बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

गरिमा सक्सेना के नवगीत और चर्चा प्रस्तुति : वागर्थ

गरिमा सक्सेना:

मंजिल की ओर तेजी से बढ़ते कदम
संदर्भ नवगीतों पर चर्चा--

         २५-३५ वर्ष तक की आयुवर्ग के रचनाकारों, ख़ासतौर से नवगीत रचना को केंद्र में रखकर यदि बात करें तो यह आँकड़ा संख्या बल में डेढ़ दर्जन के पार भी नहीं पहुँचता। इलेक्ट्राॅनिक व प्रिंट मीडिया की तह में जाकर खँगालने के उपरान्त ही मैंने अपनी निजी राय, जिसे मैं अब निजी धारणा ही कहूँगा, को अंतिम निष्कर्ष के तौर पर यहाँ पाठकों के मध्य प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। धारणा बनाने में मेरी सबसे ज्यादा सहायता कोविड-१९ के चलते हुये अचानक लाॅकडाऊन के कारण हिस्से में आये खाली समय ने की। इस समय के उपयोग के लिये मुझे फेसबुक पेजों पर विचरना सबसे अच्छा लगा। बीसियों पेजों पर सैकड़ों प्रस्तुतियों देखने के उपरांत बनी मेरी निजी राय आयुवर्ग के मामले में भले ही विरोधाभासी लगे पर मैं अपनी बात पर कायम हूँ। देखा जाये तो फेसबुक पेजों पर सबसे ज्यादा सक्रिय इसी आयुवर्ग के रचनाकारों से परिचित होने का सौभाग्य मिला पर इनके मंचीय रुझान और फूहड़ साहित्य से चाहकर भी मैं अपने आप को इन पेजों से जोड़ नहीं पाया।
पेजों पर प्रस्तुत मंच के व्यामोही इन कवियों की सतही तुकबंदियों पर कोई टीका-टिप्पणी करने से बेहतर है इनकी लंबित फाइल को क्यों न ठंडे बस्ते में डाल दिया जाय और अपनी चर्चा को मूल मुद्दे पर केंद्रित रखा जाये।
खैर,मंच की मेनका के सम्मोहन का आकर्षण होता ही ऐसा है कि अच्छे-अच्छे अखंड व्रती भी मंच के मोह में अपना शील भंग कर बैठते हैं।
फिर उक्त आयुवर्ग के रचनाकारों की भला क्या बिसात जो अपने आप को मंच के आकर्षण से ख़ुद को रोक लें।
वहीं दूसरी ओर,साहित्य-साधना के इस कठिन पथ को जिसमें कुछ मिलना-जुलना तो दूर गाँठ की पूँजी जाने का खतरा भी चौबीसों घण्टों सर पर मँडराता रहता है साथ ही साहित्य के संत भी प्रशंसा के मामले में चिर मौन साधे रहते हैं। 
फिर भी अपने हिंदी-प्रेम के चलते साहित्य के कुछ जिद्दी साधक ऐसे भी हैं जो साधना की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों पर कबीर की शैली में 'जो घर फूँके आपना सो चले हमारे साथ' की तर्ज पर ताउम्र बिना लाभ हानि के गणित की परवाह किये बगैर चलना स्वीकार करते हैं और वे इस साधना के कंटकाकीर्ण मार्ग पर ताउम्र चलते रहते। भले ही ऐसे साधकों की संख्या का आँकड़ा फिलहाल दहाई में ही क्यों न हो, पर यहाँ मैं जिस इकाई की बात कर रहा हूँ उसने अपने समकालीन रचनाकारों का ही नहीं, बल्कि साहित्य के पंडितों और मर्मज्ञों का ध्यान भी अपनी ओर खींचने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है।
जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ २९ जनवरी १९९० में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में जन्मी गरिमा सक्सेना की, इनके दो एकल संग्रह प्रकाशित हैं-
१)-दिखते नहीं निशान (दोहा संग्रह)
२)-है छिपा सूरज कहाँ पर (नवगीत संग्रह)
हाल ही में जिनके संपादन में 'दोहे के सौ रंग' दोहाकार शतक आया है जिसमें हरेराम समीप,हस्तीमल हस्ती, वीरेंद्र आस्तिक, जहीर कुरैशी, प्रभु त्रिवेदी, डॉ मंजुलता श्रीवास्तव, यश मालवीय,जयचक्रवर्ती,माहेश्वर तिवारी, कुंअर बेचैन,ब्रह्मजीत गौतम,अशोक अंजुम,दीनानाथ सुमित्र से लेकर युवा दोहाकार डाॅ महेश मनमीत,राहुल शिवाय तक अपने समय के चर्चित सभी बेहतरीन दोहाकारों को पढ़ा जा सकता है.. 
संदर्भित आयुवर्ग में गरिमा सक्सेना एकमात्र समर्थ महिला गीतकार हैं जिन्हें मैं पिछले चार वर्षों से स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर पढ़ता आ रहा हूँ।रूपाकार की दृष्टि से गरिमा की अब तक की प्रकाशित रचनाओं को को दोहा, ग़ज़ल, गीत और नवगीत की श्रेणी में बड़ी आसानी से बाँटा जा सकता है। रचना प्रक्रिया के बारे में
मेरा अपना मानना है कि रचनाकार के पास भाषा एक ऐसा टूल है जिससे वह अपने संवेदित मन को जन-जन तक बड़ी आसानी से ट्रांसफॉर्म कर सकता है साथ अगर इस टूल का सही प्रयोग ना हो तो परिणाम इसके उलट भी हो सकते हैं, मैं भाषा के ऐसे अनेक पंडितों को जानता हूँ जो अपनी क्लिष्ट भाषा के चलते जन-जन तो दूर अपने ही घर में ही संवेदित नहीं हो सके
गरिमा को काव्य भाषा के इस टूल का बेहतरीन प्रयोग करना आता है यही कारण है कि उनके गीत पूरी तरह अभिव्यक्त होते हैं इसीलिए वह ग्राह्य हैं।
सहज और सरल भाषा में युगीन त्रासद स्थितियों के नूतन बिंब गरिमा के गीतों में यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं।
कोविड-19 के चलते हाल ही में मानवजाति के समक्ष उपजे नवीन संकट को कवयित्री ने विज्ञान बोध के आयाम  जिसमें काल बोध भी शामिल है ढलना/गलना /रुकना/सरकना समय बोध की क्रमिक अवस्थाओं को जीवन यथार्थ के सन्दर्भ में व्यक्त किया है इन स्थिततियों में आज की पीढ़ियाँ कैसे आगे बढ़ेगी नए बदलावों को कैसे अडॉप्ट करेंगी, इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है असमय आये आसन्न संकट से उपजे, उनका एक टटके बिम्बों से मढ़ा हुआ एक गीत :-

इन अनचाहे बदलावों से
डर लगता है

हम अपने कंफ़र्ट ज़ोन को
त्यागें कैसे
सीधी पटरी छोड़ वक्र पर
भागें कैसे
छिल जायेंगे घुटने ठोकर
अगर लगी तो
हमें अभी भावी घावों से 
डर लगता है

साँचों में ढलने से पहले
गलना होगा
नये रूप में अब तो हमको
ढलना होगा
बदली सूरत क्या पहचानेंगे
खुद ही हम
दर्पण के हावों-भावों से
डर लगता है

मन बच्चा बन, पैर पटकता,
बाल नोंचता
है जड़त्व से रुका हुआ मन
नहीं सरकता
कब, क्यों, कैसे, कहाँ, अगर
औ मगर सताते
बहकावों से, अलगावों से 
डर लगता है

रहा प्रकृति का नियम सदा
परिवर्तित होना
वही बचा है जो सीखा 
अनुकूलित होना
रुका हुआ जल तालाबों का
गँदलाता है
जीवन को इन ठहरावों से
डर लगता है

स्मृति मात्र अतीत (काल का जो खण्ड है) की घटनाओं का संग्रह नहीं है, वरन् सर्जन और विचार में वह घटनाओं के हुजूम में उनका चयन करता है और उन्हें वर्तमान के सापेक्षता में व्याख्यायित करता है। इस सन्दर्भ में प्रस्तुत गीत में अजस्र प्रवाहित होती,समय की नदी से हम पूरे जीवन काल में उपयोग के नाम पर चुल्लू भर भी उपयोग नहीं कर पाते जीवन पर परिस्थितियों के बाहरी दबाव की व्यथा कथा प्रस्तुत करता द्रष्टव्य है एक पूरा गीत:-

नदी बह रही तेज़ समय की
अंजुलि भर हम पी पाते हैं

अंदर से हम रीत रहे हैं 
प्यास हो गई मरुथल जैसी
जीत रहे या बीत रहे हैं 
सोच हुई है दलदल जैसी
हुए लैमिनेटेड मन अपने
ख़ुद में खोकर रह जाते हैं

कसी लगाम घड़ी ने ऐसी
दौड़ रहे पर रुके हुए हम
जितनी ख़ुशी कमाने जाते
बोनस में मिल ही जाते ग़म
जितनी देर खींचते सेल्फी 
बस उतना ही मुस्काते हैं

इंद्रधनुष से ज्यादा अब तो 
मोबाइल के खेल रिझाते
कहाँ भीगते बारिश में अब
नहीं काग़जी नाव बहाते
देख बदलते ढंग सदी के
बस मन ही मन पछताते हैं

                               

        कल्पनाशीलता काव्य का एक प्रमुख गुण हैं जब हम अप्रस्तुत को काव्य का विषय बनाते हैं तब कल्पना की शक्ति रचना प्रक्रिया में अपना अहम् रोल अदा करती है प्रस्तुत गीत में परदा को प्रतीक मानकर कवयित्री ने अछूते सन्दर्भों की पर्तें खोली हैं पढ़ते हैं आज की प्रस्तुति में उनका गीत-

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ग़ौर करो तो सुन पाओगे 
परदे भी क्या कुछ कहते हैं

खिड़की से ये टुक-टुक देखें 
नभ में उड़तीं कई पतंगे
अक्सर नीदों में आ जाते
सपने इनको रंग-बिरंगे
लेकिन इनको नहीं इजाज़त
खुली हवा में लहराने की
बस छल्लों से बँधे-बँधे ही
ये परदे रोया करते हैं

घर के भीतर की सब बातें 
राज़ बनाकर रखते परदे
धूप, हवा, बारिश की बूँदे
बुरी नज़र भी सहते परदे
सन्नाटों में मकड़ी आकर
जाले यादों के बुन जाती
अवसादों की धूल हृदय पर
फिर भी ये हँसते रहते हैं

इन पर बने डिज़ाइन सुंदर
चमकीले कुछ फूल सुनहरे
परदे ढाँपें दर-दीवारें
और छिपाते दागी चेहरे
इन परदों ने लाँघी है कब 
मर्यादा की लक्ष्मण रेखा
आँख देखतीं, कान सुन रहे 
अधरों पर ताले रखते हैं।

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सीमेंटेड फर्शों पर उगती
दीखी जिद्दी घास
धूल फांकती हुई यहाँ
पगडंडी पड़ी उदास

पत्तों पर जल के फव्वारे 
मगर जड़ें हैं प्यासी
दीमक जैसी चाट रही है 
मन को एक उदासी
बिना जड़ों तक पोषण पहुँचे
होगा कहाँ विकास

बिन गहराई पाये चाहें
ऊँचाई को पाना
नहीं जानते मोल नींव का
चाहें मंजिल छाना
हुए स्वकेंद्रित नाते
सिकुड़ा अपनेपन का व्यास

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ओझल मुद्दों को करना है
हंगामा इसलिए जरूरी

संसद क्या है, एक अखाड़ा
याकि मनोरंजन का साधन
वैसे भी वह ही अच्छा है
जिसका अच्छा है विज्ञापन

बिन करतब के आखिर कैसे
सत् से रक्खी जाये दूरी

जुमले पढ़कर, स्वप्न दिखाकर
आँख मींचना है, छलना है
सबको अपनी साख चाहिए
सबको सुर्खी में रहना है

कला सियासत की यह ही है
"यह ही है इसकी मजबूरी"

युगों-युगों से एक मंत्र है
फूट अगर है, संभव शासन
जनता को सबसे प्यारा है
एक शब्द, केवल आश्वासन

सूखी रोटी को सपने में
दिखलाना है हलवा-पूरी

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       अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने को कवयित्री बिना किसी भटकाव के अपनी मंजिल की ओर निरन्तर अग्रसर हैं और नवगीत के समकालीन परिदृश्य में अपनी ओर से नवगीत के अवदान में निरन्तर नया जोड़ रही हैं।गरिमा सक्सेना को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाइयाँ।

© मनोज जैन

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