शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

अशोक धमनियाँ जी के संस्मरण पर चर्चा

आज वागर्थ के
कॉलम में संस्मरण विधा में पढ़ेंगे,यात्रा वृतांत कवि लेखक अशोक धमनिया जी की कलम से, Ashok Dhameniya जी एक मात्र ऐसे संस्मरणकार हैं जो बिना देखे अपने संस्मरण का पाठ पूरी तन्मयता से करते है।उनकी इस विलक्षण प्रतिभा को मैंने उनकी कृति 'मेरे ईश' के लोकार्पण के समय जाना
             प्रस्तुत यात्रा वर्त्तान्त में लेखक लोक और उससे जुड़ी आस्था को अपनी रोचक शैली और अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करता है।यद्धपि चमत्कार ,आस्था और मान्यता निजता के विषय हैं।यह पाठक के अपने संज्ञान पर निर्भर कि वह प्रस्तुत विषय वस्तु से अपने लिए क्या चुनें!
कुल मिलाकर लठाटोर भगवान के पाठ से कहीं न कहीं आस्था तो बलवती होती ही है।
           पूरे प्रसंग में मुझे जो बात मुझे पसन्द आई वह लेखक की अन्तर दृष्टि ही है जिसने आस्था की आड़ में मनुष्य के भौतिक छल को सुस्पष्ट शब्दों में पकड़ कर व्यक्त कर दिया एतदर्थ में अशोक धमनिया जी को बधाई देता हूँ।
प्रस्तुत है वह अंश जिसका जिक्र मैने किया है ।

        "पुजारी जी से चर्चा में मुझे इतना अवश्य समझ आया कि शायद वर्तमान मंदिर घनी आबादी में होने से पुजारी या अन्य कोई इस जगह का व्यापारिक उपयोग सोच रहे होंगे और भगवान जी को नदी के दूसरी ओर  वीराने  में बैठाना चाहते होंगे।"

प्रस्तुति
मनोज जैन
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लठाटोर भगवान  
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         भूमि भ्रमण केवल मनोरंजन न होकर एक ठोस शिक्षा क्रम है । वास्तव में बगैर भ्रमण के किताब द्वारा अर्जित ज्ञान को सीमित दायरे में ही आंका जा सकता है । भ्रमण में आंखों देखी "प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम् " के समान है । उपरोक्त भावना से ओत -प्रोत होकर तीर्थ स्थानों के दर्शन करने की कामना ने मेरे अंदर वेग धारण करते हुए वहाँ जाकर  भगवान के दर्शन के लिए प्रेरित किया। 
           पूर्व में हमारे कई मित्र / साहित्यकार भगवान लठाटोर की जानकारी अपनी पत्रिका में छापने के लिए मुझसे मांग करते रहे हैं ।  अतः  प्रभु दर्शन में क्या प्रसाद मिला , क्या देखा ? वृतांत के माध्यम से आप सभी के साथ मिलकर रसधार का संयुक्त पान और भगवान लठाटोर के संबंध में जो कुछ देखा , जानकारी प्रस्तुत करने की अनुमति चाहता हूं । 
             मऊरानीपुर , मेला जलविहार का जो विशेष आकर्षण है , वह है वहां के  लठाटोर  महाराज। लठाटोर भगवान अर्थात लठा को तोड़ने वाले भगवान जी । आख्यान  है कि वर्षों पहले लठाटोर  भगवान का विमान चार कहारों द्वारा उठाया जाता था। लेकिन विमान उठाने के दरमियान तथा रात्रि में विहार करते समय हर साल एक कहार मर जाया करता था । अतः कहारों ने  लठाटोर भगवान का विमान उठाने से मना कर दिया , तब फिर लठों की व्यवस्था की गई । बांस के मोटे - मोटे  लठों पर भगवान के विमान को रखा जाता और लठों पर भगवान के विमान को उठाकर भक्त और कहार रात भर चलते थे। लेकिन यह क्या !  इन लठों में से भी एक लठा रास्ते में टूटने लगा । बताया जाता है कि तब प्रशासन ने व्यवस्था की जांचकर मोटे से मोटे लठों की व्यवस्था करायी  तथा निगरानी भी की गई । किंतु खास स्थान पर आकर लठा टूटता रहा । इसे कोई रोक नहीं पाया। इसीलिए इनका नाम लठाटोर भगवान पड़ गया । बाद में पुनः प्रशासन के हस्तक्षेप से लठों के स्थान पर विमान एक मोटर गाड़ी में निकलने लगा । किंतु नियत स्थान पर पहुंचकर यह मोटर गाड़ी भी पंचर हो जाती है /बंद हो जाती है । भक्तगण इसे धक्का देकर काफी मशक्कत के बाद स्टार्ट करते हैं , तब गाड़ी आगे बढ़ती है । भगवान की लीला के सामने अधिकारियों की सारी जांच और सावधानियां असफल हो गईं । 
               भगवान का एक नाम भी लीलाधर है। उनकी लीलाओं को समझना तुच्छ  मानव केे परे की बात है। बताया जाता है कि जिस मंदिर में भगवान कृष्ण (लठाटोर जी ) विराजते हैं , उनके साथ राधिका जी भी बिराजतीं थी। किंतु किन्हींं कारणों से राधिका जी का विग्रह खंडित हो गया। अतः  इस विग्रह को प्रयाग ले जाकर विसर्जित कराया गया । रात्रि में प्रयाग के पन्डों को विग्रह ने दर्शन दिये,  तब पंडों ने  विग्रह निकालकर वहीं पर स्थापन करा दिया। इधर मऊरानीपुर में एक सेठ द्वारा राधिका जी का नया विग्रह मँगाया गया और उसके साथ भगवान कृष्ण का विवाह रचाकर कन्यादान किया । तत्पश्चात राधिका जी को विदा किया और  विधिवत विग्रह की स्थापना मंदिर में करायी। तब से सेठ जी का  घर भगवान कृष्ण की ससुराल बन गया है। जब भी भगवान जलविहार के अवसर पर अपने ससुराल से होकर निकलते हैं ,तो मचल जाते हैं । तथा उपरोक्त घटनाएं होती हैं ।  भगवान के मंदिर में पूर्व में एक बूढ़ी माँ सेवा के लिए रहा करतीं थीं ,जो दिन भर उनकी सेवा किया करतीं थीं। जब वो ससुराल आकर मचलते तथा आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते , तब वह बूढ़ी माँ गुस्सा होकर चँवर से उनको मारतीं  तथा कहतीं :-
            "अब आगे नहीं चलना क्या? कब तक ससुराल में मचले रहोगे । अब ससुराल पुरानी हो गई है । चलो देर हो रही है । "-बताते हैं कि बूढ़ी माँ के द्वारा यह कहने पर विमान आगे बढ़ने लगता था । 
             भगवान  लठाटोर की नगर यात्रा के समय सर्वाधिक भीड़ रहती है । दूर-दूर से ग्रामीण आकर नदी के किनारे और पूरे बाजार में दर्शन के लिए बैठे रहते हैं, घूमते रहते हैं । लोग भगवान के दर्शन कर, कुछ देर के लिए विमान में लठे के नीचे लगने तथा विमान के नीचे से निकलने में अपने को धन्य मानते हैं । जलविहार के पश्चात भगवान लठाटोर का विमान भी अगले दिन भक्तों के घर- घर जाता है, सभी भक्तजन पूजा /अर्चना करते हैं तथा भगवान के घर आने पर अपने को धन्य मानते हैं , अंग - अंग फूले नहीं समाते  हैं ।
              अपनी मऊरानीपुर यात्रा के दौरान में भगवान लठाटोर के मंदिर भी गया । यह मंदिर छिपयाने (दमेले चौक) में स्थित है । मेरी यात्रा के समय मंदिर के नवीनीकरण का कार्य चल रहा था । इस मंदिर के पुजारी और सर्वेसर्वा श्री बृजेंद्र तिवारी जी हैं।  संभवत मंदिर का कोई ट्रस्ट नहीं है। बताया गया कि इस संबंध में प्रक्रिया चल रही है । पुजारी जी और आसपास बैठे भक्तों ने बताया कि जलविहार की झांकी के समय लठाटोर महाराज की साज-सज्जा भगवान की पसंद के अनुरूप करना पड़ती है। कई बार तो उनको बांधे जाने वाले साफे आठ-दस बार बदलना पड़ते हैं, जो उनको पसंद नहीं आते , वह सिर पर रुकते ही नहीं । जो साफा पसंद आ जाता है केवल वही रूकता है । पुजारी जी ने मुझे श्रंगार के समय आने के लिए कहा ताकि सब कुछ अपनी आंखों से देखा जा सके । पुजारी और अन्य लोगों  से चर्चा में यह भी विदित हुआ कि भगवान के लिए एक दूसरा नया मंदिर नदी के दूसरी ओर बनवाया गया है । किंतु भगवान वहां जाने को तैयार ही नहीं है । जब भी गाड़ी नए मंदिर की ओर जाती है तो रास्ते में ही बंद हो जाती है और आगे नहीं बढ़ती। पुजारी जी से चर्चा में मुझे इतना अवश्य समझ आया कि शायद वर्तमान मंदिर घनी आबादी में होने से पुजारी या अन्य कोई इस जगह का व्यापारिक उपयोग सोच रहे होंगे और भगवान जी को नदी के दूसरी ओर  वीराने  में बैठाना चाहते होंगे । पर लालच में आदमी यह भूल जाता है कि भगवान तो अंतर्यामी होते हैं । लठाटोर भगवान,  भोलेनाथ थोड़े हैं जो सुनसान जगह में जाकर बैठ जाएँगे। 
              चर्चा के  समय योग से ससुराल पक्ष की एक बूढ़ी माँ भी आ गईं । वह भगवान को जलविहार के समय घर पधारने का निमंत्रण देने आईं थीं । सही भी है , ससुराल में बगैर निमंत्रण के भगवान जी कैसे जाएं? बुंदेलखंड की परंपरा है कि दामाद अपनी ससुराल में बगैर निमंत्रण /बुलावे  के नहीं जाया करते । 
             भगवान की लीला भगवान ही जानें,यह हम जैसे न समझ व्यक्ति कीे समझ से परे है। भगवान लठाटोर  जो इस क्षेत्र में जन -जन के भीतर आस्था के रूप में समाए हुए हैं , उनका मैं वंदन करता हूं ,नमन करता हूं।

                              अशोक कुमार धमेंनियांँ   'अशोक'

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