विनम्र श्रद्धांजलि कविवर
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शचीन्द्र भटनागर
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हमने कुछ माह पहले कवि शचीन्द्र भटनागर जी पर तीन पोस्ट एकाग्र की थीं तब भी वह अस्वस्थ्य थे जिन्हें हम आज श्रद्धांजलि स्वरूप जस का तस यहाँ वागर्थ के सदस्यों के लिए जोड़ रहे हैं।सोशल मीडिया की चर्चा जब उन तक पहुँची तब उन्होंने अपना सन्देश व्हाट्सएप्प पर छोड़ा था जो यहाँ प्रस्तुत है।
"प्रिय मनोज,
आभारी हूँ कि तुमने मेरे उन गीतों को अपने आलेख का विषय बनाया जिनकी ओर अब तक किसी ने ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझी.
फेसबुक का प्रयोग मैं करता नहीं हूँ, यह आलेख डा. अवनीश ने मुझे व्हाट्सएप किया है.
शान्ति कुंज के लिए लिखी छांदस रचनाओं के बीच इस शैली की गीत रचना की मनस्थिति कम ही बन पाती है.
और कुछ मुझसे संबंधित हो तो मुझे व्हाट्सएप कर देना.
आशीर्वाद"
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आचरण में बोलते गीत: महाकवि शचीन्द्र भटनागर
पहली किश्त
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लगभग पिछले तीन दशकों से मेरा गहन सम्बंध लिरिकल पोयट्री लिखने वाले शेष और कीर्तिशेष रचनाकारों से परोक्ष या अपरोक्ष वनिस्पद नई कविता वालों से ज्यादा रहा है।
बोलचाल के स्तर पर गीतकारों में एक जुमला,जो बहुत ज्यादा प्रचलन में है,वह यह कि,गीत लिखा नहीं बल्कि जिया जाता है।मैंने जब इस कथन पर मंथन किया तो मुझे यह वाक्य भाषा के आवरण में एक सुसज्जित अलंकरण जैसा लगा,जो हर किसी के गले में पात्रता की पड़ताल किये बगैर डाल दिया जाता है।
बहुत सारी बातों को हम केवल शाब्दिक स्तर पर ही जानते हैं,जिनकी दूरी मात्र इस कान से उस कान तक की होती है,उनके निहितार्थों की तह में,या तो जानबूझ कर नहीं जाते या जाना नही चाहते।
खैर,जो भी हो शायद इसी बात की गहन पड़ताल करने के उपरान्त ही कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी ने यह पंक्तियाँ रची होंगी!
"कलम अपनी साध और मन की बात
बिल्कुल ठीक कह एकाध
और बहते बने सादे ढंग से तो बह
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख"
मेरा आशय सिर्फ इतना है कि आचरण में हमारे कर्म दर्पणवत झलकने चाहिए तभी हमारा लिखा समाज के लिए सार्थक और प्रभावी हो सकेगा।
भवानी दादा की पंक्तियाँ प्रस्तुत कवि पर बिल्कुल ठीक बैठती हैं।
कवि शचीन्द्र भटनागर जी हमारे बीच इसी श्रेणी के कवि हैं जिनका लिखा बोलता है।
वह जो लिखते हैं सब उनके आचरण में झलकता है।
वह इस समय उम्र के चौथेपन में गहन आध्यात्म की उर्ध्वगामी साधना में निमग्न हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वह गीत लिखते नहीं बल्कि अपने लिखे गीत को जीते हैं।
उन्हें प्रणाम
पढ़ते हैं उनके कुछ गीत
उनके व्यक्तित कृतित्व की यह पहली किश्त आपके अवलोकनार्थ और चर्चार्थ प्रस्तुत है।
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इस नए घर में
बहुत कुछ है
खुला आँगन नहीं है ।
खिल रहे चेहरे गुलाबों से सभी के
हर नयन से छलछलाता हर्ष भी है।
टिक ना पाए धूल जिस पर
इस तरह का टाइलों का चमचमाता फर्श भी है।
बाहरी दीवार मेकअप में खिले चेहरे नए-से
पर न है आभास
पुरवा का
सजल सावन नहीं है ।
खिड़कियों पर आधुनिक शीशे से जड़े हैं
धूप भी सीधी न आ सकती उतरकर
अब करुण वातास का आना कठिन है
क्योंकि बहता है पवन अभिजात भीतर
है कमी कुछ भी न ए०सी० कूलरों गीजरों की
किंतु अमराई
तले की
अनछुई सिरहन नहीं है
शीशियों से खुशबुएँ बाहर निकलकर
बंद कमरों को बहुत महका रही हैं।
क्यारियों की रात-रानी,मोगरे की
गंध को आतंक से हड़का रही हैं
पर धरा के छोर तक जाती
हवाओं में घुले जो
वह सहजतासिक्त
संवेदन नहीं है ।
वह खुला आँगन जहाँ से सूक्ष्म स्वर में ही
निरभ्राकाश से संवाद
स्थूल से उस अनदिखी निस्सीमता तक
एक आरोही अखंडित नाद
होता शोर मल्टीमीडिया के साधनों से भर गया घर
किंतु वह
आह्लाद से
भरपूर अपनापन नहीं है।
दो
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किसको कहें
कौन है मेला
कौन यहाँ बेदाग !
कितने भी
दिखते पवित्र हों
रिश्ते- नाते
शत्रु-मित्र हों
नए-नए संबोधन वाले
कितने भी उजले चरित्र हों
सब बाहर से
संत दीखते
भीतर से हैं घाघ
मोड़ भरी
सड़कों राहों में
आम,नीम
बट की छांहों में
तीर्थभूमि
आश्रम या गुरुकुल
देवालयों ईदगाहों में
नज़र नज़र में
सबकी बैठा
एक भयंकर बाघ।
तीन
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दौड़ रहा है शोर
सड़क पर
फिर भी है गूँगे -से दिन
धुएँ- धुँध के घेरे
बोए-से लगते हैं
सभी अलग सपनों में
खोए- से लगते हैं।
घुटन भरी इन दुर्गंधों में
हुए साँपसूँघे-से दिन ।
पहली किरण तरसती है
घर में आने को
भीतर के कोने-कोने से
बतियाने को
उन्हें न भाती
सुबह गुलाबी
वे मोती-मूँगे- से दिन।
गुबरैले
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ऐसा बाग़ लगा है
जिसमें जगह-जगह गिरगिट फैले हैं
जैसा रंग दीखता
वैसा रंग उन्हें भाने लगता है
परिवर्तन के संग
कंठ उस सुर में ही गाने लगता है
छवि है बिल्कुल भोली-भाली
बाहर से देखते हैं खाली
किंतु कार में अशर्फियों से
भरे कई भारी थैले हैं।
मिलते हैं वह सभी वर्ग में ,
राजनीति में,धर्म क्षेत्र में,
तन लिपटे उजले वस्त्रों में
लेकिन रखते कपट नेत्र में
जिस पलड़े को देखा भारी
उसी तरफ़ की बाजी मारी
ऐसे सरवर के स्वामी हैं
जिसके उद्गम ही मैंले हैं ।
अपने सुख की अधिक
न उनको लगती कोई कथा सुहानी
देश धर्म की श्रेष्ठ कर्म की बातें
हैं उनको बेमानी
जीवनमूल्य न उनको भाते
ऊँची बातों से कतराते
कभी न ऊपर आँख उठाते
ऐसे चीकट गुबरैले हैं।
महाकवि शचीन्द्र भटनागर : व्यक्तित्व और कृतित्व
दूसरी किश्त
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पिछली पोस्ट में कविवर शचींद्र भटनागर भ टनागर जी पर चर्चा करते हुए मैंने उन्हें महाकवि कहकर सम्बोधित किया था।सम्भवतः शचीन्द्र जी हमारे बीच एक मात्र ऐसे कवि हैं जिन्होंने "प्रज्ञावतार लीलामृत" नामक शीर्षक से वर्ष 2011 में महाकाव्य रचा है।जिस कवि ने महाकाव्य की सृजना की हो वह साधारण तो हो नहीं सकता है यह बात और है कि विपुल साहित्यक अवदान के बावजूद कवि ने न तो अपनी जमीन नहीं छोड़ी और न ही जड़ें।
शचीन्द्र जी की के रचना संसार में समष्टि की पीड़ा, युगबोध का चिंतन ,अतीत की स्मृतियाँ,सांस्कृतिकबोध, सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक और प्राकृतिक विडम्बनाओं सहित हर्ष-विषाद के अनगिनत कोण उभरकर सामने आते हैं।
यहाँ प्रस्तुत तीन गीत शैली और विन्यास में ही अलग नहीं अपितु इनके धरातल भी अलग अलग हैं।पहले गीत में सार संक्षेप में कहें तो भूमण्डलीकरण के चलते बदली हुईं परिस्थितयों में बाज़ार में साहित्य और उसके सर्जक की कोई जगह नहीं हैं।
बाजार में सिर्फ व्यापारी होता है जिसकी सोच में नफा और नुकसान के अलावा कुछ भी नहीं होता।
दूसरे गीत में कवि समाज की उस अंतिम इकाई की चिंता करते हैं जिसका शोषण द्वापर त्रेता से लेकर कलयुग तक अविच्छिन रूप से जारी है।
तीसरे गीत का आधार विज्ञान सम्मत जैन दर्शन का कर्मसिद्धान्त है जिसे सभी दर्शनों में मान्यता प्राप्त है।
शचीन्द्र जी के गीत से गुजरते हुए मुझे तत्ववेत्ता आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी जी के अमर ग्रन्थ प्रवचन सार की ९५ वीं गाथा का सहज ही स्मरण हो आया।
कर्मसिद्धान्त की थ्योरी पर आधारित कविवर शचीन्द्र जी का गीत प्रवचनसार की इस कारिका से कितना मेल खाता है द्रष्टव्य है प्राकृत में लिखी यह कारिका
"परिणमदि जदा अप्पा सुह्मिह आसुह्महि राग दोस जुदो।
तं पव सदि कम्म रणं णाणा वरणादि थावेहिं।९५।"
भावार्थ यह कि:-
"जिस समय यह आत्मा- राग द्वेष भाव सहित हुआ अशुभ भावों में परिणमन करता है, तब कार्य रूपी रज ज्ञाना वरण आदि कर्म रूप में प्रवेश करता है।और जीवात्मा साथ बंध जाता है,कषाय के कारण *पुद्गल कार्मण वर्गणाएँ कर्मरूप में परिणत होने के बाद वे कर्म जीवात्मा के साथ बंध जाते हैं,यही वंध है।"
भक्त कवि तुलसी कृत राम चरित मानस में भी कर्म की महत्ता को प्रतिपादित करती हुई एक चौपाई आती है।
"कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,
जो जस करै सो तस फल चाखा"
*पुद्गल कार्मण वर्गणाएँ ( पुद्गल का संस्कृत एवं पाकृत में अर्थ हैं -"जो उत्पन्न होता हैं और गल जाता हैं"।आंशिक रूप से अंग्रेजी में पुद्गल को मैटर कहा जा सकता हैं।)
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कहाँ आ गए
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कवि तुम कहाँ आ गए भाई
यह तो है बाजार
यहां पर क़दम क़दम बिखरी चतुराई
यहाँ न काम करेंगे शब्द,
अर्थ या टटके बिंब तुम्हारे
भीतर उतर नहीं पाएँगे
गीतो वाले सहज इशारे
गोताखोर नहीं हैं
नापें जो उन भावों की गहराई
सबके बाड़े अलग ,
सभी के अपने-अपने अलग अखाड़े ।
मंचों की है अलग सियासत
अलग वहाँ राजे-रजवाड़े ।
पूरा दल दौड़ा आता है
सिर्फ एक आवाज लगाई ।
सस्ती चीजों पर
ऊपर के चढ़े मुलम्मे हैं चमकीले
चटकारे भरते हैं
उनको देख- देखकर रंग रँगीले
जितना घटिया माल भरा है
उतनी ही दूकान सजाई ।
साधना
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आओ करें साधना
हमको सबसे पीछे खड़े व्यक्ति के
शब्दों को ताकत देनी है ।
चारों तरफ भीड़ है
आपाधापी ऐसी
आपस में न कहीं कोई रिश्ता नाता है
आगे वाले को धकिया कर
पीछे वाला
गर्व- सहित उससे भी आगे बढ़ जाता है
लेकिन सबसे दूर
खड़ा जो निर्विकार है
बित्ता भर अपना पग नहीं बढ़ा पाता है
हमें उन्हीं सब लोगों से
लोहा लेने की
उसके मन को बहुत सबल चाहत देनी है ।
जितनी धाराएं हैं
जिनमें लहर न उठती
शांत दीखते हैं ऊपर के कूल-किनारे
जो कि राख की
कई सघन परतों के नीचे
मौन छिपाए रखते दबे हुए अंगारे
आने वाली
सभी परिस्थितियों को अपनी
नियति मानकर बैठे रहते हैं मन मारे
हमें हवा देनी है
उनकी दबी आग को
दहकाकर दुनिया को गर्माहट देनी है।
स्वीकृति
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हम जो भी हैं
अपने कारण हैं
आओ यह सत्य आज स्वीकारें
सुख-दुख
यश-अपयश के थे विकल्प
पर हम ने स्वेच्छा से
एक को स्वयं ही तो छाँटा है।
युग-युग से निर्विवाद सत्य यही है केवल
जैसा बोया हमने वैसा ही काटा है
हम ही लाए
अपने आँगन पर
बादल के दल,
बिजली,बौछारें
आओ यह सत्य आज स्वीकारें
सौंपें दायित्व
किसी सत्ता को नहीं
स्वतः जीवन में उठ रहे
अदम्य चकवातों का
मढ़ें नहीं दोष
किसी मौसम के माथे पर
ठिठुर दिशाओं का, खौलते प्रपातों का
नहीं किसी की
भेजी हैं बहती
तरल भयंकर पावक की धारें
आओ यह सहज स्वीकारें ।
हमने ही
अपने सुकुमार हृदय को
अपनी हठधर्मी से ही
शरबिद्ध किया बार-बार
शाश्वत स्रोतों से कटकर
केवल वृर्त्तों की
सीमा में यौवन को वृद्ध किया बार -बार
हमने सरिता पर तटबंधों की
निर्मित खुद की ऊँची दीवारें
आओ यह सत्य आज स्वीकारें।
कवि शचींद्र भटनागर व्यक्तित्व और कृतित्व
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तीसरी और अंतिम किश्त
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पिछली किश्त में हमनें शचीन्द्र भटनागर जी के व्यक्तित्व के एक पक्ष समष्टिगत आयाम के कुछ गीतों पर संक्षेप में चर्चा की थी।कवि के विविध आयामों पर चर्चा करते हुए आज हम उनके व्यक्तित्व के एक और महत्वपूर्ण पक्ष वैयत्तिक आयाम के कुछ गीतों को देखें,तो जीवन के उत्तरार्ध में लिखे गये इन गीतों का केंद्रबिंदु घर-परिवार है और इसके चाक पर कवि शचींद्र भटनागर भ जी के दाम्पत्य से जुड़ी स्मृतियाँ निरन्तर घूमती हैं।इनमें से अधिसंख्य गीतों का सृजन प्रिया के विछोह की मार्मिक पीड़ा के चलते हुआ है।
समग्रतः देखें तो कवि शचीन्द्र भटनागर जी चिंतन दृष्टि के स्वामी तो है ही साथ तत्ववेत्ता भी हैं।यही कारण है कि कवि,प्रिया वियोग से उपजी दारुण दुख देने वाली स्थिति को हरि की इच्छा मानकर"महक तुम्हारी" शीर्षक में अपनी प्रिया द्वारा रोपे गये,तुलसी के एक पौधे से रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।और अपने दाम्पत्य जीवन की मोहक छवियों को स्मरण करते हुये कितनी सहजता से कहते हैं कि
"जब भी ख़ुद को
कभी अकेला पाता हूँ
बरसों पीछे
लौट-लौट मैं जाता हूँ
तब बिन बोले
मन -ही -मन कुछ बतियाना
अच्छा लगता है।"
तुलसी के बिम्ब से कवि छोटे से गीत में भारतीय संस्कृति और परम्परा का निदर्शन बड़ी सहजता से करा देता है।
शचीन्द्र जी का इसी पृष्टभूमि पर एक और गीत है जो अर्थ के विपर्यय की दृष्टि से भी रेखांकित करने योग्य है इसे क्या विडम्बना ही तो कहेंगे
एक निमिष में कवि तुलसी के विरवे के पास ठहरकर सुधियों के मनोहारी संसार में सुख का आभास करता है और दूसरे ही पल घर को घर बनाने वाले के न होने पर तरतीब से लगे घर का ख़ालीपन कवि से सहा नहीं जाता।कवि को अपने ही घर के कोनों बीहड़ बन उग आने का आभास होता है।बेहद स्तरीय गीतों को गुन कर और इनपर लिख कर सचमुच मैं अपने को धन्यपाता हूँ।
यद्धपि गीत तो और भी हैं जो अपने आप में यूनिक हैं,पर संग्रह के कुछ गीत जिसका उल्लेख मुझे जरूरी लगा।मुझे अपने जीवन काल में पहली बार पुत्रवधुओं पर केंद्रित गीतों से गुजरने का अवसर मिला जिनमें से एक गीत आपके अवलोकनार्थ यहाँ प्रस्तुत है।
आभारी हूँ,परमादरणीय मयंक श्रीवास्तव जी का जिन्होंने मुझे शचीन्द्र जी का एक संग्रह "कुछ भी सहज नहीं"गीत संग्रह पढ़ने के लिए आज से लगभग तीन साल पहले उपलब्ध कराया और कवि शचीन्द जी से एक सौजन्य भेंट का सुअवसर भी दिया।
कवि नीरोग रहें और शतायु हों !
मनोज जैन
शचीन्द्र भटनागर जी के
अकेली पौध
यह बहू जो छोड़ सब-कुछ
आ गई अनजान घर में
है अकेली तुम इसे अपनत्व देना।
माँ -पिता,भाई बहन का
प्यार छोड़ा
आँगना-दालान,
देहरी -द्वार छोड़ा
छोड़ सखियाँ ,
राखियाँ तीजें यहाँ आई शहर में
है अकेली,तुम इसे अपनत्व देना।
एक तुलसी पौध है
सुकुमार है यह
स्वस्थ्य प्राणों का
सुखद संचार है यह
ध्यान रखना
यह न मुरझाए सुलझती दोपहर में
है अकेली तुम इसे अपनत्व देना।
मायका था बस
भरा-पूरा सरोवर
तब अपरिचित था
न कोई भी वहाँ स्वर
ताल की मछली
यहाँ भेजी गई बहने लहर में
है अकेली,तुम इसे अपनत्व देना।
महक तुम्हारी
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अच्छा लगता है
तुलसी के पास
एक पल रुक जाना
अच्छा लगता है
यह तुलसी की पौध
तुम्हारी थाती है
इससे पावन महक
तुम्हारी आती है
फूल पँखुरियों वाले
जल से
इसे सवेरे अरघाना
अच्छा लगता है
पात -पात में इसके
दृष्टि तुम्हारी है
झलक रही इसमें
संतुष्टि तुम्हारी है
दरवाजे के निकट
आज भी
इसका दिन दिन हरियाना
अच्छा लगता है
जब भी खुद को
कभी अकेला पाता हूँ
बरसों पीछे
लौट-लौट में जाता हूँ
खड़े-खड़े ही
तब ने बोले
मन-ही-मन कुछ बतियाना
अच्छा लगता है।
ख़ालीपन
-------------
अब इस
तरतीब से लगे घर का
ख़ालीपन सहा नहीं जाता
शोकेसों के भीतर
सजी हुई
ये चीजें
जानी पहचानी हैं।
सब-की-सब हुईं आज
बेमौसम अर्थहीन
बिल्कुल बेमानी हैं।
घर के
हर कोने तक उग आया
बीहड़ बन सहा नहीं जाता ।
होली, दीवाली आईं
आकर
चली गईं
अनमनी अलूनी
राख की परत में
लिपटी
सुलगा करती है
अनदेखी धूनी
तुम बिन
हरियाली तीजों वाला
अब सावन सहा नहीं जाता।
टिप्पणी
मनोज जैन
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106,विट्ठल नगर गुफामन्दिर रोड़
लालघाटी
भोपाल
462030
9301337806
किश्त दो की लिंक
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=358637088868975&id=100041680609166
किश्त एक की लिंक
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=357662485633102&id=100041680609166
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