गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

कैलाश चन्द्र पंत जी की एक प्रतिक्रिया




 'धूप भरकर मुठ्ठियों में'
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भारतीय परंपरा में कवि का स्थान शीर्ष पर माना गया है क्योंकि वह शब्द ब्रह्म की साधना करता है साधकों को सम्मान कर मानव सभ्यता कृतार्थता बोध ही प्रकट करती रही है ।
लेकिन जिस तरह साधक ,उसी तरह कवि को आत्म- परिष्कार से गुजरना होता है। इसका अर्थ है कि रचनाकार अपने सृजन के क्षणों में आंतरिक और वाह्य कुंठाओं से मुक्त हो ।
इस तत्व को पहचानने के बाद ही कवि लिख पाता है-
कुछ नहीं दें किंतु हंसकर/
प्यार के दो बोल बोलें/
हम धनुष से झुक रहे हैं /
तीर से तुम तन रहे हो /
हैं मनुज हम तुम भला फिर /
क्यों अपरिचित बन रहे हो /
हर घड़ी शुभ है चलो मिल /
नफरतों की गांठ खोलें /
आज की त्रासदी यह है कि मनुष्य अपनी मनुष्यता ही खोता जा रहा है ।उसे बचाने का प्रयास यदि सघनता से न किए गए तो मानव को मशीन बनने से नहीं रोका जा सकेगा और मशीन में संवेदना नहीं होती ।
बाजारवाद के माध्यम से मुद्राराक्षस मनुष्य की बची खुची संवेदना को लील जाने को अपना जाल बिछा चुका है।
कवि मनोज जैन इस संकट के प्रति सचेत हैं-
खोजते हम /
सुख रहे /
भौतिक शरीरों में /
हर्ष हम ढूँढा किये /
मणिरत्न हीरों में।
कवि पलायनवादी नहीं है।आत्मविश्वास से भरा-पूरा है-
मैं दम लूँगा देश बदलकर/
यह पूरा परिवेश बदलकर/
कवि की इन पंक्तियों से भ्रम हो सकता है कि वह क्रांति का आह्वान कर रहा है। इस बदलाव में उसका ध्यान उर्ध्वगामी क्रांति की ओर है।यहीं पर कविताओं के केंद्र में जैन दर्शन का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है।यही बात मनोज को अन्य कवियों से अलग खड़ा करती है। मनुष्य में बदलाव के लिए आंतरिक परिवर्तन पर,जिसे जैन दर्शन में अपरिग्रह कहा गया है,बार-बार आग्रह करता दिखाई देता है।उसकी मान्यता है-
ब्रह्मवंशज हम सभी हैं /
ब्रह्ममय हो जायेंगे/
बैन सुन अरिहंत भाषित/
शिव अवस्था पाएंगे/
भक्ति गीत की ध्वनि दिखाई दे सकती है।लेकिन समन्वय के अंतर्निहित संदेश को समझना होगा। इन पंक्तियों से कवि के व्यक्तित्व के आधार समझे जा सकते हैं ।वह सामाजिक प्रश्नों पर,पर्यावरण पर,विध्वंसकारी प्रवृत्तियों पर भी कलम चलाता है।पर कवि अपनी संवेदना की सहजता को लुप्त नहीं होने देता -
छंदों में हो /
आग समय की /
थोड़ा सा हो पानी /
हंसती दुनिया संवेदन की /
अपनी बोली बानी /
कथ्य आँख में आलोचक की/
रह-रह करके खटके /
आज के समय में मनोज के कथ्य का खटकना स्वाभाविक है।
परन्तु कवि स्वीकार करता है यह पथ मेरा चुनाव हुआ है। वह उस पर मोहित है और समाज को छंद की लय देने का वचन भी नहीं देता,घोषणा भी करता है।
कवि की इस द्वितीय कृति 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' से संभावनाओं का स्रोत प्रत्यक्ष है ।
निश्चित ही पाठक, कवि के कुंठामुक्त गीतों को उसी स्तर पर पढ़कर उनका आस्वाद लेंगे ।
मेरी हार्दिक बधाई 

कैलाश चंद्र पंत
मंत्री संचालक 
राष्ट्र भाषा प्रचार प्रसार समिति
हिंदी भवन
श्यामला हिल्स भोपाल

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