया है? प्रेम का प्राकट्य तो अनन्त रूपों में होता है!लोग प्रेम तो करते हैं लेकिन प्रेम को लेकर इनके मापदण्ड जरूर दोहरे हैं!
      खैर,जो भी हो प्रेम जीवन का अभिन्न हिस्सा है फिर चाहे संयोग हो या वियोग दोनों ही स्थितियाँ गीत रचने के लिए बेहतरीन भाव भूमि सृजित करती हैं और एक संवेदनशील मन इन मनः स्थितियों से अप्रभावित नहीं रह सकता!
पढ़ते हैं दो गीत

टिप्पणी
मनोज जैन
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एक
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तू,जीत गई,मैं,हार गया,
कैसा सम्मोहन बातों में
आकर्षण बाँधे,बंधन में
तू बिखरी दसों दिशाओं में
रहती भी,मन के स्पंदन में
चितवन के एक छलावे में
मेरा अपना संसार गया।
तू,जीत गई मैं,हार गया 

तू,कुहुक रही है कोयल-सी
मेरे मन की अमराई में 
तू,अन्तर्लय है छंदों की,
तू,ही दिल की गहराई में 
मैं,मुक्त हँसी पर रीझ गया 
अंतर्मन अपना वार गया 
तू,जीत गई,मैं,हार गया

तुझसे ही यह दिन सोने-से
तुझसे ही चांदी-सी रातें 
तेरे होने से जीवन में 
मिलती रहती हैं,सौगातें
रूठी तो भाव अबोला-सा
धीरे से आ पुचकार गया 
तू जीत गई,मैं हार गया
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दो
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क्या सोचा था,क्या
तुम निकले
ममता की मूरत क्यों देखी
हमने इस भोली सूरत में
सपनो की दुनिया क्यों रोपी
हमने इस निष्ठुर मूरत में
जब असली चेहरा देखा तो
श्रद्धा की क्यों न
ज़मीन हिले
क्या सोचा था,क्या
तुम निकले!

बिन बंधन के क्यों बाँध बने
क्यों टूट गई लक्ष्मण रेखा।
पगले!मन को क्या समझाना,
देखा,उसको कर अनदेखा।
तुम सुखी रहो अपने जग में
तुमसे हमको
शिकवे न गिले!
क्या सोचा था,क्या
तुम निकले!

हमको आमंत्रण मत देना,
हम पार क्षितिज के जाएँगे
हम तो पर्यायी पीड़ा के
पीड़ा को गले लगाएंगे
हम शामिल हैं उन यादों में
जिनके सन्दर्भ 
मिले,न मिले!
क्या सोचा था,क्या 
तुम निकले!
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