लुंज पुंज को कौन पूछता थोड़ा कड़ा बनो: डॉ मृदुल
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टिप्पणी
मनोज जैन
भोपाल
वरिष्ठ साहित्यकार और कुशल सम्पादक आदरणीय डॉ गोपाल कृष्ण शर्मा मृदुल जी के बेहद रोचक और महत्वपूर्ण संग्रह के गीतों से गुजरते हुये मेरा ध्यान उर्दू पोएट्री के सबसे ज्यादा प्रचलित फॉर्मेट खासतौर से गजल पर गया,मैं यहाँ सिर्फ श्रेष्ठ ग़ज़ल की बात कर रहा हूँ जहाँ सौ फीसदी शुद्ध कविता होती है।(यहाँ, मेरा आशय उनके गीतों को ग़ज़ल की श्रेणी में रखनेऔर उससे तुलना करने का नही है। पर हाँ प्योरिटी के मामले में निःसन्देह यह कह सकता हूँ कि, मृदुल जी के गीतों में सौ फीसदी कविता देखने को मिलती है।उनके यहाँ भर्ती का काम तो है ही नहीं। धारदार कथ्य को प्रवाहमान छंद में सलीके से रखने की कला में कवि मृदुल शर्मा जी सिद्ध हस्त हैं।प्रस्तुत गीत में उन्होंने मान्यवरों पर तीखा कटाक्ष किया है मैं कहना चाहता हूँ कि यहाँ मान्यवरों से आशय सिर्फ राज नेताओं भर से नहीं है बल्कि यहाँ मान्यवर शब्द को आप कॉमन नाउन के रूप में रखकर देख सकते हैं।हमारे साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे बहुत से मान्यवर हैं जिनकी तूती बोलती है पर अंदर से हैं खोखले ऐसे मैं सवाल उठता है कि इन मान्यवरों पर उँगली उठाये कौन?
तो चलिये यह काम हम अपने जिम्मे कर लेते हैं!आप लिखें चर्चा के लिये हम हैं जितना बनेगा चर्चा करेंगे!
कुछ मान्यवरों की पुस्तकों की संख्या भले ही सैकड़ो में हो पर उनके समग्र अवदान में ढंग के दस गीत भी नहीं मिलेंगे जिन पर आप बात कर सकें! निकष के इस फॉर्मूले पर परखें तो हाथ में सिफर ही आएगा।
खैर,
आज के लिए इतना ही आइये पढ़ते हैं मान्यवरों के सम्मान में लिखा हुआ एक शानदार नवगीत
आदरणीय मृदुल जी की कलम से
टिप्पणी
मनोज जैन
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आओ,हम भी
मान्यवरों के जैसा
बड़ा बने।
शब्दों की
सांकल पहना कर
बांधे लोगों को ।
अवसर हथियायें
कब्जे में लें
संयोगों को ।
मतलब
हल करने की खातिर
चिकना घड़ा बने ।
चित-पट
दोनों हों अपनी
कुछ ऐसी चाल चलें।
सभी विरोधी पस्त रहें
बेबस हो
हाथ मलें।
जोड़ जुगाड़ लगा
हम भी
शासन का धड़ा बने।
लड़ा बिल्लियों को
रोटी का
बंदर-बांट करें ।
खून पसीने पर
औरों के
जमकर ठाट करें ।
लुंज पुंज को
कौन पूछता
थोड़ा कड़ा बने।
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