गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

गिरी मोहन गुरु के नवगीत

मन्त्रोच्चार आदि भारत को भार लगे होने:गिरी मोहन गुरू
के नवगीत का एक अंश                         
               विगत अनुभवों को,नये संयोजन के आकल्पन के मामले में,यदि अपना श्रेष्ठ देने के की बात हो,और यदि मुझे अब तक पढ़े नवगीतों में से किसी एक नवगीतकार के नाम को चुनने के लिए कहा जाय,तो मैं निर्विवाद रूप से एक नाम अवश्य चुनूँगा।
    और यह नाम है नर्मदापुरम होशंगाबाद मध्यप्रदेश के संत गिरिमोहन गुरू जी का जिन्हें हममें से अनेक मित्रों ने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में नियमित पढ़ा है।
                     यह बात और है कि अब तक नवगीत पर हुए शोधपरक रचनात्मक कार्यों की पूरी श्रृंखला पर गौर करें तो किसी भी महत्वपूर्ण संकलन में कवि गिरिमोहन गुरू जी की रचनाएं मेरे देखने में नहीं आईं।बाबजूद इसके गिरिमोहन जी के काव्य पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोधपरक कार्य जारी है।
                 कविवर गिरिमोहन गुरू जी की रचनाओं से गुजरते हुये पाठक को उनकी उच्चस्तरीय मानसिक रचना प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
            उनके गीतों में अभिव्यक्ति की सहजता अनुभूति की तरलता बिंबो और प्रतीकों की बहुलता के साथ ही उनके टटकेपन और अनूठेपन का बोध होता है।
  प्रस्तुत हैं उनके तीन चित्रात्मक गीत 

प्रस्तुति
मनोज जैन
चाँदी के चेहरे
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मंगल कलश दिया माटी के 
ढूँढ़ रहे कोंने।

हरे हरे पत्तों वाले मण्डप की छांव नहीं ।
यह सम्पन्न शहर है निर्धनता का गाँव नहीं।
प्लेटें चमक रही हैं,
निष्कासित पत्तल दोने।

गोबर के गणेश हल्दी,रोचन वाली थाली।
कोकिल बैनी वामाओं के गीत और गाली।
मंत्रोच्चार आदि भारत को,
भार लगे होने।

चांदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक झुक।
खड़ा-भोज ही बड़ा भोज कहलाने को उत्सुक।
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में,
स्यात् लगे खोने।

कामना की गाय
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सांझ के सूने कुएं  सा-मन 
काटने को दौड़ता है।

सूर्य घसियारा कटी अँगुली लिए,
काटता है फिर दिवस का घास।
भय अँधेरा-सा सिमिट कर शून्य में,
आ रहा है आहटों के पास।
चाह शिशु जैसे जननि स्तन,
दूध पीने को पकड़ता छोड़ता है।

लौटकर फिर आ रही निज थान पर ,
स्वयं बँधने कामना की गाय।
ह्रदय बछड़े-सा खड़ा है द्वार पर,
एक टक सा देखता निरूपाय।

हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन
दूध दुहने  बांधता है,छोड़ता है।

शीत का ऐलान
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हिम नदी में कूद कर मौसम,
इन दिनों स्नान करता है।

हर किरण पर धुंध का है आवरण।
आग ने भी शान्ति-सी कर ली वरण।

सूर्य खुद मफलर गले में बाँध,
शीत का एलान करता है।

शाम होते ही जगे सोये सपन।
ढूंढ़ते हैं शयन शैया में तपन।

एक कोने में दुबक दीपक निबल
शीत का गुणगान करता है।

गिरिमोहन गुरू
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प्रस्तुति

मनोज जैन

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