जब भी रचनाकार शाश्वत चिंतन से गुजरता है तब वह मृत्यु बोध पर अपने दृष्टि कोण से कलम चलाता है और अपने समय को शब्दों में बाँधने की कोशिश करता है।
चन्दीकरा (मैंनपुरी) उ.प्र. के कीर्तिशेष कवि जगतप्रकाश चतुर्वेदी जी के गीति साहित्य में मृत्युबोध बड़े ही सकारात्मक अर्थों में खुलकर सामने आता है प्रस्तुत है उनका एक बहुत ही लोकप्रिय गीत कवि के जीवन काल में मैंने उनसे बात करने की बहुत कोशिश की पर सम्पर्क नहीं हो सका पर उनके गीतों का मैं कल जी जबर्दस्त फैन था और आज भी हूँ।
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हरियर धान रुपहरे चावल से
यह बेहद महत्वपूर्ण कृति मुझे संपादक देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी के सौजन्य से मिली थी अजीव संयोग है आज न संपादक हैं और न गीतकार
प्रस्तुत है उनका एक गीत
विदाई की ख़बर
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वह सुबह, वह दोपहर
यह शाम
अब विदाई की ख़बर
आ ही रही होगी!
याद है जब पूर्णिमा का चाँद
धुंधला पड़ गया था,
और नीली झील में
नक्षत्र अन्तिम जड़ गया था
आग चूल्हे की, चिता की
भेद कितना है
उस ललाई की ख़बर
आ ही रही होगी!
जो कभी आँचल बँधे दो
खोल डाले काल कब,
कब फटे वह लाल चुनरी
दूसरी हो लाल कब
ग्रन्थि यह भी, ग्रन्थि वह भी
किन्तु बन्धन हैं अलग
उस सगाई की ख़बर
आ ही रही होगी!
ताज का गमगीन गुम्बद
अब अँधेरा हो रहा,
और हर मीनार का
अस्तित्व जैसे खो रहा
अब जुन्हाई की ख़बर
आ ही रही होगी।
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