गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

रघुवीर शर्मा जी की कृति पर चर्चा प्रस्तुति : वागर्थ

हुकुम करें सरकार के बहाने रघुवीर शर्मा जी के गीतों पर एक चर्चा और वरेण्य रचनाकारों से कुछ प्रश्न

मनोज जैन

इस समय मेरे हाथ में 
धारूखेड़ी तह. हरसूद जिला खण्डवा के वरिष्ठ रचनाकार आदरणीय रघुवीर शर्मा जी की पुस्तक "चारों ओर कुहासा है" की एक प्रति है और जिस पर मैं अलग ढंग से बात करने का मन बना रहा हूँ।
 पुस्तक में चार बड़े रचनाकारों ने शर्मा जी की रचनाओं पर अपने-अपने ढंग और दृष्टिकोण से अपनी बात की है।चार में से दो से इसलिए सहमत हुआ जा सकता है कि इन दोनों का दूर-दूर तक गीत-नवगीत से कोई लेना देना नहीं है।
अब चलते है दो उन रचनाकारों के पास जिनके यहाँ गीत नवगीत की व्यापक समझ और सूझबूझ है पर उनके अर्थातों में सत्य वैसा प्रकट होता दिखाई नही देता जैसा प्रकट होना चाहिये था।
द्रष्टव्य है एक वरेण्य कवि गीतकार के आलेख का अंश जो कवि ने शर्मा जी की रचनाओं पर बात करते हुए लिखा हैं।वे कहते हैं कि 
                   "सब कुछ इन छोटे-छोटे गीतों में सहेज कर रख दिया है रघुवीर शर्मा जी ने।वे नहीं जानते हैं कि उनके ये गीत किस श्रेणी में रखे जाएँगे गीत, नवगीत,जनगीत या और कुछ।सत्य है कि हर गीत पहले गीत है फिर और कुछ।देवेंद्र शर्मा इन्द्र के अनुसार हर नवगीत पहले गीत होता है पर हर गीत,नवनीत नहीं होता।गीत में गेयता,लय और रस उसके अनिवार्यता है।
                                                 लय,रस हीन कोई गीत-गीत नहीं होता।विडंबना यह है कि नवगीत के नाम पर अखबारी कतरन,सपाट बयानी छन्द,लयभग्न गीतों के माथे पर नवगीत का टीका चन्दन लगाकर नवगीत के थोक बाजार ने गीत का स्तर गिराया ही है।आज के कई खेमे और अखाड़े यही कर रहे हैं एक दूसरे की प्रशंसा और वाह-वाह नवगीत संग्रह के नाम से रोज नए संग्रह आ रहे हैं।बेहतर हो वे पहले गीत को समझने का प्रयास करें।सहज आए बिम्ब प्रतीकों से रचे बसे इन सहज गीतों को यदि नवगीत कहा जाए तो अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा"
                 यह महज संयोग ही है कि गीत की पुस्तक पढ़ते वक़्त मेरे लिए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद याद आये जिन्होंने अपने मन की बात को कहानी पंच परमेश्वर के एक पात्र खाला से कहलवाने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की थी।दरअसल ऐसी ही असंगतियों को देखकर जब कथाकार का मन टूटा होगा तभी उन्होंने क्लास की बजाय मास को सन्देश देने के लिये पंच परमेश्वर का आकल्पन रचा होगा और खाला के मुँह से निकले यह शब्द किसी और के नहीं बल्कि खुद प्रेमचंद के ही रहे होंगे।
     "क्या बिगाड़ के डर से न्याय की बात न कहोगे"
                    कहने का आशय यह है कि बिगाड़ के डर से न्याय की बात तो लोग आज भी नहीं करते।
            निःसन्देह कविवर रघुवीर शर्मा जी का कथ्य धारदार है पर उनके यहाँ लय और छन्द की वह पकड़ जो छोटे मीटर में इशाक अश्क जी के यहां थी मुझे कम ही दिखाई देती है।
                                  छोटे मीटर के दो या तीन अंतरों वाली रचनाओं पर अभी बहुत काम होना था पर यह भी सम्भव है कि यह बात बिगाग के डर से हमारे आत्मीय शर्मा जी से उनके किसी मित्र ने नहीं कही। जबकि शर्मा जी बहुत सरल और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी हैं।
           संग्रह की रचनाओं पर वरेण्य कवि का उक्त सन्दर्भित स्टेमेन्ट जिसका पूरा पैरा यहाँ अवलोकनार्थ दिया गया है कम  मेल खाता है।
                                     गत दिनों फेसबुक पर मेरी नजर एक पोस्ट पर पड़ी एक बड़े कवि ने अपना एक गीत अपनी वॉल पर चस्पा किया था गीत की तकनीकी के हिसाब से गीत के तुकान्त एक दम फिट नही थे कहीं कहीं क्रिया पद भी गड़बड़ था बाबजूद इसके उनके तमाम मित्रों ने जो उनकी विचारधारा से जुड़े थे इन गलतियों को बताने की जरूरत नहीं समझी जबकि टिप्पणियों वाले अनेक कवि अपने स्तर पर एक दम निर्दोष रचते हैं।
                                  यदि कोई संकोचवश बताने का दुस्साहस करे तो कथ्य का रक्षा कवच ओढ़ने में देरी नही करते मेरे कहने का आशय व्यवहारिक जीवन में डबल स्टेंडर्ड क्यों?
  हाल ही में नवगीतकार Yogendra Datt Sharmaजी की इन पंक्तियों से गुजरना हुआ सोचा रघुवीर शर्मा जी पर अपनी बात समाप्त करते हुए आपको पढ़वाता चलूँ!

मान जायें बुरालोग
तो मान लें
शत्रु अपना तुझ वे 
भला मान लें
ध्यान उन पर न दे
मूल मुद्दा पकड़
     आशा है Raghuvir Sharmaजी मेरी बातों पर गौर करेंगे।
आइये पढ़ते हैं संग्रह 
चारों ओर कुहासा है से कुछ चयनित गीत
टीप और प्रस्तुति
मनोज जैन

हुकुम करें सरकार
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हुकुम करें सरकार
और हमें अब 
क्या क्या करना है !

सपने गिरवी रख आए हैं 
राजघरानों में ।
अपने साथ नहीं है कोई 
इन वीरानों में 

एक घोंसला बचा 
इसे क्या 
तिनका तिनका करना है ।

फिकर नहीं करना मालिक 
हम तो बंजारे हैं।
दुखड़े सहते,जाते कितने 
बरस गुजारे हैं ।
माफ करें सरकार 
दर्द यह किसने छीना है ।

नये-नये सामन्तआपकी
 नई-नई मुद्राएं 
नये-नये सिंहासन हैं
नई राज सभाएँ में 
मौज करें सरकार
हमें ऐसे ही जीना है।
आओ 
कुछ पल बैठें 
अपने मन की बात करें ।

क्या क्या किसके 
साथ घटा है 
बेमन कैसे 
समय कटा है 

ठकुर सुहाती छोड़ें 
अपने मन की 
बात करें ।

जुड़ते जुड़ते कब 
घर बिखरा 
कब टूटा 
संयम का पहरा ।

गूंगी भाषा को 
जोड़ें बचपन की 
बात करें।
नई सुबह
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नई सुबह की
नई किरण
तुम ऐसेआना

सत्य आज है कैद
द्वार पर ताले जड़े हुए हैं।
बौने कद के लोग 
यहाँ शिखरों पर चढ़े हुए हैं।

मौन तोड़कर 
अधरों पर 
मुस्कानें लाना। 

ऐसा उजियारा फैले,
हर कोना आलोकित हो।
सभी दिशाओं में,
दिनकर के हस्ताक्षर अंकित हो।

नये वर्ष में 
नई सदी का 
गूँजे नया तराना।

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