बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

गरिमा सक्सेना की एक टिप्पणी

आज आदरणीय मनोज जैन जी का जन्मदिन है, जो कि न सिर्फ स्वयं एक बेहतरीन नवगीतकार/दोहाकार हैं साथ ही उन चुनिंदा लोगों में से एक भी हैं जो नयी और पुरानी पीढ़ी के गीतकारों के बीच निरंतर पुल का कार्य कर रहे हैं.. आजकल जब लोग केवल स्वयं को पढ़वाने में विश्वास रखते हैं और निरंतर पाठक वर्ग विलुप्त होता जा रहा है वहाँ मनोज जैन जी निरंतर अपनी नवगीत/गीत प्रस्तुतियों से न सिर्फ नवगीतकारों को संबल प्रदान कर रहे हैं बल्कि एक वृहद पाठकवर्ग तैयार कर रहे हैं...  अच्छे साहित्य को अपनी सटीक टीप के साथ लोगों तक पहुँचाना निश्चित ही श्लाघनीय कार्य है...आज उनके जन्मदिवस पर उनके नवगीतों पर एक छोटी सी प्रस्तुति आप सबके सामने रख रही हूँ...

धार पर हम (२) की भूमिका में वरिष्ठ नवगीतकार आदरणीय वीरेन्द्र आस्तिक Virendra Aastik जी कहते हैं  "नवगीत केवल यथार्थ चेता ही नहीं होता उसमें त्रिकाल का वाग्यमन चलते रहना आवश्यक होता है एक सहज नवगीत की बुनावट में आवश्यकतानुसार बिम्ब प्रतीक और सपाटबयानी का संतुलन अपेक्षित है किंतु लय, छंद और प्रास उसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं ..." 
मनोज जैन जी के नवगीत इस परिभाषा को पूर्णतया जीते नजर आते हैं इनके गीतों में जहाँ विषय की विविधता,  सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करती है वहीं सपाटबयानी से इतर काव्यात्मक भाषा का भी ध्यान रखती है इसके साथ ही मनोज जी के गीतों में लय का प्रस्फुटन इसमें गीति तत्व को विस्मृत नहीं होने देता..अति प्रयोगवादी नवगीतों से इतर इनके नवगीत जनसरोकार अर्थात् आमजन की भाषा के नवगीत हैं जैसे - 
बार-बार टूटी है
मँगनी 
मन की इच्छा की 
सुख के कदम
पड़े न घर में
बड़ी प्रतीक्षा की
नरम पलक पर
पीड़ाओं के
गट्ठर ढोये हैं
सपने सारी उमर
सिरहाने 
रख कर सोये हैं

या

काश! हम होते नदी के
तीर वाले वट।
हम निरंतर भूमिका
मिलने मिलाने की रचाते।
पांखियों के दल उतर कर
नीढ़ डालों पर सजाते।
चहचहाहट सुन हृदय का
छलक जाता घट।
नयन अपने सदा नीरा
से मिला हँस बोल लेते।
हम लहर का परस् पाकर
खिल खिलाते डोल लेते।
मंद मृदु मुस्कान
बिखराते नदी के तट।
साँझ घिरती सूर्य ढलता
थके पांखी लौट आते।
पात दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते।
झुरमुटों से झांकते हम
चाँदनी के पट।
देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते।
जिंदगी होती तनिक सी
किन्तु कद में बड़े होते।
सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट।

गीतों की अस्मिता की रक्षा करने वाले मनोज जैन जी लिखते हैं-

नहीं ज़रूरत पड़ी बंधु रे
हमें सहारों की
हमें हमारी निष्ठा ही परिभाषित करती है
कविता को बस कविता ही आभासित करती है
नहीं जरूरत पड़ी 
कभी रे कोरे नारों की 

  इसी तरह गाँव की अस्मिता में हुए परिवर्तन का यह गीत देखें-

बहुत बुरे हालात हुए हैं
पुरखों वाले गाँव के

नहीं जड़ों को कोई देता
अपनेपन की खाद
घर का बूढ़ा बरगद झेले
एकाकी अवसाद
छाले रिस नासूर हुए हैं
पगडंडी के पाँव के

चौपालों पर डटा हुआ है
विज्ञापन का प्रेत
धीरे-धीरे डूब रहे हैं
यहाँ कर्ज में खेत
बाँट रही घर-घर की महँगाई
परचे रोज तनाव के

नई फसल की आँखों में है
‘बॉलीवुड‘ की चाल
नहीं सुनाता बोध कथाएँ
विक्रम को बेताल
टूट रहे हैं रिश्ते-नाते
यहाँ धूप से छाँव के

सन्नाटा पसरा आँगन में
दीवारों पर दर्द
हर चौखट पर टँगी हुई है
भूख- प्यास की फर्द
नहीं सुनाई देते अब तो
मगरे से सुर काँव के

 कर्म में विश्वास रखने वाले मनोज जैन जी के गीतों में दर्शन,आध्यात्म का पुट भी देखने को मिलता है जो नकारात्मक समय में मन को सकारात्मकता भी प्रदान करता है... अंत में एक गीत जो मुझे विशेष रूप से प्रिय है-

छोटी - मोटी बातों में मत
धीरज खोया कर।
अपने सुख की चाहत में मत
आँख भिगोया कर।।

              
काँटों वाली डगर मिली है
तुझे विरासत में।
छुपी हुईं  हैं सुख की किरणें
तेरे आगत में।
देख यहाँ पर खाईं पर्वत 
सब हैं दर्दीले।
कदम-कदम पर लोग मिलेंगे
तुझको दर्पीले।
कुण्ठाओं का बोझ न अपने
मन पर ढोया कर।।
             

बेमानी की लाख दुहाई
देंगे जग वाले।
सुनने से पहले जड़ लेना
कानों पर ताले।
मुश्किल से दो चार मिलेंगे
तुझको लाखों में।
करुणा तुझे दिखाई देगी 
उनकी आँखों में।
अपने दृग जल से तू उनके
पग को धोया कर।।
              

कट जाएगी रात सवेरा 
निश्चित आएगा।
जो जितनी मेहनत करता 
फल उतना पाएगा।
समय चुनौती देगा तुझको
आगे बढ़ने की।
तभी मिलेंगी नई दिशाएँ
आगे बढ़ने की।
मन के धागे में आशा के
मोती पोया कर।।

              
बीज वपन कर मन में साहस
धीरज दृढ़ता के।
छट जाएँगे बादल मन से
संशय जड़ता के।
सब को सुख दे दुनिया आगे-
पीछे घूमेगी।
मंज़िल तेरे खुद चरणों को
आकर चूमेगी ।
कर्म मथानी से सपनों को 
रोज़ बिलोया कर ।
छोटी-मोटी बातों में 
मत धीरज खोया कर।।

इसी के साथ जन्मदिन की सादर शुभकामनाएँ व बधाई, प्रणाम... 🙏💐💐

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