मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

जय कुमार शीतल के नवगीत

खुरदरे यथार्थ के सशक्त कवि :जय कुमार शीतल जी की पाँच कविताएँ
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                                              अपेक्षाकृत इन दिनों हम लोग सोशल मीडिया पर कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में पहले से ज्यादा सक्रिय हैं।फेसबुक मैसेंजर व्हाट्सएप्प ट्विटर ब्लॉग की लोकप्रियता के चलते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नए संस्करणों में अनेक साहित्यिक समूह भी अपनी महती भूमिका का निर्वहन अपने स्थान पर कर ही रहे हैं।और उन्हें चलाने वाले अनेक गुरुघण्टाल भी कुकुरमुत्तों की तरह यत्र तत्र सर्वत्र उग आए हैं।
         कोई सजल सिखा रहा है तो कोई पारम्परिक छंदों के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ है। कोई दोहा शिरोमणि बना हुआ।कहीं लघुकथाओं की कार्यशाला तो कोई ग़ज़ल पर अपना हाथ आजमा रहा है।मेरा अपना मानना है कि कविता तो संस्कारों में होती है।और संस्कारों से ही आती है।कविता तो धड़कनों में है।अभ्यास से आप कविता का फॉर्मेट भले ही सीख लें परन्तु कविता तो बिल्कुल भी नहीं।
            इन दिनों कुछ समूह प्रशासकों ने अपने ही गीत की पँक्ति देकर या पाँच शब्द हवा में उछाल कर अपने अधीनस्थ अधकचरे रचनाकारों को कल कारखानों में भर्ती किये बंधुआ मजदूरों की तर्ज पर गीत/दोहे/गजल/लघुकथाओं के भारीमात्रा में उत्पादन का काम सौंप रखा है।परिणामस्वरूप भारी मात्रा में(गीतों/दोहों/हायकु/लघुकथा/वर्ण पिरामिड और न जाने क्या-क्या)का  उत्पादन हो रहा है।दिशा और दशा के अभाव में अपरिपक्व और अधकचरे रचनाकार भाषा की चिकनी सतहों पर फिसलने को मजबूर हैं।
            उस पर समूहों के एडमिनो की सदस्यों इतनी  मजबूत पकड़ कि यदि कोई अपने सदस्य अपने प्रयासों से बाहर निकलने की कोशिश करे भी तो इनकी धौंस  उसे वापस उसी गड्ढे में उतार देती है जहाँ भाषाई स्निग्धता के इतने वलय हैं कि जहां से चाहकर भी रचनाकार का बाहर आना नामुमकिन भले ही न हो,
पर मुश्किल जरूर है।
            यद्धपि मैं आज आपको ऐसे रचनाकार के गीत पढ़वाने का मन बना रहा हूँ ,जिनका कथ्य पाठक के सिर पर चढ़कर बोलता है।मैं दावे से कहता हूँ चाहे कोई कितना बड़ा नामधारी गीतकार क्यों न हो इन नवगीतों की वैचारिकी अपने आप को बचाकर आसानी से नही निकाल सकता।प्रकारान्तर से कहूँ तो कवि के कथ्य से प्रभावित हुए बिना शायद ही रहे।
                  कवि ने जीवन के खुरदुरे यथार्थ को अनुभव की आँच में तपाकर अपनी सुदीर्घ साधना से इन खुरदुरे यथार्थ की नवगीतनुमा कविताओं को सिरजा है।निःसन्देह कवि के पास जो दृष्टि है वह नवीन है।गीतों की भाषा भले ही खुरदरी हो पर अपने धारदार कथ्य के कारण अवचेतन में कवि के गीत देर तक बने रहते हैं।कवि के तेवर,सोच और विचार में सच्चे जनवाद के दर्शन होते हैं। पूरे नवगीतो की पड़ताल करने पर जो विचार मेरे जेहन में उभरा यदि बिना लाग लपेट के दो टूक शब्दों में कहूँ तो,नवगीत शिरोमणि रमेश रंजन जी कवि के गीतों में और विचारधारा में सीधा प्रभाव देखा जा सकता है।
          समग्रतः जय कुमार शीतल जी के बारे में बात करें तो स्थानिक स्तर पर भले ही उनकी सक्रियता दर्ज होती रही हो,पर राष्ट्रीय साहित्यिक परिदृश्य से मुझे लगभग अपरिचित ही लगे बावजूद उनका काम सराहनीय है।
                      विचारधारा के स्तर पर श्रेष्ठ और सशक्त कविताओं का स्वागत करते हैं और पढ़ते हैं ग्राम पीकलोन तह.कुरवाई में जन्में जय कुमार शीतल जी के पाँच कविताएँ जय कुमार शीतल जी का वर्तमान में बासौदा जिला विदिशा मध्यप्रदेश में निवासरत हैं।
      उम्र के 70 वें सोपान पर आते आते उपलब्धि के नाम पर फिलहाल उनके खाते में "धार न टूटे नदी की"नाम से एक गीत नवगीत संग्रह तो है ही।
        कवि को हार्दिक बधाइयाँ
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एक
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थोड़ा -सा और बोझ काँधे
साहस करके जरा उठाओ
ओ,मेरी टूटती भुजाओ।

द्वार द्वार भूतिया अंधेरा ये
कहां-कहां धूप को नहीं निचोड़ेगा
धकियाती भीड़ बीच-अभिमन्यु 
रथचक्र कहाँ -कहाँ मोड़ेगा।
कर्ण का कवच पेट बाँधे
घने और घने 
चक्रव्यूह तोड़कर गिराओ।

सूखी टहनी से जीवन को 
कैद किये विषधरी भुजाओं ने
कुछ भी हो,शेष गरल पी,पीकर
अमृत बरसायेंगे  हवाओं में 
माथे तक बांधकर इरादे 
तने और तने देह 
मस्तक आकाश में उठाओ 
ओ,वह मेरी टूटती भुजाओ।
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दो
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मेरे भीतर 
बहुत भीतर 
एक जिंदा आदमी है ।
आपके सम्मान की 
लाज रखना लाजमी है ।
कथन में पीछे न था 
न हूँ,न ही रहूँगा 
शोषितों के साथ था 
हूँ ,और रहूँगा। 
अब इसे कुछ भी कहो 
किरदार में ये कमी है।

लोभ-लालच से परे 
आदमी नामा लिखा है 
ढहते हुए मूल्य,जीवन का 
सफर नामा लिखा है।
आकाश में उड़ना 
नहीं चाहा कभी 
पाँव के नीचे जमीं है।
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तीन
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मार पड़ी वक्त की
अभावों ने अर-अरा दिया।
भावों ने रोज हमें 
अधमरा किया।

क्या हम तुम ऐसे थे?
जैसा हमें बना दिया शहरों ने।
गाँव की मिट्टी से टूटे तो
नचा दिया सुबह ही सपेरों ने।

कसमसाये धूपों में
छाँवों ने मुस्कुरा दिया।

डूबती दिशाओं में
चूक गया एक दिवस और।
तिलक हीन माथे में
उलझ गया जीवन का ठौर।
बातूनी बना दिया बातों ने
घातों ने फिर हरा दिया।
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चार
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आँखों में जालों पर जाले
तिस पर धर्म ध्वजा 
सम्हाले।

अतीत-जीवी पूर रहे हैं 
दसों-दिशाएँ।
दृष्टि नहीं आज की 
कल को ही दोहराएँ।

ऐसे लगते 
चुल्लू भर पानी में 
सड़ते नाले।

उछल कूद में माहिर 
वानर विश्वासों में ।
अनुगूँजों से हांका 
गूँजे आकाशों में ।

रोके से अब नहीं रुकेंगे 
भले कोई 
इनको सम्हाले।

पाहन में करें 
प्राण-प्रतिष्ठा, जय जयकारें
नाकें ऊँची,
ऊँची होती इनकी झंकारें।

इतिहासों की 
गांठे बाँधे इनके 
ढोंग निराले।
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पाँच
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मौसम को देख 
दर्पण फिर 
चटक गया।

बिंबों में पड़ी सिर्फ 
झूठ की दरार।
साबुत है आकृति
अपने आकार।

आँखों को ऐसा 
हर दृश्य 
खटक गया।

ओढ़ लिये तन-मन पर
           स्वर्ण के लबादे।
धूर्त और धूर्त हुए
           दिखे सीधे-सादे।

मुद्रा ने मुद्रित की
छल की कहानी
और आदमी भटक गया।

प्रस्तुति 
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मनोज जैन

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