गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

एक पोस्ट दो नवगीत

तकरीबन डेढ़ दशक पहले लिखे गए इन तीन गीतों को आप सभी आत्मीय मित्रो के साथ साझा कर रहा हूँ।
               मेरे कुछ बहुत ही आत्मीय मित्रो ने तो इन रचनाओं को,फाड़कर पास ही की किसी नदी में,प्रवाहित करने की बहुत मासूम सी, प्यारी और न्यारी- सी सलाह मुझे दी थी,पर मैं आदतन काम थोड़े से उल्टे की करता हूँ।मित्रों के सुझाव को ठंडे बस्ते में डालते हुए मैंने इन गीति रचनाओं को ना तो जल में प्रवाहित किया और ना ही समूल नष्ट।
 हाँ,इन कविताओं को फेस बुक के ब्लैक होल के मुहाने खड़े होकर हवा में जरूर उड़ा रहा हूँ।
हो सकता पाठकों को पसन्द आएं।
कल की पोस्ट पर समकालीन गीत-नवगीत के प्रख्यात समालोचक आदरणीय इंदीवर पांडेय जी,का ध्यान मेरे गीतों पर गया उन्हें विशेष आभार 
निःसन्देह ,निंदनीय के सभी टैंकों के मुहाने पर होते हुए भी मैं अपने गीतों को आगे और भी धारदार भाषा में प्रस्तुत करूँगा।
आप सभी पाठकों की उत्साह वर्धक टिप्पणियों के बलबूते, तब से लेकर अब तक यहाँ,डटकर खड़ा हूँ ।
आपका बहुत आभार
आभार ,ख्यात गीतकार आदरणीय Ramesh Yadav जी का, जिनकी वॉल से मैंने यह बहुत मनभावन तस्वीर चुरा ली है।जो आप गीतों को पढ़ते समय देख रहे हैं।
नमस्कार
शुभदिन
टिप्पणी
मनोज जैन मधुर

प्रस्तुत हैं छोटे-छोटे मीटर के तीन गीत 

डलिया भर सुख 
_____________

हमने कब माँगा है 
डलिया भर सुख 

चुटकी भर खुशबू जो 
बो लेते
थोड़ा-सा हँस लेते 
रो लेते
दर्पण को दिख लाते 
हम अपना मुख 

राहों में आँधी है 
कांटे हैं 
हिस्से में गालों पर 
चाँटे हैं 
फिर भी तो मोड़ा है 
तूँफां का रुख 

एक पंख पाखी का 
तोड़ा है 
उड़ने को दुनिया ने 
छोड़ा है 
हँस-हँस कर काटा है 
पर्वत -सा दुख

2
काँच के घट हम 
किसी दिन 
फूट जायेंगे 

देह-काठी, 
काटती 
दिन-रात आरी
काल के कर में
कि प्रत्यंचा 
हमारी 

प्राण के शर 
देह-धनु से 
छूट जाएंगे 

देह-नौका 
भव-जलधि 
से तारती है 

मोह,माया,
क्रोध को 
संहारती है 

उम्र के तट हम 
किसी दिन 
टूट जाएंगे 

पुण्य का भ्रम 
बेल मद 
की सींचता है 
पाप भव के 
जाल में 
मन खींचता है 

क्या पता है 
कब नटेश्वर 
लूट जाएंगे

3

नहीं जरूरत 
पड़ी बंधु रे 
हमें कहारों की 

मीत हमारे प्राण 
गीत के 
तन में रमते हैं 

पथ में मिलते 
गीत जहां 
पग अपने थमते हैं 

नहीं जरूरत 
समझी हमने 
श्रीफल हारों की 

हमें स्वयं के 
कीर्तिकरण की 
बिल्कुल चाह नहीं 

थोथे दम्भ 
छपास मंच की 
पकड़ी राह नहीं 

नहीं जरूरत 
पड़ी कभी रे 
कोरे नारों की

हमें हमारी 
निष्ठा ही 
परिभाषित करती है 

कवि को तो 
बस कविता ही 
प्रामाणिक 
करती है 

नहीं जरूरत 
हमें बंधु रे 
पर उपकारों की

मनोज जैन

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