बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

रूपम झा जी की एक ग़ज़ल पर छोटी सी टिप्पणी

चंद वादों से,चंद नारों से
उम्र भर तो बहल नहीं सकते
रूपम झा
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रूपम झा को फेसबुक पर पढ़ता रहा हूँ,एक अंतराल के बाद आज जब फेसबुक पर लौटा तो एक पोस्ट की शुरुआती पँक्तियों पर ही मन ठिठक गया और ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है अमूमन आरम्भिक पँक्तियों से पूरी रचना की गहराई का पता लग जाता है यद्धपि गज़ल की आंतरिक संरचना पर मेरा कोई अधिकार नही है और न ही जानकारियाँ पर रचना का आनन्द लेने के लिए एक मात्र पाठक मन का होना ही पर्याप्त होता है,यह भी सही है कि ज्यादा गहराई से जानने समझने वाला रचना में मीन मेख ढूँढेगा और वह वहीं उलझकर रह जाएगा इसका मतलब यह नहीं कि विधा का जानकार आनन्द नहीं लेता वह भी रचना के सुख को अपने अनुसार भोगता है।
यों तो,रूपम झा की प्रस्तुत गज़ल के सभी शेर समसामयिक और लाजवाब हैं पर उनकी इस प्रस्तुति को  जन साधारण की सशक्त अभिव्यक्ति के निकष पर रख कर परखा जाय तो वह कितनी सरलता से राज नैतिक पार्टियों और उनके प्रतिनिधियों के खोखले वादों पर करारी चोट करती हैं
काश! यह समझ हममें से हर एक के हिस्से में आ सके 
आज नही तो कल आशा करते हैं हर एक वैचारिक स्तर पर इतना ही सशक्त होगा
बहुत प्यारी ग़ज़ल के इस शे'र लिए रूपम झा को हार्दिक बधाई
चंद वादों से,चंद नारों से उम्र भर तो बहल नहीं सकते
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मनोज जैन 
तेरे साँचे में ढल नहीं सकते
ख़ुद को इतना बदल नहीं सकते

वक़्त ने पांव काट डाले हैं
अब तेरे साथ चल नहीं सकते

अब तो पत्थर से हो गए हैं हम 
आँच भर से पिघल नहीं सकते

चंद वादों से, चंद नारों से 
उम्र भर तो बहल नहीं सकते

हम तो हैं उस फ़ीनिक्स पक्षी से
ख़ुद से जलकर भी जल नहीं सकते 
                                  ✍️रूपम झा
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